Agney Stotra:आग्नेय स्तोत्र विशेषताऐ
आग्नेय स्तोत्र (Agney Stotra) के साथ-साथ यदि दुर्गा कवच और चंडी कवच का पाठ किया जाए तो, आग्नेय स्तोत्र का बहुत लाभ मिलता है। यह कवच शीघ्र ही फल देने लग जाता है। नारायणास्त्र कवच का पाठ करने से मनोवांछित कामना पूर्ण होती है। अगर आपका मन पढाई में नही लग पा रहा है, तो आपको सरस्वती सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए। जीवन में शांति प्राप्त करने के लिए नृसिंह विजय कवच का पाठ करना चाहिए। संतान या पुत्र प्राप्ति के लिए गोपाल कवच का पाठ करना चाहिए।
Agney Stotra:आग्नेय स्तोत्र भगवान अग्नि को समर्पित एक पवित्र स्तोत्र है, जो विशेष रूप से अग्नि देवता की कृपा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसे जीवन में ऊर्जा, स्वास्थ्य, और शुद्धि के लिए पढ़ा जाता है। यह स्तोत्र वैदिक और पौराणिक ग्रंथों से लिया गया है और अग्नि तत्व की उपासना में सहायक है।
Agney Stotra ke Labh:लाभ:
- मानसिक और शारीरिक शुद्धि।
- ऊर्जा और उत्साह में वृद्धि।
- स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्ति।
- घर में नकारात्मक ऊर्जा का नाश।
कैसे करें?
- स्थान:
- किसी शांत और स्वच्छ स्थान पर बैठें, जहां आप बिना किसी बाधा के पाठ कर सकें।
- अपने सामने अग्नि प्रज्वलित करें (दीपक, घी का दीपक या हवन अग्नि)।
- सामग्री:
- पीले या सफेद वस्त्र धारण करें।
- चंदन, धूप, फूल, और अग्नि को समर्पित सामग्री तैयार रखें।
- संकल्प:
- पाठ से पहले स्वच्छ होकर संकल्प लें और भगवान अग्नि का ध्यान करें।
Agney Stotra:आग्नेय स्तोत्र
Agney Stotra:आग्नेय स्तोत्र हिंदी (Agney Stotra) एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, इसका नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की तंत्र-मन्त्र-यंत्र और ग्रह पीड़ा से रक्षा होती है। इस आग्नेय स्तोत्र का पाठ बोलकर यानि वाचिक, उच्च स्वर में करना चाहियें, जिससें आपको इस स्तोत्र का शीघ्र लाभ मिलें।
अधुना गिरिजानन्द आञ्जनेयास्त्रमुत्तमम् ।
समन्त्रं सप्रयोगं च वद मे परमेश्वर ।।१।।
।।ईश्वर उवाच।।
ब्रह्मास्त्रं स्तम्भकाधारि महाबलपराक्रम् ।
मन्त्रोद्धारमहं वक्ष्ये श्रृणु त्वं परमेश्वरि ।।२।।
आदौ प्रणवमुच्चार्य मायामन्मथ वाग्भवम् ।
शक्तिवाराहबीजं व वायुबीजमनन्तरम् ।।३।।
विषयं द्वितीयं पश्चाद्वायु-बीजमनन्तरम् ।
ग्रसयुग्मं पुनर्वायुबीजं चोच्चार्य पार्वति ।।४।।
स्फुर-युग्मं वायु-बीजं प्रस्फुरद्वितीयं पुनः ।
वायुबीजं ततोच्चार्य हुं फट् स्वाहा समन्वितम् ।।५।।
आञ्जनेयास्त्रमनघे पञ्चपञ्चदशाक्षरम् ।
कालरुद्रो ऋषिः प्रोक्तो गायत्रीछन्द उच्यते ।।६।।
देवता विश्वरुप श्रीवायुपुत्रः कुलेश्वरि ।
