भारत चमत्कारों और रहस्यों से भरा देश है। भारत को देवभूमि कहे जाने के कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि यहां का दर्शन, धर्म और अध्यात्म सत्य सनातन है। इसके कारण ही दुनिया के अन्य धर्मों की उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद दुनिया का प्रथम ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें दर्शन, अध्यात्म, विज्ञान, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, कृषि, मौसम, समाज, राजनीति आदि अनेक विषयों की गंभीर जानकारी सम्मलित है।
भारत की सीमा हिमालय के कैलाश पर्वत से लेकर श्रीलंका तक और हिन्दुकुश की पहाड़ी से लेकर अरुणाचल की पहाड़ियों तक फैली है। नीचे अरुणाचल की पहाड़ियों से लेकर बर्मा, थाईलैंड, इंडोनेशिया और मलेशिया आदि तक फैली है। इसी भारत में कालांतर में पहले जनपद हुआ करते थे अब राष्ट्र और भिन्न भिन्न धर्मों में यह क्षेत्र बंट गया है। यह संपूर्ण क्षेत्र रहस्य, रोमांच, प्राचीन इतिहास और अध्यात्मिक ज्ञान से भरा हुआ है। आओ जानते हैं भारत के ऐसे 10 रहस्यमयी व्यक्तियों के बारे में जिनमें से कुछ के बारे में आप शायद ही जानते होंगे।
‘अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।’- पद्म पुराण (51/6-7)
हम यह नहीं बताने वाले हैं:- हम आपको हनुमानजी, अश्वत्थामा, अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम और ऋषि मार्कण्डेय के बारे में बताने वाले नहीं है, जोकि आज भी जीवित हैं। हम जो ऐसे रहस्यमयी लोगों के बारे में बताने वाले हैं जिन्होंने विश्व की कई सभ्यताओं को प्रभावित किया है।
जाम्बवन्त, जाम्बवंत, जामवंत या जाम्बवन धरती पर जाम्बिया, जिम्बाब्वे, जामवन, जामुन, जाम्बेजी नदी आदि जाम्बवंतजी से मिलते जुलते कई नाम मिल जाएंगे। जाम्बवंतजी सतयुग में जन्मे और उनकी चर्चा रामायण काल के बाद द्वापाल काल में भी होती है।
जाम्बवंतजी अग्नि देव और गंधर्व कन्या के पुत्र थे। जामवन्त की माता एक गंधर्व कन्या थी। जब पिता देव और माता गंधर्व थीं तो वे कैसे रीछमानव हो सकते हैं? प्राचीन काल में इंद्र पुत्र, सूर्य पुत्र, चंद्र पुत्र, पवन पुत्र, वरुण पुत्र, अग्नि आदि देवताओं के पुत्रों का अधिक वर्णन मिलता है। जाम्बवन्तजी का जन्म सतयुग में हुआ था।
जाम्बवन्तजी रामायण काल में थे। उन्होंने ही हनुमानजी को उनकी खोई हुई शक्ति का स्मरण कराया था। आश्चर्य की वे लगभग 2500 वर्ष बाद बाद हुए महाभारत के काल में भी मौजूद थे जबकि वे अपनी पुत्री जाम्बवंति का विवाह भगवान श्रीकृष्ण से करते हैं। महाभारत में जाम्बवन्त, भगवान श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करते हैं तथा यह पता पड़ने पर की वो एक विष्णु अवतार है, अपनी बेटी जामवंती का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर देते हैं।
जाम्बवन्तजी को रहस्यमयी व्यक्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह सभी जानते हैं कि वे एक रीछ मानव थे। अब यह शोध का विषय हो सकता है कि वे मानव जैसे रीछ थे या कि रीछ जैसे मानव। वह कैसे इतने वर्षों तक जीवित रहे और महाभारत काल में उन्होंने उनकी पुत्री जामवंती कैसी थी? क्या वह भी रीछ मानव थी?
