तदनन्तर लक्ष्मण ने जाकर पुनः जानकी के चरणों में प्रणाम किया। लक्ष्मण को आया देख पुनः अपने को बुलाये जाने की बात सुनकर सीता ने कहा —- ‘लक्ष्मण ! मुझे श्री रामचंद्र जी ने त्याग दिया है अतः अब मैं कैसे चल सकती हूँ? मैं यहीं रहकर श्री राम को स्मरण किया करूँगी।उनकी बात सुनकर लक्ष्मण ने कहा —- माता ! आप पतिव्रता हैं, श्री रघुनाथ जी बारंबार आपको बुला रहे हैं।पति परायणा स्त्री अपने पति के अपराध को मन में नहीं लाती; इसलिए आप रथ पर बैठकर मेरे साथ चलने की कृपा कीजिए। लक्ष्मण की ये बातें सुनकर सीता सभी तपस्विनी स्त्रियों तथा मुनियों को प्रणाम करके मन ही मन श्री राम का स्मरण करती हुई रथ पर बैठकर अयोध्या की ओर चलीं। नगरी में पहुँच कर वे सरयू तट पर गयीं। सीता वहाँ जाकर रथ से उतर गयीं और श्री रामचंद्र जी के समीप पहुँच कर उनके चरणों में लग गयीं।
श्री रामचंद्र जी बोले —-‘साध्वि ! इस समय तुम्हारे साथ मैं यज्ञ की समाप्ति करूँगा।’
तत्पश्चात् सीता महर्षि वाल्मीकि तथा अन्य ऋषियों को प्रणाम करके माताओं के चरणों में प्रणाम करने के लिए उनके पास गयीं। जानकी को आया देख कौशल्या को बड़ा हर्ष हुआ। सीता ने सभी माताओं के चरणों में प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया।
सीता को आया देख कर महर्षि कुम्भज ने सोने की सीता को हटा दिया और उसकी जगह उन्हें ही बिठाया। फिर उत्तम समय आने पर श्री रघुनाथ जी ने यज्ञ का कार्य आरंभ किया। उन्होंने महर्षि वसिष्ठ से पूछकर सभी महर्षियों तथा ब्राहणों की पूजा की और रत्न व सुवर्णों के भार दक्षिणा में देकर संतुष्ट किया।
इसके बाद श्री रामचंद्र जी सीता के साथ सोने के घड़े में जल ले आने के लिए गये। उनके पीछे सभी भाई व उनके पुत्र पत्नियों सहित तथा अन्य राजा भी अपनी अपनी पत्नियों सहित चले। महर्षि वसिष्ठ ने सरयू में जाकर वेद मंत्र के द्वारा उसके जल को अभिमन्त्रित किया। वे बोले —हे जल ! तुम श्री रामचंद्र जी के यज्ञ के लिए निश्चित किए हुए इस अश्व को पवित्र करो।
मुनि के अभिमन्त्रित किए हुए उस जल को राम आदि सभी राजा यज्ञ मण्डप में ले आये। उस जल से उस श्वेत अश्व को नहलाकर महर्षि कुम्भज ने राम के हाथ से उसे अभिमन्त्रित कराया।
श्री रामचंद्र जी अश्व को लक्ष्य करके बोले — महावाह ! ब्राह्मणों से भरे इस यज्ञ-मण्डप में तुम मुझे पवित्र करो। ऐसा कहकर श्री राम ने सीता के साथ उस अश्व का स्पर्श किया। उस समय यह बात सभी ब्राह्मणों को बड़ी विचित्र लगी। वे कहने लगे —-‘अहो ! जिनके नाम का स्मरण करने से मनुष्य बड़े बड़े पापों से छूट जाता है, वे ही श्री रघुनाथ जी यह क्या कह रहे हैं? (क्या अश्व इन्हें पवित्र करेगा? )
श्री राम के हाथ का स्पर्श होते ही उस अश्व ने पशु शरीर का परित्याग करके तुरंत दिव्य रूप धारण कर लिया। दिव्य रूप धारी उस अश्व को देख कर सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। श्री रामचंद्र जी ने सब जानते हुए भी उससे पूछा —-‘दिव्य शरीर धारण करने वाले पुरुष ! तुम कौन हो? अश्व योनि में क्यों पड़े थे तथा इस समय क्या करना चाहते हो? ये सब बातें बताओ।
