यों तो हिंदू धर्म में कई ऐसी पौराणिक कथाएं हैं जिसमे देवताओं और असुरों के बीच युद्ध कथाएं प्रचलित हैं। मगर, सबसे ज्यादा प्रचलित कथा है ‘समुद्र मंथन’आइये जानते हैं समुद्र मंथन से जुड़ी पौराणिक कथा –
एक बार दुर्वासा ऋषि एवं उनके शिष्य शिवजी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत की और जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों का बहुत ही आदर सत्कार किया, जिससे दुर्वासा ऋषि अत्यत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र को विष्णु भगवान का ‘पारिजात पुष्प’ दिया।
धन सम्पति वैभव एवं इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस ‘पारिजात पुष्प’ को अपने प्रिय हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत हाथी सहसा ही विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र के अवहेलना कर दी और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।
इन्द्र को दिए आशीर्वाद के रूप में भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया।
दुर्वासा ऋषि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका सारा धन वैभव लुप्त हो गया।
जब यह खबर दैत्यों (असुरों) को मिली तो उन्होंने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित कर स्वर्ग पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।
उसके बाद निराश होकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में पहुंचे । तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र इंद्र, भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। यदि तुम उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो तो उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव (स्वर्ग) पुनः मिल जाएगा।’’
भगवान विष्णु द्वारा समुद्र मंथन का उपाय
द्र और अन्य देवताओं के आग्रह पर ब्रह्माजी भी उनके साथ भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे।
सभी देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले ” हे प्रभु ! आपके श्रीचरणों में हमारा कोटि कोटि प्रणाम। भगवन् ! दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए। हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए।”
भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं, वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगणों से बोले—‘‘मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है।
क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए।
तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर पाएंगे । वे जो भी शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लो। यह बात याद रखो कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’
भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।
समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे।
समुद्र मंथन से निकला अमृत
अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी।
इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये, किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिवजी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ भी कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।
फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ और इस बार दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया।
फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया।
उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने रख लिया।
ऐरावत के बाद कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया।
फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया।
आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया।
उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया।
फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।” धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे।
देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे।
देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे।
उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे।
जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
वे दैत्य बोले, आओ शुभगे ! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।”
इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, “हे देवताओं और दानवों! तुम दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।”
विश्वमोहिनी के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और असुरों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, “सुन्दरी ! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार इस अमृत बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।”
विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और दैत्यों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद दैत्यों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। दैत्य उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।
भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया।
अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।
इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप हो गये। उनके लोप होते ही दैत्यों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। इस बार सभी देवराज अपनी शक्ति वापित पा चुके थे। अतः उन्होंने दैत्यों को। परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस प्राप्त कर लिया.