भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती के साथ एक बार घूमते हुए धरती के अमरावती शहर पहुंचे। वहां शिव जी का एक बड़ा-सा मंदिर राजा ने बनवाया था। शिव-पार्वती दोनों को वह मंदिर पसंद आया, इसलिए दोनों वहीं रहने लगे।
कुछ दिनों बाद मां पार्वती ने भोले नाथ से कहा, “प्रभु! मुझे चौसर खेलने की इच्छा है।” भगवान ने सारा इंतजाम किया और दोनों आराम से चौसर खेलने लगे। तभी वहां मंदिर के पुजारी आ गए।
पुजारी को आता देख मां पार्वती ने पूछा, “आप बताइए हम दोनों में से कौन यह खेल जीतेगा?” जवाब में उन्होंने कहा, “महादेव ही जीतेंगे।” जैसे ही चौसर का खेल खत्म होने लगा, तो पार्वती मां जीत गईं।
माता पार्वता ने पुजारी की बात गलत साबित होने पर उन्हें झूठ बोलने की सजा के रूप में श्राप देकर कोढ़ी बना दिया। फिर पार्वती शिव जी के साथ कैलाश लौट गईं। अब लोग उस कोढ़ी पुजारी से दूर भागने लगे। राजा ने भी उसे मंदिर के कार्य से मुक्त करके किसी दूसरे ब्राह्मण को मंदिर का पुजारी नियुक्त कर दिया।
कोढ़ी पुजारी भी उसी मंदिर के बाहर बैठकर अपने लिए भिक्षा मांगने लगा। कुछ दिनों बाद उस मंदिर में स्वर्ग से अप्सराएं आईं। पुजारी को देखकर उन्होंने उसकी हालत का कारण पूछा। उसने मां पार्वती द्वारा मिले श्राप के बारे में उन्हें बता दिया। सारी बातें जानने के बाद अप्सराओं ने पुजारी को पूरे सोलह सोमवार तक विधिवत व्रत रखने के लिए कहा।
पुजारी को इस पूजा की विधि नहीं पता थी, तो उसने अप्सराओं से इसके बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि हर सोमवार को सूर्योदय से पहले उठना होगा। फिर नहाकर साफ कपड़े पहनने के बाद गेहूं के आटे से तीन अंग बनाना। उसके बाद घी से दीप चलाते हुए गुड़, बेलपत्र, अक्षत, नैवेद्य, फूल, चंदन, जनेऊ लेकर संध्या के समय सूर्यास्त से पहले प्रदोष काल में भोले बाबा की पूजा करना।
पूजा करने के बाद एक अंग शिव संभू को अर्पण करना और एक खुद ग्रहण करना। उसके बाद बचे हुए अंग को आसपास के लोगों में प्रसाद के रूप से बांट देना। इस तरह पूरे सोलह सोमवार करने के बाद 17वें सोमवार को आटा लेकर उसकी बाटी बनाना। फिर उसमें घी के साथ गुड़ डालकर चूरमा तैयार करना। इसका शिव जी को भोग लगाकर इसे आसपास मौजूद सभी लोगों को प्रसाद के रूप में बांट देना।
इस तरह से व्रत करने से भगवान शिव तुमपर प्रसन्न होकर कोढ़ की समस्या दूर कर देंगे। ये सारी बातें बताकर सभी अप्सराएं स्वर्ग लौट गईं।
उनके लौटने के बाद पुजारी ने हर सोमवार को विधिवत व्रत और पूजन किया। सोलह सोमवार पूरे करने के बाद 17वें सोमवार को सबको प्रसाद बांटते ही उसके कोढ़ की समस्या दूर हो गई।
पुजारी के ठीक होने पर राजा ने दोबारा उस मंदिर में पूजा-पाठ करने का जिम्मा उसे सौंप दिया। होते-होते एक दिन दोबारा भोले नाथ अपनी पत्नी पार्वती जी के साथ उसी मंदिर में पहुंचे। पार्वती जी ने जब देखा कि वो कोढ़मुक्त हो गए हैं, जो उन्होंने पुजारी से पूछा कि ऐसा कैसे हुआ। जवाब में पंडित ने उन्हें सोलह सोमवार व्रत करने की अपनी कथा के बारे में बताया।
पुजारी की बात सुनकर मां पार्वती काफी खुश हुईं। उन्होंने भी सोलह सोमवार व्रत रखने की ठान ली। इसके लिए मां पार्वती ने पुजारी से पूरी विधि जानी और अपने नाराज बेटे कार्तिकेय को वापस पाने के लिए नियम से व्रत करने लगीं। 17वें सोमवार को जब उन्होंने सबको प्रसाद बांटा, तो उसके कुछ दिनों बाद ही कार्तिकेय लौट आए।
उन्होंने मां पार्वती के पास पहुंचकर पूछा, “माता! अचानक कुछ हुआ कि मेरा सारा गुस्सा ही खत्म हो गया। क्या आपने कोई उपाय किया था?” जवाब में पार्वती जी ने सोलह सोमवार के व्रत की कथा सुनाई। यह सुनकर कार्तिकेय को भी सोलह सोमवार का व्रत करने का मन हुआ, क्योंकि वो अपने मित्र ब्रह्मदत्त के दूर जाने से दुखी थे।