अश्वमेध यज्ञ के अश्व के पूर्व जन्म की कथा-
राम की बात सुनकर दिव्य रूप धारी पुरुष ने कहा —–‘भगवन् ! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। फिर भी यदि आप पूछ रहे हैं तो मैं आपसे सब कुछ ठीक ठीक बता रहा हूँ । पूर्व जन्म में मैं एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण था, किन्तु मुझसे एक अपराध हो गया।
एक दिन मैं सरयू के तट पर गया और वहाँ स्नान, दान करके वेदोक्त रीति से आपका ध्यान करने लगा। उस समय मेरे पास बहुत से लोग आये और उनको ठगने के लिए मैंने कई प्रकार का दम्भ प्रकट किया।इसी समय महातेजस्वी महर्षि दुर्वासा पृथ्वी पर विचरते हुए वहाँ आये और सामने खड़े हो कर मुझे देखने लगे।मैंने मौन धारण कर रखा था; न तो उठकर उन्हें अर्ध्य दिया और न कोई स्वागत सत्कार किया। महर्षि दुर्वासा का स्वभाव तो यों ही तीक्ष्ण है, मुझे दम्भ करते देख कर वे प्रचण्ड क्रोध के वशीभूत हो गये तथा शाप देते हुए बोले —–तापसाधम ! यदि तू सरयू के तट पर ऐसा घोर दम्भ कर रहा है तो पशु योनि को प्राप्त हो जा।’
मुनि के शाप को सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ और मैंने उनके चरण पकड़ लिए। तब मुनि ने मुझ पर महान अनुग्रह किया। वे बोले —–‘तापस ! तू श्री रामचंद्र जी के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बनेगा; फिर भगवान के हाथ का स्पर्श होने से तू दम्भहीन एवं दिव्य रूप धारण करके परमपद को प्राप्त हो जायगा।’
महर्षि का दिया हुआ यह शाप मेरे लिए अनुग्रह बन गया। अनेक जन्मों के बाद भी जिसकी प्राप्ति कठिन है वही आपकी अंगुलियों का स्पर्श आज मुझे प्राप्त हुआ है । महाराज ! अब आज्ञा दीजिए, मैं आपकी कृपा से महत् पद को प्राप्त हो रहा हूँ ।
यह कहकर उसने श्री राम की परिक्रमा की और विमान पर बैठ कर वह उनके सनातन धाम को चला गया।उसकी बातें सुनकर अन्य साधारण लोगों को भी श्री राम की महिमा का ज्ञान हुआ।
तदनन्तर, मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी बोले —–‘रघुनन्दन ! आप देवताओं को कर्पूर भेंट कीजिए, जिससे वे प्रत्यक्ष प्रकट होकर हविष्य ग्रहण करेंगे ।’ यह सुनकर श्री रामचंद्र जी ने देवताओं को सुंदर कर्पूर अर्पण किया ।महर्षि वशिष्ठ जी ने प्रसन्न होकर देवताओं का आवाहन किया ।मुनि के आवाहन पर सभी देवता अपने अपने परिवार सहित वहाँ आ पहुँचे। यज्ञ की हवि का इन्द्र सहित सभी देवताओं ने आस्वादन किया। इसके बाद सभी देवता अपना अपना भाग लेकर अपने धाम को चले गये। स्त्रियाँ श्री राम के ऊपर लाजा(खील) की वर्षा करने लगीं। तव श्री राम ने सीता के साथ सरयू के पावन जल में स्नान किया। इस प्रकार भगवान श्री राम ने सीता के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया और अनुपम कीर्ति प्राप्त की।