भगवान श्रीगणेश की कथाओं का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। श्रीगणेश ने कई लीलाएं ऐसी की हैं, जो कृष्ण की लीलाओं से मिलती-जुलती हैं। इन लीलाओं का वर्णन मुद्गलपुराण, गणेशपुराण, शिवपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है। आज हम आपको भगवान श्रीगणेश से जुड़ी कुछ ऐसी ही रोचक कथाएं बता रहे हैं, जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। ये कथाएं इस प्रकार हैं-
कैसे पाताल लोक के राजा बने गणपति?
एक बार गणपति मुनि पुत्रों के साथ पाराशर ऋषि के आश्रम में खेल रहे थे। तभी वहां कुछ नाग कन्याएं आ गईं। नाग कन्याएं गणेश को आग्रह पूर्वक अपने लोक लेकर जाने लगी। गणपति भी उनका आग्रह ठुकरा नहीं सके और उनके साथ चले गए।
नाग लोक पहुंचने पर नाग कन्याओं ने उनका हर तरह से सत्कार किया। तभी नागराज वासुकि ने गणेश को देखा और उपहास के भाव से वे गणेश से बात करने लगे, उनके रूप का वर्णन करने लगे। गणेश को क्रोध आ गया। उन्होंने वासुकि के फन पर पैर रख दिया और उनके मुकुट को भी स्वयं पहन लिया।
वासुकि की दुर्दशा का समाचार सुन उनके बड़े भाई शेषनाग आ गए। उन्होंने गर्जना की कि किसने मेरे भाई के साथ इस तरह का व्यवहार किया है। जब गणेश सामने आए तो शेषनाग ने उन्हें पहचान कर उनका अभिवादन किया और उन्हें नागलोक यानी पाताल का राजा घोषित कर दिया।
किसने दिए गणपति को उनके हथियार?
एक बार शिव कैलाश त्यागकर वन में जाकर रहने लगे। एक दिन शिव से मिलने विश्वकर्मा आए। उस समय गणेश की आयु मात्र छह वर्ष थी। गणेश ने विश्वकर्मा से कहा कि मुझसे मिलने आए हो तो मेरे लिए क्या उपहार लेकर आए हो। विश्वकर्मा ने कहा कि भगवन मैं आपके लिए क्या उपहार ला सकता हूं। आप तो स्वयं सच्चिदानंद हो।
विश्वकर्मा ने गणपति का वंदन किया और उनके सामने भेंट स्वरुप कुछ वस्तुएं रखीं, जो उनके हाथ से बनी हुई थीं। ये वस्तुएं थीं एक तीखा अंकुश, पाश और पद्म। ये आयुध पाकर गणपति को बहुत प्रसन्नता हुई। इन आयुधों से सबसे पहले छह साल के गणेश ने अपने मित्रों के साथ खेलते हुए एक दैत्य वृकासुर का संहार किया था।
जब गणपति ने चुराया ऋषि गौतम की रसोई से भोजन
एक बार बाल गणेश अपने मित्र मुनि पुत्रों के साथ खेल रहे थे। खेलते-खेलते उन्हें भूख लगने लगी। पास ही गौतम ऋषि का आश्रम था। ऋषि गौतम ध्यान में थे और उनकी पत्नी अहिल्या रसोई में भोजन बना रही थीं। गणेश आश्रम में गए और अहिल्या का ध्यान बंटते ही रसोई से सारा भोजन चुराकर ले गए और अपने मित्रों के साथ खाने लगे। तब अहिल्या ने गौतम ऋषि का ध्यान भंग किया और बताया कि रसोई से भोजन गायब हो गया है।
