Shri Kalikashtakam:श्री कालिकाष्टकम्
Shri Kalikashtakam:अनुवाद:
- श्री कालिकाष्टकम् – देवी काली के आठ श्लोकों का संग्रह है।
Shri Kalikashtakam:श्लोका
- आदिशक्त्यात्मनाम्भोजं यस्मिन्निन्दुकलाधराः। तां नमामि त्रिनेत्रां च शम्भोनाम्भोजनिर्झराम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो आदिशक्ति का स्वरूप हैं, जिनके कमलों पर चंद्रमा निवास करते हैं, जो तीन नेत्रों वाली हैं और जिनका नाम शम्भो के कमल से निकलने वाली जलधारा है।
- शूलपाशधनुषी च कृपाणं खड्गं च धारिणी। रक्तबीजमहावीर्यं वधं कर्तुमभीप्सतीम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो त्रिशूल, पाश, धनुष, कृपाण और खड्ग धारण करती हैं, जो रक्तबीज नामक महावीर्य का वध करने की इच्छा रखती हैं।
- सिंहयानप्रयाणां च भद्रकालां सुरेश्वरीम्। नमामि चन्द्रहासां च निशाचरात्मनाशनीम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो सिंह पर विराजमान हैं, जो भद्रकाल का नाम रखती हैं, जो देवों की रानी हैं, जो चंद्रहास नामक खड्ग धारण करती हैं और जो राक्षसों का नाश करने वाली हैं।
- जटामालावृतां देवीं दन्तमुक्ताविभूषिताम्। Shri Kalikashtakam पद्मासनप्रयाणां च सर्वभूतेश्वरीं शिवाम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो जटाओं से घिरी हुई हैं, जो दांतों से बने मोतियों से आभूषित हैं, जो कमल आसन पर विराजमान हैं और जो सभी प्राणियों की ईश्वरी हैं।
- नवनीतनिधिं कण्ठे धारिणीं च त्रिलोचनीम्। शूलपाशधनुषी च कृपाणं खड्गं च धारिणीम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो कण्ठ में नवनीत का भंडार धारण करती हैं, जो तीन नेत्रों वाली हैं, जो त्रिशूल, पाश, धनुष, कृपाण और खड्ग धारण करती हैं।
- रक्तबीजमहावीर्यं वधं कर्तुमभीप्सतीम्। सिंहयानप्रयाणां च भद्रकालां सुरेश्वरीम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो रक्तबीज नामक महावीर्य का वध करने की इच्छा रखती हैं, जो सिंह पर विराजमान हैं, जो भद्रकाल का नाम रखती हैं और जो देवों की रानी हैं।
- नमामि चन्द्रहासां च निशाचरात्मनाशनीम्। जटामालावृतां देवीं दन्तमुक्ताविभूषिताम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो चंद्रहास नामक खड्ग धारण करती हैं और जो राक्षसों का नाश करने वाली हैं, जो जटाओं से घिरी हुई हैं, जो दांतों से बने मोतियों से आभूषित हैं।
- पद्मासनप्रयाणां च सर्वभूतेश्वरीं शिवाम्। नवनीतनिधिं कण्ठे धारिणीं च त्रिलोचनीम्।
- अर्थ: मैं उस देवी को नमन करती हूं, जो कमल आसन पर विराजमान हैं और जो सभी प्राणियों की ईश्वरी हैं, जो कण्ठ में नवनीत का भंडार धारण करती हैं और जो तीन नेत्रों वाली हैं।
श्री कालिकाष्टकम् (Shri Kalikashtakam)
गलद्रक्तमुण्डावलीकण्ठमालामहोघोररावा सुदंष्ट्रा कराला।
विवस्त्रा श्मशानालया मुक्तकेशीमहाकालकामाकुला कालिकेयम्॥1॥
भुजे वामयुग्मे शिरोऽसिं दधानावरं दक्षयुग्मेऽभयं वै तथैव।
सुमध्याऽपि तुङ्गस्तनाभारनम्रालसद्रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या॥2॥
शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशीलसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची।
शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभिश्-चतुर्दिक्षुशब्दायमानाऽभिरेजे॥3॥
विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन्समाराध्य कालीं प्रधाना बभूबुः।
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥4॥
जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयंसुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम्।
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥5॥
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्लीमनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात्।
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं-स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥6॥
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्तालसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते।
जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्कास्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥7॥
चिदानन्दकन्दं हसन् मन्दमन्दंशरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम्।
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥8॥
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्राकदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया।
न बाला न वृद्धा न कामातुरापिस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥9॥
क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मयालोकमध्ये प्रकाशिकृतं यत्।
तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात्स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥10॥
यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्यस्तदासर्वलोके विशालो भवेच्च।
गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्तिःस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥11॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम् ॥