गणेश महिम्न स्तोत्र (गणेशमहिम्न: स्तोत्र): गणेश महिम्न स्तोत्र भगवान गणेश के लोकप्रिय मंत्रों में से एक है। गणेश महिम्न स्तोत्र में उल्लेख है कि सभी महान मंत्र भगवान गणेश से उत्पन्न हुए हैं। यह आम तौर पर भगवान की आराधना में भक्तों द्वारा दैनिक आधार पर जप किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गणेश महिम्न स्तोत्र के उचित पाठ से व्यक्ति को समृद्धि और सफलता का आशीर्वाद मिलता है। गणेश महिम्न स्तोत्र का जाप करने वाले को भौतिक धन और उसके परिवार में खुशियाँ भी मिलती हैं। भक्ति भजन गाकर उपासक भगवान गणेश की स्तुति करता है और उनसे बाधाओं और अन्य बुराइयों से रक्षा करने का अनुरोध करता है।
ब्रह्मांड हाथी के सिर वाले भगवान से उत्पन्न हुआ है और उन्हीं के भीतर सीमित है। यहां तक कि वेद भी गणपति को नमन करते हैं जो परिभाषा से परे हैं। देवता को गणपति द्वारा भगवान गणेश के रूप में पूजा जाता है सौरस द्वारा भगवान सूर्य (सूर्य) के रूप में। शक्तिवाद के अनुयायी भगवान को ब्रह्मांड के निर्माता के रूप में मानते हैं। उन्हें शाश्वत ब्रह्म का एक रूप माना जाता है।
गणेश महिम्न स्तोत्र (गणेशमहिम्न: स्तोत्र) का जाप करने वाले को भी अपने परिवार में भौतिक धन और खुशी की प्राप्ति होगी। भक्ति भजन गाकर उपासक भगवान गणेश की स्तुति करता है और उनसे बाधाओं और अन्य बुराइयों से रक्षा करने का अनुरोध करता है।
भगवान महागणेश का आशीर्वाद व्यक्ति को भोग (सांसारिक सुख) और मोक्ष (आध्यात्मिक प्राप्ति) दोनों प्रदान करने में सक्षम है। महागणपति की साधना का उद्देश्य व्यक्ति के पिछले जन्मों के सभी पापों और बुराइयों को बेअसर करना है ताकि व्यक्ति जीवन में धन, समृद्धि और सभी सुखों का भरपूर आनंद लेने के योग्य बन सके, इस प्रकार पूर्ण तृप्ति और अंततः आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त हो सके। गणपति स्तोत्र का जाप करने से निम्नलिखित लाभ अवश्य प्राप्त होते हैं। भारतीयों में किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले भगवान गणपति की प्रार्थना करने की परंपरा है।
गणेश महिम्न स्तोत्र भगवान गणेश के लोकप्रिय मंत्रों में से एक है। आम तौर पर भगवान की आराधना में भक्तों द्वारा इसका जाप प्रतिदिन किया जाता है।
गणेश महिम्न स्तोत्र के लाभ
ऐसा माना जाता है कि गणेश महिम्न स्तोत्र के उचित पाठ से व्यक्ति को समृद्धि और सफलता प्राप्त होती है।
भगवान गणेश महिम्न स्तोत्र बाधाओं और अन्य बुराइयों से रक्षा करता है।
गणेश महिम्न स्तोत्र का जाप करने वाले को भौतिक धन और परिवार में खुशियाँ भी प्राप्त होती हैं।
इस स्तोत्र का पाठ किसे करना चाहिए:
जो लोग जीवन में सफलता, समृद्धि और कृपा चाहते हैं, उन्हें नियमित रूप से इस गणेश महिम्न स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
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Ganesha Mahimna Stotra | गणेशमहिम्न: स्तोत्र
अनिर्वाच्यं रूपं स्तवननिकरो यत्र गणितस्तथा वक्ष्ये स्तोत्रं प्रथमपुरुषस्यात्र महत: ।
