विष्णु भगवान की तीन पत्नियां थीं। लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा। तीनों बड़ी गुणवती और सौम्य हृदयया थीं, पर तीनों की अलग-अलग प्रकृति थी। तीनों भगवान विष्णु के प्रति मन में अनन्य प्रेम रखती थीं। स्वयं विष्णु भगवान भी तीनों को अनन्य प्रेम करते थे।
भगवान विष्णु ने अपनी तीनों पत्नियों को समान अधिकार प्रदान कर रखा था। तीनों बड़ी स्वतंत्रता के साथ अपने-अपने अधिकारों का उपभोग कर रही थीं। पर प्रकृति की भिन्नता के कारण सरस्वती के मन में संदेह पैदा हो उठा कि विष्णु मेरी अपेक्षा गंगा को अधिक प्रेम करते हैं। जब संदेह उत्पन्न हो गया तो ईर्ष्या भी पैदा हो उठी। सरस्वती गंगा से जलने लगीं। बात-बात में उन्हें खरी-खोटी सुनाने लगीं। गंगा कुछ बोलती नहीं थीं वे चुपचाप सुन लिया करती थीं।
लक्ष्मी को सरस्वती का व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उन्होंने अवसर पाकर सरस्वती से कहा-“बहन सरस्वती ! तुम जब देखो गंगा को खरी-खोटी सुनाती रहती हो। तुम यह अच्छा नहीं कर रहीं। मेरी बात मानो, गंगा को जली-कटी सुनानी बंद कर दो।”
पर लक्ष्मी की नेक सलाह सरस्वती को अच्छी नहीं लगी। उनके हृदय में तो ईर्ष्या की आग जल रही थी। उन्होंने सोचा कि लक्ष्मी गंगा का पक्ष ले रही हैं। अतः उनके हृदय की आग और भी अधिक भड़क उठी। वे क्रोध भरे स्वरों में बोलीं-“लक्ष्मी! तुम गंगा का पक्ष लेकर मेरा अपमान कर रही हो। मैं इसे सहन नहीं कर सकती। मैं तुम्हें शाप देती हूं, तुम नदी बनकर धरती पर प्रवाहित होओ।”
लक्ष्मी बड़ी शांत प्रकृति की थीं। वे सरस्वती के शाप को सुनकर भी शीतल बनी रहीं। उन्होंने न तो शाप का प्रतिवाद किया और न उनके प्रति मुख से कठोर शब्द ही निकाले। ऐसा लगा, जैसे उनके लिए कुछ हुआ ही न हो। पर गंगा को सरस्वती का शाप अच्छा नहीं लगा। वे सरस्वती के शाप को सुनकर उत्तेजित हो उठीं और क्रोध भरे स्वर में बोलीं- ‘सरस्वती ! तुमने लक्ष्मी को शाप देकर बड़ा अनुचित कार्य किया है। वे तो तुम्हारे शाप को सुनकर चुप रहीं। पर मैं चुप नहीं रह सकती। मैं तुम्हें भी शाप देती हूं, तुम भी नदी बन जाओ और धरती पर जाकर प्रवाहित होओ।”
यह सुनकर सरस्वती के मन की आग और भी अधिक भड़क उठी। वे क्रोध भरे स्वर में बोलीं- “मैं तो नदी बन जाऊंगी, पर तुम भी बैकुंठ में नहीं रह सकतीं। मैं भी तुम्हें शाप दे रही हूं, तुम भी नदी बन जाओ और धरती पर जाकर प्रवाहित होओ।”
इस प्रकार भगवान विष्णु की तीनों पत्नियां कलह और ईर्ष्या के कारण एक-दूसरे को शाप देकर दुख का शिकार बन गईं। यह सुनकर भगवान विष्णु को बड़ा दुख हुआ। उन्होंने अपनी पत्नियों से कहा- “तुम तीनों ने ईर्ष्या के कारण एक दूसरे को शाप देकर अच्छा नहीं किया। तुम तीनों ने स्वयं अपने लिए दुख को निमंत्रित किया है, अपने ही हाथों से अपने घर को जलाया
विष्णु की भर्त्सना से तीनों पत्नियां बड़ी दुखी हुईं। वे दुख प्रकट करती हुई, विष्णु से क्षमा याचना करने लगीं। विष्णु ने कहा- “तुम तीनों ने एक दूसरे को शाप दिया है। शाप के अनुसार तुम तीनों को नदी बनना ही पड़ेगा, नदी बनकर धरती पर जाना ही पड़ेगा।”
