एक समय की बात है, जब ऋषि मुनियों ने यह जानने का निर्णय लिया कि त्रिदेवों यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से सर्वश्रेष्ठ कौन है। इस बात का पता लगाने की जिम्मेदारी भृगु ऋषि को दी गई। भृगु ऋषि इस बात का पता लगाने के लिए सबसे पहले ब्रह्मा लोक गए और वहां पहुंचकर ब्रह्मा देव की परीक्षा लेने लगे। उन्होंने सीधे क्रोध में पूछा, “आपने मुझे प्रणाम क्यों नहीं किया?”

यह सुनते ही ब्रह्मा देव को गुस्सा आ गया। उन्होंने झल्लाते हुए पूछा, “क्या एक पुत्र अपने पिता से श्रेष्ठ हो गया है, जो उसे मुझे प्रणाम करना होगा।” यह सुनने के बाद भृगु ऋषि उनसे कहते हैं कि मैं तो आपकी परीक्षा ले रहा था और आप मुझपर क्रोधित हो गए।

इतना कहकर भृगु ऋषि वहां से सीधे कैलाश चले गए। वहां जाकर वो नंदी से कहते हैं कि मुझे शिव जी से मिलना है। नंदी ने ऋषि को जवाब देते हुए कहा, “मैं भगवान शिव का ध्यान भंग नहीं कर सकता है। ऐसा करने पर भोलेनाथ क्रोधित होंगे।” नंदी का जवाब सुनकर भृगु ऋषि खुद ही शिव जी के ध्यान को भंग कर देते हैं। शिव जी का ध्यान भंग होने पर वो भी गुस्सा करते हुए भृगु ऋषि को भस्म करने की बात कहते हैं। तभी माता पार्वती उन्हें रोकती हैं और ऋषि मुनि को क्षमा करने की प्रार्थना करती हैं।

शिव जी के गुस्से को देखने के बाद भृगु ऋषि कैलाश से सीधे बैकुंठ चले जाते हैं। वहां वो देखते हैं कि भगवान विष्णु आराम कर रहे हैं और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही होती हैं। उसी वक्त भृगु ऋषि सीधे विष्णु भगवान की छाती पर पैर से प्रहार कर देते हैं।

इस प्रहार से भगवान विष्णु की नींद खुल जाती है और वो भृगु ऋषि से प्यार से पूछते हैं, “हे ऋषिवर! मेरे कठोर शरीर से कहीं आपके कोमल पैर को चोट तो नहीं लगी? अगर लगी होगी, तो मुझे क्षमा कर दें।” यह सुनते ही ऋषि प्रसन्न हो जाते हैं और समझ जाते हैं कि भगवान विष्णु ही त्रिदेवों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

मां लक्ष्मी भी ये सब होते हुए देखती हैं। वो गुस्से में कहती हैं, “नाथ! उन्होंने आपको पैर से मारा और आप इस तरह प्रेम भाव दिखा रहे हैं। क्रोध में वो भगवान विष्णु को छोड़कर बैकुंठ से सीधे धरती चली जाती हैं और महाराष्ट्र के कोल्हापुर में रहने लगती हैं। माता लक्ष्मी के बैकुंठ छोड़कर चले जाने पर भगवान विष्णु को लगता है कि उनका सम्मान और संपत्ति नष्ट हो गई है। इसी वजह से उनका मन काफी अशांत रहने लगा। फिर वो माता लक्ष्मी की तलाश में धरती चले जाते हैं।

धरती जाकर भगवान विष्णु, श्रीनिवास नामक व्यक्ति बनकर माता लक्ष्मी को ढूंढने लगते हैं। माता लक्ष्मी को ढूंढते-ढूंढते वो वेंकटचल पर्वत क्षेत्र में स्थित बकुलामाई के आश्रम पहुंच जाते हैं। वहां बकुलामाई ने उनका आदर पूर्वक स्वागत किया और उन्हें आश्रम में ही रहने के लिए कहा।

उस आश्रम में भगवान आराम से श्रीनिवास बनकर रहने लगे। कुछ दिन बाद वहां एक हाथी आ जाता है, जो सबको परेशान करता है। यह देख श्रीनिवास धनुषबाण लेकर हाथी की ओर दौड़ते हैं। उन्हें आता देख हाथी डरकर घने जंगल में भाग जाता है। श्रीनिवास उस हाथी का पीछा करता हुए थककर एक सरोवर के पास पेड़ की छाया में आराम करने लगते हैं और कुछ ही देर में उन्हें नींद आ जाती है।

नींद में वो कुछ युवतियों का शोर सुनते हैं, जिससे उनकी नींद टूटती है। आंखें खोलते ही वो खुद को पांच-छह युवतियों से घिरा पाते हैं। युवतियां श्रीनिवास को डाटते हुए बोलती हैं कि यह राजकुमारी पद्मावती का उपवन है और इस क्षेत्र में पुरुषों का आना एकदम मना है। यहां तुम कैसे और किस लिए आए हो?