यतो जातं विश्र्वंस्थितमपि सदा यत्र विलय: स कीद्रग्गीर्वाण: सुनिगमनुत: श्रीगणपति ।।1।।
गणेशं गाणेशा: शिवमिति च देवाश्र्च विबुधा रविं सौरा विष्णुं प्रथमपुरुषं विष्णुभजका: ।
वदंत्येके शाक्ता जगदुदयमूलां परशिवां न जाने किं तस्मै नम इति परं ब्रह्म सकलम् ।।2।।
तथेशं योगज्ञा गणपतिमिमं कर्म निखिलं समीमांसा वेदांतिन इति परं ब्रह्म सकलम् ।
अजां सांख्यो ब्रूते सकलगुणरूपां च सततं प्रकर्तारं न्यायस्त्वथ जगति बौद्धा धियमिति ।।3।।
कथं ज्ञेयो बुद्धे: परतर इयं बाज्झसरणिर्यथा धीर्यस्य स्यात्स च तदनुरुपो गणपति: ।
महत्क्रत्यं स्वयमपि महान् सूक्ष्ममणुवद्ध्वनिज्र्योतिर्बिन्दुर्गगनसद्रश: किंच सदसत् ।।4।।
अनेकास्योऽपाराक्षिकरचरणोऽनन्तह्र्दयस्तथा नानारूपो विविधवदन: श्रीगणपति: ।
अनंताह्व: शक्त्या विविधगुणकर्मैकसमये त्सवंख्यातानंताभिमतफलदोऽनेकषिये ।।5।।
न यस्यांतो मध्यो न च भवति चादि: सुमहतामलिप्ता: कृत्वेत्थं सकलमपि खंवत्स च पृथक ।
स्मृत: संस्मर्तृणां सकलह्रदस्थ: प्रियकरो नमस्तस्मै देवाय सकलसुरवंद्याय महते ।।6।।
गणेशाद्यं बीजं दहनवनितापल्लवयुतं मनुश्र्चैकार्णोऽयं प्रणवसहितोऽभीष्टफलद: ।
सबिंदुश्र्चांगाद्यं गणकऋषिछन्दोऽस्य च निच्रत्स देव: प्राग्बीजं विपदपि च शक्तिर्जपकृताम् ।।7।।
गकारो हेरंब: सगुण इति पुंनिर्गुणमयो द्विधाऽप्येको जात: प्रक्रतिपुरुषो ब्रह्म हि गण: ।
स चेशश्र्चोत्पत्तिस्थितिलयकरोऽयं प्रथमको यतो भूतं भव्यं भवति पतिरीशो गणपति: ।।8।।
गकार: कण्ठोधर्वं गजमुखसमो मत्र्यसद्रशो णकार: कंठाधो जठरसदृशाकार इति च ।
अधोभाग: कटयां चरण इति हीशोऽस्य च तनुर्विभातीत्थंनाम त्रिभुवनसमं भूर्भुव:सुव: ।।9।।
गणेशेति त्रयर्णात्मकमपि वरं नाम सुखदं सक्रत्प्रोच्चैरुच्चारितमिति न्रभि: पावनकरम् ।
गणेशस्यैकस्य प्रतिजपकरस्यास्य सुक्रतं न विज्ञातो नाम्न: सकलमहिमा कीदृशविध: ।।10।।
गणेशेत्याह्वां य: प्रवदति मुहुस्तस्य पुरत: प्रपश्यंस्तद्वक्त्रं स्वयमपि गणस्तिष्ठति तदा ।
स्वरूपस्य ज्ञानं त्वमुक इति नाम्नाऽस्य भवति प्रबोध: सुप्तस्य त्वखिलमिह सामर्थ्यममुना ।।11।।
गणेशो विश्र्वस्मिन्स्थित इह च विश्र्वं गणपतौ गणेशो यत्रास्ते धृतिमतिरनैश्र्वर्यमखिलम् ।
समुक्तं नामैकं गणपतिपदं मंगलमयं तदैकास्यं दृष्टे: सकलविबुधास्येक्षणसमम् ।।12।।
बहुक्लेशैव्र्याप्त: स्मृत उत गणेशे च ह्रदये क्षणात्क्लेशान्मुक्तो भवति सहसा त्वभ्रचयवत् ।
वने विद्यारम्भे युधि रिपुभये कुत्र गमने प्रवेशे प्राणांते गणपतिपदं चाशु विशति ।।13।।
गणाध्यक्षो ज्येष्ठ: कपिल अपरो मंगलनिधि्र्दयालुर्हेरंबो वरद इति चिंतामणिरज: ।
वरानीशो ढुंढिर्गजवदननामा शिवसुतो मयूरेशो गौरीतनय इति नामानि पठति ।।14।।
महेशोऽयं विष्णु: सकविरविरिन्दु: कमलज: क्षितिस्योयं वह्नि: श्र्वसन इति खं त्वद्रिरुदधि: ।
कुजस्तार: शुक्रो गुरुरुडुबुधोऽगुश्र्च धनदो यम: पाशी काव्य: शनिरखिलरूपो गणपति: ।।15।।
मुखं वहिन पादौ हरिरपि विधाता प्रजननं रविर्नेत्रे चन्द्रो ह्रदयमपि कामोऽस्य मदन: ।