एक दूसरी मान्यता अनुसार भगवान ब्रह्मा ने एक ऐसा रीछ मानव बनाया था जो दो पैरों से चल सकता था और जो मानवों से संवाद कर सकता था। पुराणों अनुसार वानर और मानवों की तुलना में अधिक विकसित रीछ जनजाति का उल्लेख मिलता है। वानर और किंपुरुष के बीच की यह जनजाति अधिक विकसित थी। हालांकि इस संबंध में अधिक शोध किए जाने की आवश्यकता है।
गरुड़ : भगवान विष्णु के वाहन के रूप में गरुढ़ की प्रसिद्धि है। कहते हैं कि प्राचीनकाल में बहुत विशालकाय पक्षी हुआ करते थे। गरुड़ इतना विशालकाय पक्षी था कि वह अपनी चोंच में हाथी तक को दबा कर उड़ जाता था। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि वह कितना विशालकाय रहा होगा। इनके नाम से एक अलग पुराण भी है जिसे गरुड़ पुराण कहते हैं। इस पुराण को तब पढ़ा जाता है जब किसी के घर में किसी की मृत्यु हो गई हो। प्रत्येक घरों में गरुढ़ घंटी होती है। माता के मंदिर के द्वारा पर एक ओर गरुड़ तो दूसरी ओर हनुमानजी की मूर्ति प्रतिष्ठापित होती है।
गरुड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। रामायण में तो गरुड़ का सबसे महत्वपूर्ण पार्ट है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु की सवारी और भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरुड़ के बारे में कहा जाता है कि यह सौ वर्ष तक जीने की क्षमता रखता है। काकभुशुंडी नामक एक कौए ने गरुड़ को श्रीराम कथा सुनाई थी। लेकिन आज कल गरुड़ के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा है। जटायु और संपाति गरुढ़ कुल के ही पक्षी थे।
दक्ष प्रजापति की विनिता या विनता नामक कन्या का विवाह कश्यप ऋषि के साथ हुआ। कश्यप ऋषि से विनिता प्रसव के दौरान दो अंडे दिए। एक से अरुण का और दूसरे गरुढ़ का जन्म हुआ। अरुण तो सूर्य के रथ के सारथी बन गए तो गरुड़ ने भगवान विष्णु का वाहन होना स्वीकार किया। पक्षियों में गरुड़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है।
गिद्ध और गरुड़ में फर्क होता है। संपूर्ण भारत में गरुड़ का ज्यादा प्रचार और प्रसार किसलिए है यह जानना जरूरी है। गरुड़ भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है। भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाने वाले गुप्त शासकों का प्रतीक चिन्ह गरुड़ ही था। कर्नाटक के होयसल शासकों का भी प्रतीक गरुड़ था।
गरुड़ इंडोनेशिया, थाईलैंड और मंगोलिया आदि में भी सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में लोकप्रिय है। इंडोनेसिया का राष्ट्रिय प्रतीक गरुड़ है। वहां की राष्ट्रिय एयरलाइन्स का नाम भी गरुड़ है। इंडोनेशिया की सेनाएं संयुक्त राष्ट्र मिशन पर गरुड़ नाम से जाती है। इंडोनेशिया पहले एक हिन्दू राष्ट्र ही था। थाईलैंड का शाही परिवार भी प्रतीक के रूप में गरुड़ का प्रयोग करता है। थाईलैंड के कई बौद्ध मंदिर में गरुड़ की मूर्तियाँ और चित्र बने हैं। मंगोलिया की राजधानी उलनबटोर का प्रतीक गरुड़ है।
मयासुर : बहुत ही कम लोगों को मालूम होगा की रावण के ससुर यानी मंदोदरी के पिता मयासुर थे। रावण की पत्नी मंदोदरी की मां हेमा एक अप्सरा थी और उसके पिता एक असुर। रामायण के उत्तरकांड के अनुसार मयासुर, कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी दिति का पुत्र था। यह ज्योतिष, वास्तु और शिल्प के प्रकांड विद्वान थे।