श्रीनिवास जवाब दे ही रहे थे कि तभी उनकी नजर वृक्ष के पीछे से झांकती राजकुमारी पद्मावती पर पड़ी। वो उसे देखते ही रह गए। कुछ देर में वो युवतियों को बताते हैं कि मैं एक हाथी का पीछा करते हुए यहां पहुंचा हूं। मुझे बिल्कुल भी पता नहीं था कि यहां पुरुषों का आना मना है। मुझे क्षमा कर दें। इतना कहकर वो बकुलामाई के आश्रम लौट जाते हैं।

आश्रम लौटने के बाद श्रीनिवास का किसी भी काम में मन नहीं लगा। तब एक दिन बकुलामाई उनसे उनकी उदासी की वजह पूछती हैं। उदास होकर श्रीनिवास पद्मावती के बारे में उन्हें बताते हैं और कहते हैं कि मैं उसके बिना नहीं रह पाऊंगा।

बकुलामाई उन्हें कहती है कि ऐसा सपना न देखिए जो पूरा न हो सके। वह एक प्रतापी राजा चोल नरेश आकाशराज की बेटी है और आप एक आश्रम में रहने वाले कुल व गोत्रहीन युवक हैं। कुछ देर सोचने के बाद श्रीनिवास कहते हैं कि मां एक तरीका है। बस आपको मेरा साथ देना होगा। बकुलामाई श्रीनिवास का प्यार देखकर हां कह देती हैं।

दूसरे दिन श्रीनिवास ज्योतिष विद्या में निपुण औरत का वेष धारण करके राजा आकाश के नगर नारायणपुर पहुंचते हैं। उनकी विद्या की वजह से हर तरफ उनकी चर्चा होने लगती है। होते-होते एक दिन राजा ने उन्हें अपनी बेटी पद्मावती का हाथ देखने के लिए श्रीनिवास को अपने महल बुलवाया।

वहां पहुंचकर उन्होंने राजकुमारी के हाथों की रेखा देखी और कहा कि कुछ दिन पहले एक युवक से वन में तुम्हारी मुलाकात हुई होगी। पद्मावती ने जवाब में हां कहा। महिला बने श्रीनिवास ने कहा कि उसी युवक के साथ तुम्हारा विवाह होगा। तभी पद्मावती की मां धरणा देवी उनसे पूछती है कि यह कैसे होगा? तब ज्योतिष औरत कहती है कि यह इसके भाग्य में लिखा है और ग्रह यह कहते हैं कि एक औरत उसके लिए आपकी बेटी का रिश्ता मांगने आएगी।

दो दिन बितने के बाद बकुलामाई एक तपस्विनी बनकर राजमहल गई और अपने युवा पुत्र के लिए पद्मावती के रिश्ते की बात की। तभी राजा आकाश बकुलामाई को पहचान जाते हैं और उनसे पूछते हैं कि वह युवक कौन है? बकुलामाई उन्हें श्रीनिवास के बारे में बताते हुए कहती हैं कि वह चन्द्र वंश में जन्मा हुआ लड़का है, जो मेरे आश्रम में रहता है और मुझे मां मानता है।

राजा उनकी बात सुनने के बाद बकुलामाई से सोचने के लिए कुछ दिन मांगते हैं। फिर राजा ने अपने राज पुरोहित को बुलाकर इस बारे में चर्चा की। सबकुछ जानने के बाद राज पुरोहित श्रीनिवास के बारे में पता लगाने में जुट जाते हैं। श्रीनिवास के बारे में अच्छे से पता करके वह राजा को कहते हैं कि महाराज उसमें भगवान विष्णु के समान गुण हैं और आपकी पुत्री लक्ष्मी जैसी है। ऐसे में यह वर आपकी पुत्री के लिए सुयोग्य है।

यह सुनकर राजा तुरंत बकुलामाई के आश्रम में अपनी स्वीकृति के साथ विवाह की लग्न पत्रिका भिजवा देते हैं। श्रीनिवास और बकुलामाई को राजा की मंजूरी से जितनी खुशी हुई, उतनी ही चिंता होने लगी। दोनों के मन में होता है कि उनके पास शादी कराने के लिए पर्याप्त धन नहीं है और न ही विवाह के बाद लड़की के रहने के लिए घर।

