
Vishwavasu Gandharv Stotra: विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र (श्री विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र): विवाह के लिए ज्योतिष शास्त्र का एक नियम है, सप्तम भाव की दशा और नवम भाव की अंतर्दशा मंगलकारी होती है। गुरु गोचर या नवम भाव में केंद्र में हो और सप्तम भाव के स्वामी का लग्न हो। अतः यदि इनमें से कोई भी ग्रह शत्रु राशि, शत्रु राशि या नीच राशि में हो तो इन स्तोत्रों का जाप करें। Vishwavasu Gandharv Stotra यदि किसी व्यक्ति का विवाह किसी कारणवश नहीं हो पा रहा है Vishwavasu Gandharv Stotra तो उसे शीघ्र ही कुछ विशेष उपाय करने चाहिए।
Vishwavasu Gandharv Stotra: विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र शास्त्रों के अनुसार, इन उपायों को करने से न केवल विवाह होता है, बल्कि सुंदर और सुयोग्य पत्नी भी प्राप्त होती है। यदि किसी अविवाहित युवक का किसी कारणवश विवाह नहीं हो पा रहा है, Vishwavasu Gandharv Stotra तो उसे प्रतिदिन प्रातः स्नानादि के पश्चात एकांत स्थान पर बैठकर मां दुर्गा का ध्यान करते हुए घी का दीपक जलाकर पंचपदी के विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र का 108 बार पाठ करना चाहिए। Vishwavasu Gandharv Stotra जगतजननी माता दुर्गा की कृपा से शीघ्र ही योग्य पत्नी की प्राप्ति होती है।
गंधर्व-राज विश्वावसु (विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र Vishwavasu Gandharv Stotra) की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ एवं ‘विवाह’ के लिए की जाती है। स्त्रीत्व प्राप्ति एवं विवाह के लिए इनका प्रयोग अचूक है। शास्त्रों के अनुसार, गंधर्व या विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र विश्वावसु को जल की यह सात आहुति देने से, उपर्युक्त स्तोत्र का जप करने से एक माह के भीतर ही आभूषणों से सुसज्जित श्रेष्ठ पत्नी की प्राप्ति होती है।
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Vishwavasu Gandharv Stotra: यदि किसी अविवाहित व्यक्ति के विवाह में बार-बार बाधा आ रही हो, तो प्रतिदिन स्नान के पश्चात ‘विश्वावसु’ गंधर्व को जल की सात आहुति दें और निम्नलिखित स्तोत्र का मन ही मन 108 बार जप करें। ध्यान रहे कि इसे गुप्त रखें। इस क्रिया की जानकारी परिवार के अलावा किसी को न हो। Vishwavasu Gandharv Stotra संध्या के समय भी एक माला का मानसिक जप करना चाहिए। Vishwavasu Gandharv Stotra विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र के पाठ से एक माह में ही सुंदर, सुशील और योग्य कन्या से विवाह तय हो सकता है।
विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र के लाभ:
Vishwavasu Gandharv Stotra अविवाहित जातकों को शीघ्र वर की प्राप्ति हो सकती है।
वर-वधू न केवल सुंदर होगा, बल्कि सुसंस्कारी भी होगा।
वर-वधू जीवन में सौभाग्य लाएगा।
इस स्तोत्र का पाठ किसे करना चाहिए:
Vishwavasu Gandharv Stotra: जिन व्यक्तियों का विवाह लंबे समय से नहीं हो रहा है या विवाह में बाधाएँ आ रही हैं, Vishwavasu Gandharv Stotra उन्हें विश्वावसु गंधर्व स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।
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श्री विश्वावसु गन्धर्व स्तोत्र हिंदी पाठ:Vishwavasu Gandharv Stotra in Hindi
Vishwavasu Gandharv Stotra: प्रणाम-मन्त्रः- ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।।
।। पूर्व-पीठिका ।।
ॐ नमस्कृत्य महा-देवं, सर्वज्ञं परमेश्वरम् ।।
।। श्री पार्वत्युवाच ।।
भगवन् देव-देवेश, शंकर परमेश्वर ।
कथ्यतां मे परं स्तोत्रं, कवचं कामिनां प्रियम् ।।
जप-मात्रेण यद्वश्यं, कामिनी-कुल-भृत्यवत् ।
कन्यादि-वश्यमाप्नोति, विवाहाभीष्ट-सिद्धिदम् ।।
भग-दुःखैर्न बाध्येत, सर्वैश्वर्यमवाप्नुयात् ।।
।। श्रीईश्वरोवाच ।।
अधुना श्रुणु देवशि ! कवचं सर्व-सिद्धिदं ।
विश्वावसुश्च गन्धर्वो, भक्तानां भग-भाग्यदः ।।
कवचं तस्य परमं, कन्यार्थिणां विवाहदं ।
जपेद् वश्यं जगत् सर्वं, स्त्री-वश्यदं क्षणात् ।।
भग-दुःखं न तं याति, भोगे रोग-भयं नहि ।
लिंगोत्कृष्ट-बल-प्राप्तिर्वीर्य-वृद्धि-करं परम् ।।
महदैश्वर्यमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदाम् ।
नूतन-सुभगं भुक्तवा, विश्वावसु-प्रसादतः ।।
विनियोगः सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे ।
ॐ अस्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवता, ऐं क्लीं बीजं, क्लीं श्रीं शक्तिः, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकं, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादि-न्यास:
विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवतायै नमः हृदि, ऐं क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, क्लीं श्रीं शक्तये नमः पादयो, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकाय नमः नाभौ, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।।
षडङ्ग-न्यास-कर-न्यास-अंग-न्यास
ॐ क्लीं ऐं क्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ क्लीं श्रीं गन्धर्व-राजाय क्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ क्लीं कन्या-दान-रतोद्यमाय क्लीं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ क्लीं धृत-कह्लार-मालाय क्लीं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ क्लीं भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ क्लीं सौः हंसः ब्लूं ग्लौं क्लीं करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
मन्त्रः- ॐ क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय नमः ॐ ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौः ब्लूं ग्लौं क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय कन्या-दान-रतोद्यमाय धृत-कह्लार-मालाय भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय सालंकारां सु-रुपां दिव्य-कन्या-रत्नं मे देहि-देहि, मद्-विवाहाभीष्टं कुरु-कुरु, सर्व-स्त्री वशमानय, मे लिंगोत्कृष्ट-बलं प्रदापय, मत्स्तोकं विवर्धय-विवर्धय, भग-लिंग-रोगान् अपहर, मे भग-भाग्यादि-महदैश्वर्यं देहि-देहि, प्रसन्नो मे वरदो भव, ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं ब्लूं ग्लौं क्लीं नमः स्वाहा ।। (200 अक्षर, 12 बार जपें)
गायत्री मन्त्रः- ॐ क्लीं गन्धर्व-राजाय विद्महे कन्याभिः परिवारिताय धीमहि तन्नो विश्वावसु प्रचोदयात् क्लीं ।। (10 बार जपें)
ध्यान:-
क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् कह्लार-माला-धृतन्,
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् ।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मुथुनासने संस्थितम्,
स्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।।
।। कवच मूल पाठ ।।
क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्-
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् ।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं,
त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। 1 ।।
क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः ।
नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं ।। 2 ।।
क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः ।
हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं ।। 3 ।।
क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः ।
करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं ।। 4 ।।
क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित् ।
कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं ।। 5 ।।
क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत् ।
नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं ।। 6 ।।
क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः ।
लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं ।। 7 ।।
क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः ।
दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं ।। 8 ।।
क्लीं लिंग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंगी च वीर्यवान् ।
सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिंगार्चन-प्रियः क्लीं ।। 9 ।।
क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः ।
वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं ।। 10 ।।
क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः ।
जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं ।। 11 ।।
क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः ।
पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं ।। 12 ।।
क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका ।
भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं ।। 13 ।।
क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः ।
धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं ।। 14 ।।
क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः ।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं ।। 15 ।।
