Rama Ekadashi:रमा एकादशी 2024 में 28 अक्टूबर को मनाई जाएगी। यह एकादशी भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को समर्पित होती है और कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को आती है, Rama Ekadashi जो दीपावली से चार दिन पहले होती है। इसे “रम्भा एकादशी” भी कहा जाता है।

Rama Ekadashi:शुभ मुहूर्त:

  • रमा एकादशी 28 अक्टूबर 2024 को है।
  • पारण का समय 29 अक्टूबर को सुबह 6:34 बजे से 8:49 बजे तक है। Rama Ekadashi इस समय के भीतर व्रत तोड़ना शुभ माना जाता है।

Rama Ekadashi:पूजा विधि:

  1. एकादशी के दिन प्रातःकाल उठकर स्नान करें और व्रत का संकल्प लें।
  2. भगवान विष्णु को फल, फूल, धूप, दीप और तुलसी दल अर्पित करें।
  3. व्रत के दौरान दिनभर भगवान विष्णु के भजन-कीर्तन और कथा का श्रवण करें।
  4. रात्रि जागरण और भजन-संकीर्तन का आयोजन करें।
  5. द्वादशी के दिन गरीबों और ब्राह्मणों को भोजन कराएं और दान करें, इसके बाद व्रत का पारण करें।

Rama Ekadashi 2024:व्रत के नियम:

  • व्रत का आरंभ दशमी तिथि की संध्या से हो जाता है। इस दिन सूर्यास्त के बाद भोजन न करें।
  • व्रत के दिन अन्न और चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। केवल सात्त्विक भोजन लें।
  • व्रतधारी को एकादशी की रात जागरण करते हुए भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए।
  • व्रत का पारण द्वादशी तिथि को सही समय पर करना आवश्यक होता है।

Rama Ekadashi:महत्व:

Rama Ekadashi:रमा एकादशी का व्रत व्यक्ति के सभी पापों का नाश करता है और मोक्ष की प्राप्ति कराता है। इसे रखने से आर्थिक समस्याओं का समाधान होता है और घर में सुख-समृद्धि का वास होता है। Rama Ekadashi व्रत के पुण्य फल को हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञों के बराबर माना गया है। यह व्रत न केवल आध्यात्मिक उन्नति देता है, बल्कि जीवन में शांति और समृद्धि लाता है।

रमा एकादशी से जुड़ी एक प्रमुख कथा राजा मुचुकुंद और उनकी पुत्री चंद्रभागा से संबंधित है। इस व्रत का पालन करने से राजा के दामाद शोभन को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और व्रत की महिमा का महत्व बताता है कि यह न केवल सांसारिक जीवन में लाभ देता है बल्कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति को पुण्य और स्वर्ग की प्राप्ति होती है

Rama Ekadashi

कथा- रमा एकादशी की पौराणिक व्रत कथा के अनुसार प्राचीन काल में मुचकुंद नाम का एक राजा था। Rama Ekadashi उसकी इंद्र के साथ मित्रता थी और साथ ही यम, कुबेर, वरुण और विभीषण भी उसके मित्र थे। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। 

एक समय वह शोभन ससुराल आया। उन्हीं दिनों जल्दी ही पुण्यदायिनी एकादशी ‘रमा’ भी आने वाली थी। जब व्रत का दिन समीप आ गया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति अत्यंत दुर्बल हैं Rama Ekadashi और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी को राजा ने ढोल बजवा कर सारे राज्य में यह घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्यंत चिंता हुई और अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूंगा। ऐसा उपाय बताओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण अवश्य चले जाएंगे। 

चंद्रभागा कहने लगी कि हे स्वामी! मेरे पिता के राज्य में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। Rama Ekadashi हाथी, घोड़ा, ऊंट, बिल्ली, गौ आदि भी तृण, अन्न, जल आदि ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाइए, क्योंकि यदि आप यहीं रहना चाहते हैं तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन कहने लगा कि हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूंगा, Rama Ekadashi जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।

इस प्रकार से विचार कर शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीड़ित होने लगा। जब सूर्य नारायण अस्त हो गए और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, परंतु शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी हुआ। प्रात:काल होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने पिता के घर में ही रहने लगी। 

रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त तथा शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। वह अत्यंत सुंदर रत्न और वैदूर्यमणि जटित स्वर्ण के खंभों पर निर्मित अनेक प्रकार की स्फटिक मणियों से सुशोभित भवन में बहुमूल्य वस्त्राभूषणों तथा छत्र व चंवर से विभूषित, गंधर्व और अप्सराओं से युक्त सिंहासन पर आरूढ़ ऐसा शोभायमान होता था मानो दूसरा इंद्र विराजमान हो। 

एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नामक ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ घूमता-घूमता उधर जा निकला और उसने शोभन को पहचान कर कि यह तो राजा का जमाई शोभन है, Rama Ekadashi उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। 

ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ। तब शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। यह स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। 

ब्राह्मण कहने लगा कि हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है आप बताइए, फिर मैं अवश्यमेव वह उपाय करूंगा। मेरी इस बात को आप मिथ्या न समझिए। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धा रहित होकर किया है। अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है। ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने अपने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। 

ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा बड़ी प्रसन्नता से ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण कहने लगा कि हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही किसी से विजय न हो ऐसा देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। 

जिस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए। चंद्रभागा कहने लगी हे विप्र! तुम मुझे वहां ले चलो, मुझे पतिदेव के दर्शन की तीव्र लालसा है। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूंगी। आप ऐसा कार्य कीजिए जिससे उनका हमारा संयोग हो क्योंकि वियोगी को मिला देना महान पुण्य है। 

ब्राह्मण सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गया। वामदेव जी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। तब ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई। इसके बाद बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ। और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। 

चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूं। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा तथा समस्त कर्मों से युक्त होकर प्रलय के अंत तक रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभूषण और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी। 

इस तरह जो मनुष्य पूरे मनपूर्वक इस एकादशी का माहात्म्य पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णु लोक को प्राप्त होता हैं। और जो लोग रमा या रंभा एकादशी का व्रत करते हैं, उनके इस व्रत के प्रभाव से ब्रह्म हत्या सहित समस्त पाप नष्ट होते हैं। तथा बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है। 

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