ऋषि गौतम ने जंगल में जाकर देखा तो गणेश अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहे थे। गौतम उन्हें पकड़कर माता पार्वती के पास ले गए। माता पार्वती ने चोरी की बात सुनी तो गणेश को एक कुटिया में ले जाकर बांध दिया। उन्हें बांधकर पार्वती कुटिया से बाहर आईं तो उन्हें आभास होने लगा जैसे गणेश उनकी गोद में हैं, लेकिन जब देखा तो गणेश कुटिया में बंधे दिखे। माता काम में लग गईं, उन्हें थोड़ी देर बाद फिर आभास होने लगा जैसे गणेश शिवगणों के साथ खेल रहे हैं।
उन्होंने कुटिया में जाकर देखा तो गणेश वहीं बंधे दिखे। अब माता को हर जगह गणेश दिखने लगे। कभी खेलते हुए, कभी भोजन करते हुए और कभी रोते हुए। माता ने परेशान होकर फिर कुटिया में देखा तो गणेश आम बच्चों की तरह रो रहे थे। वे रस्सी से छुटने का प्रयास कर रहे थे। माता को उन पर अधिक स्नेह आया और दयावश उन्हें मुक्त कर दिया।
जब गणपति ने किया सारे देवताओं को यज्ञ में निमंत्रित
एक बार भगवान शिव के मन में एक बड़े यज्ञ के अनुष्ठान का विचार आया। विचार आते ही वे शीघ्र यज्ञ प्रारंभ करने की तैयारियों में जुट गए। सारे गणों को यज्ञ अनुष्ठान की अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंप दी गई। सबसे बड़ा काम था यज्ञ में सारे देवताओं को आमंत्रित करना। आमंत्रण भेजने के लिए पात्र व्यक्ति का चुनाव किया जाना था, जो समय रहते सभी लोकों में जाकर वहां के देवताओं को ससम्मान निमंत्रण दे आए। ऐसे में किसी ऐसे व्यक्ति का चयन किया जाना था, जो तेजी से जाकर ये काम कर दे, लेकिन भगवान शिव को ये भी डर था कि कहीं आमंत्रण देने की जल्दी में देवताओं का अपमान ना हो जाए। इसलिए उन्होंने इस काम के लिए गणेश का चयन किया। गणेश बुद्धि और विवेक के देवता हैं। वे जल्दबाजी में भी कोई गलती नहीं करेंगे, ये सोचकर शिव ने गणपति को बुलाया और उन्हें समस्त देवी-देवताओं को आमंत्रित करने का काम सौंपा। गणेश ने इस काम को सहर्ष स्वीकार किया, लेकिन उनके साथ समस्या यह थी कि उनका वाहन चूहा था, जो बहुत तेजी से चल नहीं सकता था। गणेश ने काफी देर तक चिंतन किया कि किस तरह सभी लोकों में जाकर आदरपूर्वक सारे देवताओं को यज्ञ में शामिल होने का आमंत्रण दिया जाए। बहुत विचार के बाद उन्होंने सारे आमंत्रण पत्र उठाए और पूजन सामग्री लेकर ध्यान में बैठे शिव के सामने बैठ गए।
गणेश ने विचार किया कि यह तो सत्य है कि सारे देवताओं का वास भगवान शिव में है। उनको प्रसन्न किया तो सारे देवता प्रसन्न हो जाएंगे। ये सोचकर गणेश ने शिव का पूजन किया और सारे देवताओं का आह्वान करके सभी आमंत्रण पत्र शिव को ही समर्पित कर दिए। सारे आमंत्रण देवताओं तक स्वत: पहुंच गए और सभी यज्ञ में नियत समय पर ही पहुंच गए। इस तरह गणेश ने एक मुश्किल काम को अपनी बुद्धिमानी से आसान कर दिया।
कैसे एकदंत हो गए भगवान गणेश?