इन्होंने ही महाभारत में युधिष्ठिर के लिए सभाभवन का निर्माण किया जो मयसभा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी सभा के वैभव को देखकर दुर्योधन पांडवों से ईर्षा करने लगा था और कहीं न कहीं यही ईर्षा महाभारत में युद्ध का कारण बनी। मय ने दैत्यराज वृषपर्वन् के यज्ञ के अवसर पर बिंदुसरोवर के निकट एक विलक्षण सभागृह का निर्माण कर अपने अद्भुत शिल्पशास्त्र के ज्ञान का परिचय दिया था।
माया दानव ने सोने, चांदी और लोहे के तीन शहर जिसे त्रिपुरा कहा जाता है, का निर्माण किया था। त्रिपुरा को बाद में स्वयं भगवान शिव ने ध्वस्त कर दिया था। वास्तुकार होने के साथ-साथ मयासुर एक खगोलविद भी था। ‘सूर्य सिद्धांतम’ की रचना भी मयासुर ने ही की थी, जिसे स्वयं उसने सूर्य देव से ही सीखा था। खगोलीय ज्योतिष से जुड़ी भविष्यवाणी करने के लिए ये सिद्धांत बहुत सहायक सिद्ध होता है।
मयासुर, माया राष्ट्र जिसे वर्तमान में मेरठ के नाम से जाना जाता है, का शासक था। माना जाता है कि मय के कारण ही माया सभ्यता का जन्म हुआ। मायासुर को दक्षिण अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता का जनक भी माना जाता है। मायासुर को माया लोगों के पूर्वज के तौर पर देखा जाता है।
कार्तिकेय : शिव के पुत्र कार्तिकेय को स्कंद भी कहा जाता है। उन्हीं के नाम पर एक स्कंद पुराण है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान इन्हें मुरुगन भी कहते हैं। संपूर्ण दक्षिण भारत में कार्तिकेय की पूजा होती है। कार्तिकेय और राजा बलि वहां के मुख्य देवता हैं। कार्तिकेय का वाहन मोर है। मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है। यह पक्षी जितना राष्ट्रीय महत्व रखता है उतना ही धार्मिक महत्व भी।
एक मान्यता अनुसार अरब में रह रहे यजीदी समुदाय (कुर्द धर्म) के लोगो के देवता कार्तिकेय ही है जो मयूर पर सवार हैं। भगवान स्कंद के नाम पर ब्रिटेन के साऊथ वेस्ट वेल्स में स्कंद वेल नामक एक स्थान है। श्रीलंका में इसी नाम से एक स्थान है जहां रंगनाथन मंदिर है। मलेशिया की बातू गुफ़ाओं के प्रवेश द्वार पर शिवपुत्र कार्तिकेय की विश्व प्रसिद्ध विशाल प्रतिमा स्थापित है।
योरप में एक स्कैंडिनेवियाई नामक एक प्रायद्विप है जिसमें नार्वे, स्वीडन व डेनमार्क आते हैं। भाषा के जानकारों अनुसार संस्कृत शब्द स्कंद नाभ (Sknda Nabha) से ही स्कैंडिनेवियाई शब्द की उत्पत्ति हुई है। कहते हैं कि यह नाम एक वैदिक ऋषि पर आधारित है। संस्कृत में वेलिका का अर्थ समुद्री देश औरा वेला का अर्थ समुद्र का किनारा। स्कैंडिनेवियाई समुद्र के किनारे स्थित एक देश ही है। महाभारत के शल्य पर्व के एक श्लोकानुसार इस स्थान का संबंध भगवान स्कंद से भी है।
कार्तिकेय का वाहन मयूर है। एक कथा के अनुसार कार्तिकेय को यह वाहन भगवान विष्णु ने उनकी सादक क्षमता को देखकर ही भेंट किया था। मयूर का मान चंचल होता है। चंचल मन को साधना बड़ा ही मुश्किल होता है। कार्तिकेय ने अपने मन को साथ रखा था। वहीं एक अन्य कथा में इसे दंभ के नाशक के तौर पर कार्तिकेय के साथ बताया गया है।
संस्कृत भाषा में लिखे गए ‘स्कंद पुराण’ के तमिल संस्करण ‘कांडा पुराणम’ में उल्लेख है कि देवासुर संग्राम में भगवान शिव के पुत्र मुरुगन (कार्तिकेय) ने दानव तारक और उसके दो भाइयों सिंहामुखम एवं सुरापदम्न को पराजित किया था।
अपनी पराजय पर सिंहामुखम माफी मांगी तो मुरुगन ने उसे एक शेर में बदल दिया और अपना माता दुर्गा के वाहन के रूप में सेवा करने का आदेश दिया।
दूसरी ओर मुरुगन से लड़ते हुए सपापदम्न (सुरपदम) एक पहाड़ का रूप ले लेता है। मुरुगन अपने भाले से पहाड़ को दो हिस्सों में तोड़ देते हैं। पहाड़ का एक हिस्सा मोर बन जाता है जो मुरुगन का वाहन बनता है जबकि दूसरा हिस्सा मुर्गा बन जाता है जो कि उनके झंडे पर मुरुगन का प्रतीक बन जाता है। इस प्रकार, यह पौराणिक कथा बताती है कि मां दुर्गा और उनके बेटे मुरुगन के वाहन वास्तव में दानव हैं जिन पर कब्जा कर लिया गया है। इस तरह वो ईश्वर से माफी मिलने के बाद उनके सेवक बन गए।