क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये ।
वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं ।। 16 ।।
क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान् ।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं ।। 17 ।।
क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम् ।
दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं ।। 18 ।।
क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे ।
विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं ।। 19 ।।
क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः ।
वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं ।। 20 ।।
क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः ।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं ।। 21 ।।
।। फल-श्रुति ।।
इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम् ।
भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि ।। 22 ।।
एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत् ।
वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम् ।। 23 ।।
सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः ।
विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि ।। 23 ।।
पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत् ।
भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम् ।। 25 ।।
गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा ।
महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम् ।। 26 ।।
देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम् ।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात् ।। 27 ।।
राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-विवर्धनम् ।
हेम-रत्नादि-वस्त्रं च, कोश-वृद्धिस्तु जायताम् ।। 28 ।।
यस्य गन्धर्व-सेवा वै, दैत्य-दानव-राक्षसैः ।
विद्याधरैः किंपुरुषैः, चण्डिकाद्या भयं नहि ।। 29 ।।
महा-मारी च कृत्यादि, वेतालैश्चैव भैरवैः ।
डाकिनी-शाकिनी-भूतैर्न भयं कवचं पठेत् ।। 30 ।।
प्रयोगादि-महा-मन्त्र-सम्पदो क्रूर-योगिनाम् ।
राज-द्वारे श्मशाने च, साधकस्य भयं नहि ।। 31 ।।
पथि दुर्गे जलेऽरण्ये, विवादे नृप-दर्शने ।
दिवा-रात्रौ गिरौ मेघे, भयं नास्ति जगत्-त्रये ।। 32 ।।
भोजने शयने भोगे, सभायां तस्करेषु च ।
दुःस्वप्ने च भयं नास्ति, विश्वावसु-प्रसादतः ।। 33 ।।
गजोष्ट्रादि-नखि-श्रृंगि, व्याग्रादि-वन-देवताः ।
खेचरा भूचरादीनां, न भयं कवचं पठेत् ।। 34 ।।
रणे रोगाः न तं यान्ति, अस्त्र-शस्त्र-समाकुले ।
साधकस्य भयं नास्ति, सदेदं कवचं पठेत् ।। 35 ।।
रक्त-द्रव्याणि सर्वाणि, लिखितं यस्तु धारयेत् ।
सभा-राज-पतिर्वश्यं, वश्याः सर्व-कुलांगनाः ।। 36 ।।
रम्भादि-कामिनीः सर्वाः, वश्याः तस्य न संशयः ।
मदन-पुटितं जप्त्वा जप्त्वा च भग-मालिनीं ।। 37 ।।
भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, वृद्धिः तस्य सदा भवेत् ।
बाला-त्रिपुर-सुन्दर्या, पुटितं च पठेन्नरः ।। 38 ।।
सालंकारा सुरुपा च, कन्या भार्यास्तु जायतां ।
बाला प्रौढ़ा च या भार्या, सर्वा-स्त्री च पतिव्रता ।। 39 ।।
गणिका नृप-भार्यादि, जपाद्-वश्यं च जायताम् ।
शत-द्वयोः वर्णकानां, मन्त्रं तु प्रजपेन्नरः ।। 40 ।।
वश्यं तस्य जगत्-सर्वं, नर-नारी-स्व-भृत्य-वत् ।
ध्यानादौ च जपेद्-भानुं, ध्यानान्ते द्वादशं जपेत् ।। 41 ।।
गायत्री दस-वारं च, जपेद् वा कवच पठेत् ।
युग्म-स्तोत्रं पठेन्नित्यं, बाला-त्रिपुरा-सुन्दरीम् ।। 42 ।।
कामजं वंश-गोपालं, सन्तानार्थे सदा जपेत् ।
गणेशास्यालये जप्त्वा, शिवाले भैरवालये ।। 43 ।।
तड़ागे वा सरित्-तीरे, पर्वते वा महा-वने ।
जप्त्वा पुष्प-वटी-दिव्ये, कदली-कयलालये ।। 44 ।।
गुरोरभिमुखं जप्त्वा, न जपेत् कण्टकानने ।
मांसोच्छिष्ट-मुखे जप्त्वा, मदिरा नाग-वल्लिका ।। 45 ।।
जप्त्वा सिद्धिमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदां ।
देहान्ते स्वर्गमाप्नोति, भुक्त्वा स्वर्गांगना सदा ।। 46 ।।
कल्पान्ते मोक्षमाप्नोति, कैवलं पदवीं न्यसेत् ।
न देयं यस्य कस्यापि, कवचं दिव्यं दिव्यं पार्वति ।। 47 ।।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, काम-मार्ग-रताय च ।
देयं कौल-कुले देवि ! सर्व-सिद्धिस्तु जायताम् ।। 48 ।।
भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, सन्तानौ सम्पदोत्सवः ।
विश्वावसु प्रसन्नो च, सिद्धि-वृद्धिर्दिनेदिने ।। 49 ।।
।। इति श्री विश्वावसु गन्धर्व स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।