कुम्भ मेले का आयोजन चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में होता है। हर जगह कुम्भ मेले का आयोजन 12 साल में एक बार होता है। आइए जानते है क्या है इसका कारण-कुम्भ मेले के 12 वर्ष में एक बार आयोजित होने के पीछे दो मान्यताएं है। पहली ज्योतिष, दूसरी पौराणिक।ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार भचक्र में स्थित 360 अंश को 12 भागों में बांटकर 12 राशियों की कल्पना की गई है। भचक्र से तात्पर्य आकाश मंडल से है। हर कुंभ के निर्धारित मुहूर्त में गुरु और सूर्य विशेष महत्वपूर्ण होते हैं। गुरु एक राशि पर लगभग 13 महीने तक रहता है और फिर उसी राशि पर आने में 12 वर्ष का समय लगता है। यही कारण है कि कुंभ पर्व 12 वर्ष में एक बार होता है। हरिद्वार, प्रयाग व नासिक में हर 12 वें साल में कुंभ की परंपरा है। उज्जैन में कुंभ को सिंहस्थ कहा जाता है क्योंकि इस समय गुरु सिंह राशि में होता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया। जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला। इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र को श्रीविहीन होने का शाप दिया। इस घटना के बाद इन्द्र घबराए हुए ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने इन्द्र को लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे इन्द्र की रक्षा करने की प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि इस समय असुरों का आतंक है। इसलिए तुम उनसे संधि कर लो और देवता और असुर दोनों मिलकर समुद्र मंथन कर अमृत निकालों। जब अमृत निकलेगा तो हम तुम लोगों को अमृत बांट देंगे और असुरों को केवल श्रम ही हाथ मिलेगा।
पृथ्वी के उत्तर भाग मे हिमालय के समीप देवता और दानवों ने समुद्र का मन्थन किया। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा रम्भा कल्पबृक्ष शंख, गदा धनुष कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। इस कलश के लिए असुरों और दैत्यों में संघर्ष शुरू हो गया। अमृत कलश को दैत्यों से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि की सहायता से उसे लेकर भागे। यह देखकर दैत्यों ने उनका पीछा किया। यह पीछा बारह दिनों तक होता रहा। देवता उस कलश को छिपाने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को भागते रहे और असुर उनका पीछा करते रहे।इस भागदौड़ में देवताओं को पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करनी पड़ी। इन बारह दिनों की भागदौड़ में देवताओं ने अमृत कलश को हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन नामक स्थानों पर रखा। इन चारों स्थानों में रखे गए कलश से अमृत की कुछ बूंदे छलक पड़ी। अंत में कलह को शांत करने के लिए समझौता हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को भरमाए रखा और अमृत को इस प्रकार बांटा कि दैत्यों की बारी आने तक कलश रिक्त हो गया। देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर माना गया है। इसलिए हर 12 वें वर्ष कुंभ की परंपरा है।