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु के अवतार परशुराम शिव के शिष्य थे। जिस फरसे से उन्होंने 17 बार क्षत्रियों को धरती से समाप्त किया था, वो अमोघ फरसा शिव ने ही उन्हें प्रदान किया था। 17 बार क्षत्रियों को हराने के बाद ब्राह्मण परशुराम शिव और पार्वती के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। उस समय भगवान शिव शयन कर रहे थे और पहरे पर स्वयं गणेश थे। गणेश ने परशुराम को रोक लिया। परशुराम को क्रोध बहुत जल्दी आता था।
वे रोके जाने पर गणेश से झगड़ने लगे। बात-बात में झगड़ा इतना बढ़ गया कि परशुराम ने गणेश को धक्का दे दिया। गिरते ही गणेश को भी क्रोध आ गया। परशुराम ब्राह्मण थे, सो गणेश उन पर प्रहार नहीं करना चाहते थे। उन्होंने परशुराम को अपनी सूंड से पकड़ लिया और चारों दिशाओं में गोल-गोल घूमा दिया। घूमते-घूमते ही गणेश ने परशुराम को अपने कृष्ण रूप के दर्शन भी करवा दिए। कुछ पल घुमाने के बाद गणेश ने उन्हें छोड़ दिया।
छोड़े जाने के थोड़ी देर तक तो परशुराम शांत रहे। बाद में परशुराम को अपने अपमान का आभास हुआ तो उन्होंने अपने फरसे से गणेश पर वार किया। फरसा शिव का दिया हुआ था सो गणेश उसके वार को विफल जाने नहीं देना चाहते थे, ये सोचकर उस वार को उन्होंने अपने एक दांत पर झेल लिया। फरसा लगते ही दांत टूटकर गिर गया। इस बीच कोलाहल सुन कर शिव भी शयन से बाहर आ गए और उन्होंने दोनों को शांत करवाया। तब से गणेश को एक ही दांत रह गया और वे एकदंत कहलाने लगे।
जब शनि ने देखा गणेश को…
वैसे तो गणेश की गज आकृति को लेकर सबसे ज्यादा सुनी-सुनाई जाने वाली कथा तो यही है कि पार्वती ने नहाने से पहले एक बालक की आकृति बनाकर उसमें प्राण डाल दिए और उसे पहरे पर बैठा दिया। जिसका सिर शिव ने काटा था और फिर पार्वती के क्रोध को शांत करने के लिए एक हाथी के बच्चे का सिर जोड़ दिया, लेकिन कुछ पुराणों में इसके अलग-अलग संदर्भ भी मिलते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कथा कुछ अलग ही है।
कथा कुछ ऐसी है कि एक बार भगवान शिव के शिष्य शनि देव कैलाश पर्वत पर आए। उस समय शिव ध्यान में थे तो शनिदेव सीधे पार्वती के दर्शन के लिए पहुंच गए। तब पार्वती बालक गणेश के साथ बैठी थीं। बालक गणेश का मुख सुंदर और हर तरह के कष्ट को भुला देने वाला था। शनिदेव आंखें नीची किए पार्वती से बात करने लगे।
पार्वती ने देखा कि शनिदेव किसी को देख नहीं रहे हैं। वे लगातार अपनी निगाहें नीची किए हुए हैं। पार्वती ने शनि देव से पूछा कि वे किसी को देख क्यों नहीं रहे हैं? क्या उनको कोई दृष्टिदोष हो गया है? शनिदेव ने कारण बताते हुए कहा कि उन्हें उनकी पत्नी ने शाप दिया है कि वो जिसे देखेंगे उसका विनाश हो जाएगा। पार्वती ने पूछा कि उनकी पत्नी ने ऐसा शाप क्यों दिया है तो शनिदेव कहने लगे कि मैं लगातार भगवान शिव के ध्यान में रहता हूं। एक बार में ध्यान में था और मेरी पत्नी ऋतुकाल से निवृत्त होकर मेरे समीप आई लेकिन ध्यान में होने के कारण मैंने उसकी ओर देखा नहीं।
उसने इसे अपना अपमान समझा और मुझे शाप दे दिया कि मैं जिसकी ओर देखूंगा, उसका विनाश हो जाएगा। ये बात सुन कर पार्वती ने कहा कि आप मेरे पुत्र गणेश की ओर देखिए, उसके मुख का तेज समस्त कष्टों को हरने वाला है। शनिदेव गणेश पर दृष्टि डालना नहीं चाहते थे लेकिन वे माता पार्वती के आदेश की अवहेलना भी नहीं कर सकते थे, सो उन्होंने तिरछी निगाह थे गणेश की ओर धीरे से देखा। शनि देव की दृष्टि पड़ते ही बालक गणेश का सिर धड़ से कटकर नीचे गिर गया। तभी भगवान विष्णु एक गजबालक का सिर लेकर पहुंचे और गणेश के सिर पर उसे स्थापित कर दिया।