शिव के गण नंदी : नंदी नामक बैल या बैल का दुनिया की हर सभ्यता में वर्णन मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में शिव के नंदी नामक बैल की मूर्ति पाई गई है। दुनिया भर के शिव मंदिरों के बाहर नंदी बैल की मूर्ति मिल जाएगी। सवाल यह उठता है कि नंदी बैल थे या कि मानव? हो सकता है कि वे रूप बदलने की क्षमता रखते हों।
भगवान शिव के प्रमुख गणों में से एक है नंदी। भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय भी शिव के गण हैं। माना जाता है कि प्राचीनकालीन किताब कामशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र में से कामशास्त्र के रचनाकार नंदी ही थे।
नंदी कैसे बने शिव के गण : शिव की घोर तपस्या के बाद शिलाद ऋषि ने नंदी को पुत्र रूप में पाया था। शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र नंदी को संपूर्ण वेदों का ज्ञान प्रदान किया। एक दिन शिलाद ऋषि के आश्रम में मित्र और वरुण नाम के दो दिव्य ऋषि पधारे। नंदी ने अपने पिता की आज्ञा से उन ऋषियों की उन्होंने अच्छे से सेवा की। जब ऋषि जाने लगे तो उन्होंने शिलाद ऋषि को तो लंबी उम्र और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया लेकिन नंदी को नहीं।
तब शिलाद ऋषि ने उनसे पूछा कि उन्होंने नंदी को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया? इस पर ऋषियों ने कहा कि नंदी अल्पायु है। यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए। पिता की चिंता को नंदी ने जानकर पूछा क्या बात है पिताजी। तब पिता ने कहा कि तुम्हारी अल्पायु के बारे में ऋषि कह गए हैं इसीलिए मैं चिंतित हूं। यह सुनकर नंदी हंसने लगा और कहने लगा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है तो मेरी उम्र की रक्षा भी वहीं करेंगे आप क्यों नाहक चिंता करते हैं।
इतना कहते ही नंदी भुवन नदी के किनारे शिव की तपस्या करने के लिए चले गए। कठोर तप के बाद शिवजी प्रकट हुए और कहा वरदान मांगों वत्स। तब नंदी के कहा कि मैं उम्रभर आपके सानिध्य में रहना चाहता हूं। नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर उन्हें अपने वाहन, अपना दोस्त, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।
सुमेरियन, बेबीलोनिया, असीरिया और सिंधु घाटी की खुदाई में भी बैल की मूर्ति पाई गई है। इससे प्राचीनकल से ही बैल को महत्व दिया जाता रहा है। भारत में बैल खेती के लिए हल में जोते जाने वाला एक महत्वपूर्ण पशु रहा है। बैल को महिष भी कहते हैं जिसके चलते भगवान शंकर का नाम महेष भी है ।
जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ है उसी तरह बैलों में नंदी श्रेष्ठ है। आमतौर पर खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला बताया गया है। इसके अलावा वह बल और शक्ति का भी प्रतीक है। बैल को मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला प्राणी भी माना जाता है। यह सीधा-साधा प्राणी जब क्रोधित होता है तो सिंह से भी भिड़ लेता है। यही सभी कारण रहे हैं जिसके कारण भगवान शिव ने बैल को अपना वाहन बनाया। शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है।