यह सुनकर लक्ष्मी का मन दुख से भर गया। उन्हें विष्णु का वियोग एक क्षण को भी सह्य नहीं था। वे अपने प्राणों को आंसुओं के रूप में बहाती हुई बोलीं-“प्रभो! मुझ पर दया कीजिए। मैं एक क्षण भी आपके बिना नहीं रह सकती। कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे मुझे आपसे विलग न होना पड़े, धरती पर न जाना पड़े।”
विष्णु ने कहा-“लक्ष्मी ! तुम्हें धरती पर जाना ही पड़ेगा, किंतु तुम्हारे हृदय में कपट और ईर्ष्या का भाव नहीं है। अतः तुम मुझे बहुत प्रिय हो। तुम्हें मुझसे विलग नहीं होना पड़ेगा। तुम अर्द्धशक्ति से मेरे पास रहो और अर्द्धशक्ति के रूप में पद्मावती नदी के रूप में धरती पर जाकर बहो। धरती पर शंखचूड़ नामक एक राक्षस उत्पन्न होगा। वह मेरा ही अंश होगा। तुम तुलसी के रूप में उसकी पत्नी बनोगी। तुम तुलसी के रूप में सदा विष्णुप्रिया बनी रहोगी और जन-जन से आदर पाओगी।”
गंगा को भी भगवान विष्णु से विलग होने का बड़ा दुख था। अतः उन्होंने भी साश्रु नयन निवेदन किया-“प्रभो! ऐसा कोई उपाय बताइए, जिससे मैं आपसे विलग न होऊं।”
भगवान विष्णु ने कहा- “गंगे! शापवश तुम्हें भी धरती पर जाना ही पड़ेगा। राजा भगीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए तप कर रहे हैं। तुम्हें धरती पर गंगा के रूप में प्रवाहित होना पड़ेगा और भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करना होगा। तुम भगीरथ के पूर्वजों का उद्धार करके समुद्र में मिल जाओ। समुद्र मेरा ही रूप है। अत: तुम सदा मुझमें ही रहोगी। तुम स्वर्ग से उतरने पर शिव की जटाओं में रहोगी। शिव और मुझमें कोई अंतर नहीं है। इस रूप में भी तुम सदा मुझमें ही रहोगी।”
सरस्वती चुपचाप विष्णु की बातों को सुन रही थीं। अंत में भगवान विष्णु ने सरस्वती की ओर देखा और कहा-“सरस्वती ! तुम अपने अर्द्धगुणों से नदी बनकर बहोगी और अर्द्धगुणों से ब्रह्मा की पत्नी बनोगी। शाप का फल तुम्हें भी भोगना ही पड़ेगा।”
सरस्वती बोलीं-“भगवन! आप तो भेद-विभेद रहित हैं, फिर आप लक्ष्मी और मुझमें भेद क्यों कर रहे हैं? आपने लक्ष्मी को तो अपने पास ही रहने की अनुमति प्रदान की, पर मुझे आप सदा के लिए विलग कर रहे हैं।”
विष्णु बोले-“सरस्वती! किसी को भी न तो मैं विलग करता हूं और न अपने पास रखता हूं। मेरी किसी में न तो आसक्ति है और न किसी से भी विरक्ति है। सबको अपने-अपने गुणों और कर्मों के अनुसार ही मेरा साहचर्य प्राप्त होता है। लक्ष्मी निष्कपट हृदय की हैं। वे न तो किसी से ईर्ष्या करती हैं, न किसी से बैर रखती हैं। वे सबसे प्रेम करती हैं। यही कारण है, वे सदा मेरे साथ रहती हैं। पर तुम ईर्ष्या और क्रोध के वशीभूत रहती हो। यही कारण है, तुम्हें मुझसे विलग होना पड़ा है।”
विष्णु के कथन को सुनकर सरस्वती मौन हो गईं। उन्हें ऐसा लगा, जैसे विष्णु के कथन का प्रत्येक अक्षर उनके सामने मूर्तिमान बनकर खड़ा हो गया हो। सरस्वती का हृदय पश्चाताप की वेदना से जलने लगा, पर अब क्या हो सकता था? अब तो तीर उनके हाथों से छूट चुका था।
जो मनुष्य क्रोध और ईर्ष्या के वशीभूत होकर अपने हाथों से ही अपने घरों में आग लगा लेते हैं, उन्हें सरस्वती की भांति ही पश्चाताप की वेदना में जलना पड़ता है।