तब बकुलामाई श्रीनिवास को लेकर वराह स्वामी के पास जाकर उन्हें श्रीनिवास के शादी में खर्च के लिए धन की कमी की समस्या के बारे में बताती हैं। तब वराह स्वामी आठ दिग्पाल का आवाहन करते हैं। तभी वहां ब्रह्मा, शंकर, इंद्र, कुबेर आदि देवता प्रकट हो जाते हैं। फिर वराह स्वामी श्रीनिवास से कहते हैं कि तुम खुद ही इन्हे अपनी समस्या के बारे में बताओ।

श्रीनिवास देवताओं से पूछते हैं कि मैं चोल नरेश राजा आकाश की पुत्री पद्मावती से शादी करना चाहता हूं, पर मेरे पास शादी के लिए धन नहीं है। मुझे क्या करना चाहिए?

इंद्र देव यह सब सुनकर कुबेर से कहते हैं कि तुम शादी के लिए इन्हें ऋण दे दो।

जवाब में कुबेर बोलते हैं कि मुझे ऋण देने में कोई परेशानी नहीं है। बस यह सुनिश्चित कर दीजिए कि मुझे धन वापस कब और किस तरह से मिलेगा।

तब श्रीनिवास ने कहा, “आप चिंता न कीजिए कुबेर देव। मैं कलयुग के अंत तक पूरा ऋण चूका दूंगा।”

फिर कुबेर ने देवताओं को साक्षी रखकर श्रीनिवास को ऋण दे दिया। उन पैसों से वह पद्मावती से बड़े धूमधाम के साथ शादी करते हैं। तभी उनकी शादी की सूचना लेकर नारद जी कोल्हापुर पहुंच जाते हैं और मां लक्ष्मी को सारी बातें बता देते हैं।

जैसे ही माता लक्ष्मी को पता चलता है कि विष्णु जी ने श्रीनिवास बनकर पद्मावती से शादी करके वेंकटचल पर्वत पर रह रहे हैं, तो वह उदास हो जाती हैं। कुछ ही देर में वो सीधे विष्णु भगवान से मिलने के लिए वेंकटचल पहुंच जाती हैं। वहां वो देखती हैं कि पद्मावती बड़े प्यार से श्रीनिवास की सेवा कर रही है। मां लक्ष्मी से रहा नहीं जाता और वो उन्हें भला बुरा कहने लगती हैं। आखिर में वो पद्मावती को बताती हैं कि ये श्रीनिवास नहीं, बल्कि मेरे पति विष्णु हैं। तुमने इनसे कैसे विवाह कर लिया?

फिर माता लक्ष्मी और पद्मावती के बीच बहुत देर तक वाद-विवाद होने लगता है। यह सब देखकर श्रीनिवास को बहुत दुख हुआ और वो वहां से थोड़ा पीछे हटकर एक पत्थर की मूर्ति बन जाते हैं। माता लक्ष्मी और पद्मावती दोनों यह देखकर बहुत परेशान हो जाती हैं और कहती हैं कि अब श्रीनिवास किसी के नहीं रहे।

तभी मूर्ति से आवाज आती है, “देवियों मैं हमेशा इस स्थान पर रहूंगा और मुझे लोग वेंकटेश्वर स्वामी के नाम से जानेंगे। मैं यहां रहकर अपने भक्तों की इच्छा पूरी करता रहूंगा। साथ ही मुझे चढ़ाए जाने वाले धन के माध्यम से मैं कुबेर का कर्ज व ब्याज चुकाता रहूंगा। बस अब तुम दोनों झगड़ा करना बंद कर दो।

इतना सुनने के बाद माता लक्ष्मी और पद्मावती उनसे क्षमा मांगती हैं। फिर माता लक्ष्मी कोल्हापुर जाकर महालक्ष्मी की मूर्ति और पद्मावती तिरुनाचुर में शिला विग्रह बन जाती हैं। यही कारण है कि तिरुपति विराजमान वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन के लिए भक्तों से चंदन, धूप, फूल और मिठाई नहीं, बल्कि धन लिया जाता है।

कहानी से सीख:

विष्णु भगवान की कथा से दो सीख मिलती है। पहली यह कि विनम्र भाव से ही व्यक्ति श्रेष्ट कहलाता है। दूसरी यह कि क्रोध में आकर कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए।

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