कश्यप ऋषि : ऐसा माना जाता है कि कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा था। कश्मीर के मूल निवासी सारे हिन्दू थे। कश्मीरी पंडितों की संस्कृति लगभग 6000 साल पुरानी है और वे ही कश्मीर के मूल निवासी हैं। इसलिए अगर कोई कहता है कि भारत ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया है तो यह बिलकुल गलत है।
जब हम सृष्टि विकास की बात करते हैं तो इसका मतलब है जीव, जंतु या मानव की उत्पत्ति से होता है। ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने बहुत-सी स्त्रीयों से विवाह कर अपने कुल का विस्तार किया था। आदिम काल में जातियों की विविधता आज की अपेक्षा कई गुना अधिक थी। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीची के विद्वान पुत्र थे। मान्यता अनुसार इन्हें अनिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है। इनकी माता ‘कला’ कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल देव की बहन थी।
कश्यप को ऋषि-मुनियों में श्रेष्ठ माना गया हैं। पुराणों अनुसार हम सभी उन्हीं की संतानें हैं। सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहाँ वे परब्रह्म परमात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। समस्त देव, दानव एवं मानव ऋषि कश्यप की आज्ञा का पालन करते थे। कश्यप ने बहुत से स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी।
भिन्न भिन्न स्रोत्रों से पता चलता है कि कैस्पिरियन सागर का नाम भी ऋषि कश्यप के नाम पर है। दरअसल, एक बार समस्त धरती पर विजय प्राप्त करके भगवान परशुराम ने महर्षि कश्यप को धरती का यह भू भाग दान में दे दिया था। तब कश्यप द्वीप के नाम से उन्होंने मध्य एशिया में अपना एक उपनिवेश स्थापित किया (महाभारत, भीष्म पर्व, 6.11)। हिस्ट्री ऑफ पर्सिया, खण्ड-1, पृष्ठ-28 के अनुसार कश्यप सागर (वर्तमान कैस्पियन सी) उनकी (द्वीप की) सीमा के भीतर था। महर्षि कश्यप ने कश्यप सागर के किनारे अनेक विकास कार्य समपन्न किए।
महर्षि कश्यप के द्वारा ही कश्मीर बसाया गया था। हिमालय के उत्तरी-पश्चिमी कोने पर सर्वाधिक ऊंचाई वाली पहाड़ी का जो कोण बनता है उसकी एक भुजा कराकुर्रम पर्वत और दूसरी भुजा हिन्दुकुश पर्वत है। कराकुर्रम पर्वत महर्षि कश्यप के ही अधिकार में था। अफगानिस्तान की ओर से आने वाली और कुर्रम दर्रे से होकर बत्रू जिले में होती हुई सिन्धु नदी में मिल जाने वाली सुप्रसिद्ध कुर्रम नदी महर्षि कश्यप की ही अधिकारिक सीमा में थी। कश्यप पर्वत, जिसे आजकल काकेशश पर्वत कहा जाता है, की चोटी पर महर्षि काश्यप कठिन साधनाएं और तपस्या किया करते थे। इस चोटी को कश्यपतुंग के नाम से भी जाना जाता है। आज भी उनके नाम पर विख्यात कश्यप सागर (कैस्पियन सी), क्रुमु नदी, कुर्रम पर्वत और कूर्माचंल प्रदेश आदि उनकी यशस्वी कीर्तिकथा का उदघोष करते हैं।
केसरी और सुग्रीव : वानर का शाब्दिक अर्थ होता है ‘वन में रहने वाला नर।’ वन में ऐसे भी नर रहते थे जिनको पूछ निकली हुई थी। नए शोधानुसार प्रभु श्रीराम का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसा पूर्व अयोध्या में हुआ था। श्रीराम के जन्म के पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था अर्थात आज (फरवरी 2015) से लगभग 7129 वर्ष पूर्व हनुमानजी का जन्म हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम कपि था। हनुमान का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था।
दरअसल, आज से 9 लाख वर्ष पूर्व मानवों की एक ऐसी जाति थी, जो मुख और पूंछ से वानर समान नजर आती थी, लेकिन उस जाति की बुद्धिमत्ता और शक्ति मानवों से कहीं ज्यादा थी। अब वह जाति भारत में तो दुर्भाग्यवश विनष्ट हो गई, परंतु बाली द्वीप में अब भी पुच्छधारी जंगली मनुष्यों का अस्तित्व विद्यमान है जिनकी पूछ प्राय: 6 इंच के लगभग अवशिष्ट रह गई है। ये सभी पुरातत्ववेत्ता अनुसंधायक एकमत से स्वीकार करते हैं कि पुराकालीन बहुत से प्राणियों की नस्ल अब सर्वथा समाप्त हो चुकी है।