करे शक्र: कट्यामवनिरुदरं भाति दशनं गणेशस्यासन्वै क्रतुमयवपुश्र्चैव सकलम् ।।16।।
अनघ्र्यालंकारैररुणवसनेर्भूषिततनु: करीन्द्रास्य: सिंहासनमुपगतो भाति बुधराट् ।
स्मित: स्यात्तन्मध्येऽप्युदितरविबिंबपोमरूचि: स्थिता सिद्धिर्वामे मतिरितरगा चामरकरा ।।17।।
समंतात्तस्यासंप्रवरमुनिसिद्धा: सुरगणा: प्रशंसंतीत्यग्रे विविधनुतिभि: सांजलिपुटा: ।
विडौजाद्यैर्ब्रह्मादिभिरनुवृतो भक्तनिकरैर्गणक्रीडामोदप्रमुदविकटाद्यै: सहचरै: ।।18।।
वशित्वादयष्टादशदिगखिलाल्लोलमनुवाग्ध्रति: पादू:खंगोऽञज्नरसबला: सिद्धय इमा: ।
सदा पृष्ठे तिष्ठन्तयनिमिषदृशस्तन्मुखलया गणेशं सेवंतेऽप्यतिनिकटसूपायनकरा: ।।19।।
मृगांकास्या रंभाप्रभ्रतिगणिका यस्य पुरत: सुसंगीतं कुर्वन्त्यपि कुतुकगन्ध्र्वसहिता: ।
मुद: पारो नात्रेत्यनुपममदे दोर्विगलिता स्थिरं जातं चित्तं चरणमवलोक्यास्य विमलम् ।।20।।
हरेणायं ध्यातस्त्रिपुरमथने चासुरवधे गणेश: पार्वत्या बलिविजयकालेऽपि हरिणा ।
विधात्रा संसृष्टावुरगपतिना क्षोणिवरणे नरै: सिद्धौ मुक्तौ त्रिभुवनजये पुष्पधनुषा ।।21।।
अयं सुप्रासादे सुर इव निजानंदभुवने महान् श्रीमानाद्यो लघुतरग्रहे रंकसद्रश: ।
शिवद्वारे द्वा:स्थो न्रप इव सदा भूपतिगृहे स्थितो भूत्वोमांके शिशुगणपतिर्लालनपर: ।।22।।
अमुष्मिन्संतुष्टे गजवदन एवापि विबुधे ततस्ते संतुष्टास्त्रिभुवनगता: स्युर्बुधगणा: ।
दयालुर्हेरंबो न च भवति यस्मिंश्र्च पुरुषे वृथा सर्वं तस्य प्रजननमत: सांद्रतमसि ।।23।।
वरेण्यो भूशुंडीर्भ्रगुगुरुकुजा मुदगलमुखा ज्झपारास्तद्भक्ता जपहवनपूजास्तुतिपरा: ।
गणेशोऽयं भक्तप्रिय इति च सर्वत्र गदितं विभक्तिर्यत्रास्ते स्वयंमपि सदा निष्ठति गण: ।।24।।
मृद: काश्चिद्धातोश्छदविलिखता वापि दृषद: स्मृता व्याजान्मूर्ति: पथि यदि बहिर्येन महसा ।
अशुद्धोऽद्धा द्रष्टा प्रवदति तदाह्वा गणपते: श्रुत: शुद्धो मत्र्यो भवति दूरिताद्विस्मय इति ।।25।।
बहिर्द्वारस्योध् गघवदनवष्र्मेन्धनमयं प्रशस्तं वा कृत्वा विविधकुशलस्तत्र निहितम् ।
प्रभावात्त न्मूत्र्या भवति सदनं मंगलमयं त्रिलोक्यानंदस्तां भवति जगतो विस्मय इति ।।26।।
सिते भाद्रे मासे प्रतिशरदि मध्याह्नसमये मृदो मूर्तिं कृत्वा गणपतितिथौ ढुण्ढिसद्रशीम् ।
समर्चंत्युत्साहै: प्रभवति महान् सर्वसदने विलोक्यानंदस्तां प्रभवति न्रणां विस्मय इति ।।27।।
तथा ह्मेक: श्लोको वरयति महिम्नो गणपते: कथं स श्लोकेऽस्मिन् स्तुत इति भवेत्संप्रपठिते ।
स्मृतं नामास्यैकं सक्रदिदमनंताह्वयसमं यतो यस्यैकस्य स्तवनसद्रशं नान्यदपरम् ।।28।।
गजवदन विभोयद्वर्णितं वैभवं ते त्विह जनुषि ममेत्थं चारु तद्दर्शयाशु ।
त्वमसि च करुणाया: सागर: क्रत्स्न्नदाताप्यति तव भृतकोऽहं सर्वदा चिंतकोऽस्मि ।।29।।
सुस्तोत्रं प्रपठतु नित्यमेतदेव स्वानंदं प्रतिगमनेऽप्ययं सुमार्ग: ।
संचिंत्य स्वमनसि तत्पदारविन्दं स्थाप्याग्रे स्तवनफलं नती: करिष्ये ।।30।।
गणेशदेवस्य महात्म्यमेतद्य: श्रावयद्वापि पठेच्च तस्य ।
क्लेशा लयं यान्ति लभेच्च शीघ्रं स्त्रीपुत्रविद्यार्थग्रहं च मुक्तिम् ।।31।।