ह्रूं बीजं कीलकं ग्लौं च ह्रीं-कार शक्तिमेव च ।।७।।
प्रयोगं सर्वकार्येषु चास्त्रेणानेन पार्वति ।
विद्वेषोच्चाटनेष्वेव मारणेषु प्रशस्यते ।।८।।
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीहनुमाद्-आञ्जनेयास्त्र-विद्या-मन्त्रस्य कालरुद्र ऋषिः, गायत्री छन्दः, विश्वरुप-श्रीवायुपुत्रो देवता, ह्रूं बीजं, ग्लौं कीलकं, ह्रीं शक्तिः, मम शत्रुनिग्रहार्थे हनुमन्नस्त्र जपे विनियोगः।
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं क्लीं ऐं सौं ग्लौं यं शोषय शोषय यं ग्रस ग्रस यं विदारय विदारय यं भस्मी कुरु कुरु यं स्फुर स्फुर यं प्रस्फुर प्रस्फुर यं सौं ग्लौं हुं फट् स्वाहा ।”
।। विधान ।।
नामद्वयं समुच्चार्यं मन्त्रदौ कुलसुन्दरि ।
प्रयोगेषु तथान्येषु सुप्रशस्तो ह्ययं मनुः ।।९।।
आदौ विद्वेषणं वक्ष्ये मन्त्रेणानेन पार्वति ।
काकोलूकदलग्रन्थी पवित्रीकृत-बुद्धिमान् ।।१०।।
तर्पयेच्छतवारं तु त्रिदिनाद्द्वेषमाप्नुयात् ।
ईक्ष्यकर्ममिदं म मन्त्रांते त्रिशतं जपेत् ।।११।।
वसिष्ठारुन्धतीभ्यां च भवोद्विद्वेषणं प्रिये ।
महद्विद्वेषणं भूत्वा कुरु शब्दं विना प्रिये ।।१२।।
मन्त्रं त्रिशतमुच्चार्य नित्यं मे कलहप्रिये ।
ग्राहस्थाने ग्रामपदे उच्चार्याष्ट शतं जपेत् ।।१३।।
ग्रामान्योन्यं भवेद्वैरमिष्टलाभो भवेत् प्रिये ।
देशशब्द समुच्चार्य द्विसहस्त्रं जपेन्मनुम् ।।१४।।
देशो नाशं समायाति अन्योन्यं क्लेश मे वच ।
रणशब्दं समुच्चार्य जपेदष्टोत्तरं शतम् ।।१५।।
अग्नौ नता तदा वायुदिनान्ते कलहो भवेत् ।
उच्चाटन प्रयोगं च वक्ष्येऽहं तव सुव्रते ।।१६।।
उच्चाटन पदान्तं च अस्त्रमष्टोत्तरं शतम् ।
तर्पयेद्भानुवारे यो निशायां लवणांबुना ।।१७।।
त्रिदिनादिकमन्त्रांते उच्चाटनमथो भवेत् ।
भौमे रात्रौ तथा नग्नो हनुमन् मूलमृत्तिकाम् ।।१८।।
नग्नेन संग्रहीत्वा तु स्पष्ट वाचाष्टोत्तरं जपेत् ।
समांशं च प्रेतभस्म शल्यचूर्णे समांशकम् ।।१९।।
यस्य मूर्ध्नि क्षिपेत्सद्यः काकवद्-भ्रमतेमहीम् ।
विप्रचाण्डालयोः शल्यं चिताभस्म तथैव च ।।२०।।
हनुमन्मूलमृद्ग्राह्या बध्वा प्रेतपटेन तु ।
गृहे वा ग्राममध्ये वा पत्तने रणमध्यमे ।।२१।।
निक्षिपेच्छत्रुगर्तेषु सद्यश्चोच्चाटनं भवेत् ।
तडागे स्थापयित्वा तु जलदारिद्यमाप्नुयात् ।।२२।।
मारणं संप्रवक्ष्यामि तवाहं श्रृणु सुव्रते ।
नरास्थिलेखनीं कृत्वा चिताङ्गारं च कज्जलम् ।।२३।।
प्रेतवस्त्रे लिखेदस्त्रं गर्त्त कृत्वा समुत्तमम् ।
श्मशाने निखनेत्सद्यः सहस्त्राद्रिपुमारणे ।।२४।।
न कुर्याद्विप्रजातिभ्यो मारणं मुक्तिमिच्छता ।
देवानां ब्राह्मणानां च गवां चैव सुरेश्वरि ।।२५।।
उपद्रवं न कुर्वीत द्वेषबुद्धया कदाचन ।
प्रयोक्तव्यं तथान्येषां न दोषो मुनिरब्रवीत् ।।२६।।
।। इति सुदर्शन-संहिताया आञ्नेयास्त्रम् ।।