वानरों के साम्राज्य की राजधानी किष्किंधा थी। सुग्रीव और बालि इस सम्राज्य के राजा थे। यहां पंपासरोवर नामक एक स्थान है जिसका रामायण में जिक्र मिलता है। ‘पंपासरोवर’ अथवा ‘पंपासर’ होस्पेट तालुका, मैसूर का एक पौराणिक स्थान है। हंपी के निकट बसे हुए ग्राम अनेगुंदी को रामायणकालीन किष्किंधा माना जाता है। तुंगभद्रा नदी को पार करने पर अनेगुंदी जाते समय मुख्य मार्ग से कुछ हटकर बाईं ओर पश्चिम दिशा में, पंपासरोवर स्थित है।
भारत के बाहर वानर साम्राज्य कहां? सेंट्रल अमेरिका के मोस्कुइटीए में शोधकर्ता चार्ल्स लिन्द्बेर्ग ने एक ऐसी जगह की खोज की है जिसका नाम उन्होंने ला स्यूदाद ब्लैंका दिया है जिसका स्पेनिश में मतलब व्हाइट सिटी होता है, जहां के स्थानीय लोग बंदरों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। चार्ल्स का मानना है कि यह वही खो चुकी जगह है जहां कभी हनुमान का साम्राज्य हुआ करता था।
एक अमेरिकन एडवेंचरर ने लिम्बर्ग की खोज के आधार पर गुम हो चुके की तलाश में निकले। 1940 में उन्हें इसमें सफलता भी मिली पर उसके बारे में मीडिया को बताने से एक दिन पहले ही एक कार दुर्घटना में उनकी मौत हो गई और यह राज एक राज ही बनकर रह गया।
अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता ग्वाटेमाला, मैक्सिको, पेरू, होंडुरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में स्थापित थी। यह एक कृषि पर आधारित सभ्यता थी। 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के बीच माया सभ्यता अपने चरम पर थी। इस सभ्यता में खगोल शास्त्र, गणित और कालचक्र को काफी महत्व दिया जाता था। मैक्सिको इस सभ्यता का गढ़ था। आज भी यहां इस सभ्यता के अनुयायी रहते हैं।
यूं तो इस इलाके में ईसा से 10 हजार साल पहले से बसावट शुरू होने के प्रमाण मिले हैं और 1800 साल ईसा पूर्व से प्रशांत महासागर के तटीय इलाक़ों में गांव भी बसने शुरू हो चुके थे। लेकिन कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि ईसा से कोई एक हजार साल पहले माया सभ्यता के लोगों ने आनुष्ठानिक इमारतें बनाना शुरू कर दिया था और 600 साल ईसा पूर्व तक बहुत से परिसर बना लिए थे। सन् 250 से 900 के बीच विशाल स्तर पर भवन निर्माण कार्य हुआ, शहर बसे। उनकी सबसे उल्लेखनीय इमारतें पिरामिड हैं, जो उन्होंने धार्मिक केंद्रों में बनाईं लेकिन फिर सन् 900 के बाद माया सभ्यता के इन नगरों का ह्रास होने लगा और नगर खाली हो गए।
अमेरिकन इतिहासकार मानते हैं कि भारतीय आर्यों ने ही अमेरिका महाद्वीप पर सबसे पहले बस्तियां बनाई थीं। अमेरिका के रेड इंडियन वहां के आदि निवासी माने जाते हैं और हिन्दू संस्कृति वहां पर आज से हजारों साल पहले पहुंच गई थी। माना जाता है कि यह बसाहट महाभारतकाल में हुई थी।
चिली, पेरू और बोलीविया में हिन्दू धर्म : अमेरिकन महाद्वीप के बोलीविया (वर्तमान में पेरू और चिली) में हिन्दुओं ने प्राचीनकाल में अपनी बस्तियां बनाईं और कृषि का भी विकास किया। यहां के प्राचीन मंदिरों के द्वार पर विरोचन, सूर्य द्वार, चन्द्र द्वार, नाग आदि सब कुछ हिन्दू धर्म समान हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना ने नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वास्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।