सूत जी आगे की कहानी सुनाते हुए कहते हैं कि सालों पहले उल्कामुख नामक एक राजा था। वह बुद्धिमान होने के साथ-साथ सत्यवादी और शांत स्वभाव का व्यक्ति था। वो रोजाना मंदिरों में जाकर गरीबों को धन दान करके उनके दुखों को दूर करता था। राजा उल्कामुख की पत्नी कमल के फूल के समान थी। उन्हें पवित्र स्त्री माना जाता था।
एक बार राजा उल्कामुख और उसकी पत्नी ने भद्रशीला नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। तभी वहां साधु नाम का एक वैश्य पहुंचा। उस वैश्य के पास व्यवसाय करने के लिए काफी धन था। उसने जब राजा और उसकी पत्नी को व्रत करते देखा, तो वह वहीं रुक गया। फिर उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा, “हे महराज! आप कौन-सा व्रत कर रहे हैं।”
राजा ने जवाब दिया, “मैं अपने परिजनों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिए श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहा हूं। इस पर साधु ने पूछा, “क्या आप मुझे भी व्रत करने की विधि बताएंगे। मुझे भी संतान प्राप्ति की इच्छा है।” साधु की बात सुनकर राजा ने उसे सत्यनारायण भगवान के पूजा की सारी विधि बताई। इसके बाद साधु अपने घर को ओर निकल पड़ा।
घर पहुंचकर साधु ने अपनी पत्नी लीलावती को श्री सत्यनारायण व्रत के बारे में बताया और कहा, “मुझे जब संतान की प्राप्ति होगी, तो मैं इस व्रत को करूंगा।” कुछ दिन बात सत्यनारायण भगवान की कृपा साधु की पत्नी लीलावती पर बरसी और वह गर्भवती हो गई। आगे चलकर उसने एक पुत्री को जन्म दिया। लीलावती की पुत्री कब बड़ी हो गई, यह पता ही नहीं चला। उसके माता-पिता ने उसका नाम कलावती रखा था।
कुछ दिन बीतने के बाद कलावती की माता ने साधु को उसका वचन याद दिलाया, जिसमें उसने संतान प्राप्ति के बाद श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने की बात कही थी। लीलावती ने कहा, “हे स्वामी! अब आपको अपने वचन को पूरा करने का समय आ गया है।”
इसपर साधु ने कहा, “हे प्राण प्रिय! मुझे अपना वचन अच्छी तरह से याद है। उस वचन को मैं अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर पूरे विधि विधान के साथ करूंगा।” पत्नी को पूजा का आश्वासन देकर अगले दिन साधु नगर की ओर चल पड़ा।
कुछ समय बाद जब कलावती शादी योग्य हो गई, तो साधु ने एक दूत को बुलाया और उसे अपनी पुत्री कलावती के लिए एक योग्य वर ढूंढने का आदेश दिया। साधु का आदेश पाकर दूत कंचन नगर की ओर गया और वहां से एक योग्य वर लेकर आया। उस लड़के को देखकर साधु ने अपनी पुत्री का विवाह उससे कराने का फैसला किया। उसने तुरंत अपने प्रियजनों को आमंत्रित किया और अपनी पुत्री का विवाह उस योग्य लड़के से कर दिया।
शादी के दौरान भी साधु ने श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा नहीं की। साधु का यह रवैया देखकर श्री सत्यनारायण भगवान गुस्से में आ गए और उन्होंने साधु को अभिशाप दिया कि उसके जीवन से सब सुख-समृद्धि दूर हो जाएगी।
इधर, अपने कार्यों में व्यस्त साधु अपने दामाद के साथ चंद्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने पहुंचा। तभी एक दिन अचानक एक चोर चंद्रकेतु राजा का धन चुराकर भागते-भागते उसी साधु की दुकान पर जा पहुंचा। यहां सिपाहियों को अपने पीछे आते देख चोर ने चुराया हुआ धन साधु की दुकान में छिपा दिया।
राजा के सिपाही जब वहां पहुंचे, तो उन्हें राजा का धन साधु और उसके जमाई के पास दिखा। उन्होंने तुरंत दोनों को बंदी बनाया और उन्हें राजा के पास ले गए। सिपाहियों ने राजा से कहा, “महराज हमने दोनों चोरों को सामान के साथ पकड़ लिया है। आप बस आदेश दें कि इन दोनों को क्या सजा देनी है।”
राजा ने सिपाहियों को आदेश दिया कि बिना देर किए दोनों को इसी वक्त कारावास में डाल दिया जाए। साथ ही उनके सारे धन को जब्त कर लिया जाए। दूसरी तरफ साधु की पत्नी भी दुखी थी। उसके घर में जो कुछ भी सामान था, उसे चोर ले गए थे।
एक दिन साधु की बेटी कलावती भूख-प्यास से तड़पती हुई भोजन की तलाश में एक ब्राह्मण के घर पहुंची। वहां उसने श्री सत्यनारायण का व्रत होते हुआ देखा। फिर उसने भी उस ब्राह्मण से सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी। इसके बाद प्रसाद ग्रहण करके अपने घर चली आई। घर पहुंचते ही कलावती की मां ने उससे पूछा, “बेटी तुम अब तक कहां थी और तुम्हारे मन में क्या उथल-पुथल हो रही है।”
इस पर कलावती ने अपनी मां से कहा, “हे माता! मैं अभी-अभी एक ब्राह्मण के घर से आ रही हूं। वहां मैंने श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी।” अपनी पुत्री की बातों को सुनने के बाद लीलावती ने भी सत्यनारायण भगवान की पूजा की तैयारी शुरू कर दी। फिर उसने अपने परिजनों को बुलाया और पूरे विधि विधान के साथ सत्यनारायण भगवान की पूजा की। साथ ही लीलावती ने भगवान से अपने पापों के लिए माफी मांगी और अपने पति और जमाई को रिहा करने की प्रार्थना भी की।
लीलावती के इस कार्य से श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा चंद्रकेतु को सपने में दर्शन दिए और कहा, “हे राजन! तुमने जिसे बंदी बनाकर रखा है, उसे तुरंत रिहा कर दो और उसकी धन संपत्ति भी लौटा दो। अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो तुम्हें भी मैं धन और संतान के सुख से वंचित कर दूंगा।”
अगली सुबह राजा ने दरबार में अपने सपने के बारे में बताया और सिपाहियों को दोनों कैदियों को सभा में लाने के लिए कहा। इसके बाद सिपाही, साधु और उसके जमाई को लेकर दरबार पहुंचे। यहां दोनों ने राजा को प्रणाम किया। इसके बाद राजा ने उनसे कहा, “हमें गलतफहमी हो गई थी। अब वो दूर हो गई है, इसलिए हम आप लोगों को पूरे सम्मान और धन-दौलत के साथ छोड़ रहे हैं।”
इतना कहकर सूत जी ने श्री सत्यनारायण कथा का तीसरा अध्याय पूरा किया।