माता पार्वती से सोलह सोमवार व्रत की विधि जानकर उन्होंने परदेस गए अपने दोस्त ब्रह्मादत्त की वापसी की मनोकामना के साथ व्रत शुरू किया। पूरे सोलह सोमवार व्रत करने और उसके विधिविधान से समापन करने के कुछ ही दिन बाद कार्तिकेय का दोस्त लौट आया।
वापस आने के बाद ब्रह्मदत्त ने कार्तिकेय से पूछा, “आखिर ऐसा क्या किया तुमने कि मेरा मन बदल गया। मैं बिल्कुल भी वापस आना नहीं चाहता था, लेकिन एकदम तुम्हारा ख्याल आया और मैं लौट आया।”
कार्तिकेय ने भी अपने दोस्त ब्रह्मादत्त को सोलह सोमवर व्रत की महीमा के बारे में बताया। इसके बारे में जानने के बाद ब्रह्मादत्त ने भी व्रत रखना शुरू कर दिया। व्रत खत्म होते ही वह अपने दोस्त कार्तिकेय से विदा लेकर यात्रा पर निकल गया।
दूसरे नगर पहुंचते ही ब्रहादत्त को पता चला कि राजा हर्षवर्धन ने अपनी बेटी गुंजन के विवाह के लिए स्वयंवर रखा है। राजा की प्रतिज्ञा है कि उनकी हथिनी जिस भी लड़के के गले में माला डालेगी, वही उसकी बेटी से विवाह करेगा।
उत्सुक होकर ब्राह्मण भी महल पहुंच गए। वहां कई सारे राजकुमार थे। उसी वक्त हथिनी ने अपने सूंड में माला उठाई और ब्रह्मादत्त के गले में डाल दी। राजा ने अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए ब्राह्मण ब्रह्मादेत्त से अपनी बेटी का विवाह करवा दिया।
शादी के बाद ब्राह्मण से उसकी पत्नी ने पूछा, “आखिर आपने ऐसा कौन-सा अच्छा कार्य किया था कि हथिनी ने सबको छोड़कर आपको मेरे लिए चुना।” ब्रह्मादत्त ने उसे सोलह सोमवार व्रत के बारे में बताया। राजकुमारी ने यह सब जानने के बाद अपने पति से विधि पूछकर व्रत करना शुरू कर दिया। व्रत के समापन के बाद उसे एक सुंदर सा बेटा हुआ, जिसका नाम गोपाल रखा गया।
गोपल जब बड़ा हुआ, तो उसने अपनी मां से पूछा, “आखिर मैं आपके ही घर पैदा क्यों हुआ? कौन-सा शुभकर्म आपने किया था?” गोपाल को उसकी मां गुंजन ने सोलह सोमवार व्रत कथा सुनाई। गोपल ने भी शिव भगवान की महीमा जानने के बाद बड़े से राज्य को पाने की चाह में सोलह सोमवार व्रत रखना शुरू कर दिया।
व्रत पूरा होते ही एक दिन पास के ही राजा को गोपाल पसंद आ गया। उन्होंने अपनी बेटी मंगला से उसकी शादी करवा दी। कुछ ही दिनों बाद उस राजा का देहांत हो गया। अब गोपाल ही पूरा राज्य संभालने लगा।
गोपाल ने भगवान शिव को धन्यवाद कहते हुए दोबारा सोलह सोमवार का व्रत रखा। इसके समापन के दिन उसने अपनी पत्नी से सभी सामग्री पास के शिव मंदिर तक पहुंचने के लिए कहा। मंगला ने खुद जाने के बजाए पूजा की सामग्री कुछ सेवकों के हाथों मंदिर तक पहुंचा दी। उसी दौरान आकाशवाणी हुई, “राजन! तुम्हारी पत्नी ने सोलह सोमवार व्रत का आदर-सम्मान नहीं किया। अब तुम उसे अपने महल से तुरंत निकाल दो, वरना तुम्हारा सबकुछ खत्म हो जाएगा।
गोपाल ने अपनी पत्नी को अपना आदेश न मानने और भगवान शिव के अनादर के लिए महल से निकाल दिया। अब वह भूखी-प्यासी दर-दर भटकने लगी। उसे जो भी सहारा देता, उसका सबकुछ चौपट हो जाता था।
एक दिन उसने एक बुढ़िया की सूत की गठरी को छुआ, तो सारा सूत हवा में उड़ गया। फिर उसे एक तेनाली ने रहने के लिए घर दिया, तो उसके सारे तेल के मटके खुद-ब-खुद टूटने लगे। ऐसी मनहूसियत को देखते हुए हर किसी ने उसे अपने यहां से निकाल दिया। अब उसकी कोई मदद नहीं करता था।
प्यास के मारे जब वो किसी नदी के पास पानी पीने के लिए पहुंचती, तो वो नदी सूख जाती। फिर एक दिन वह जंगल में पेड़ के नीचे छांव पाने के लिए बैठी। उसी वक्त वह पेड़ सूख गया। देखते-ही-देखते सारे हरे-भरे पेड़ सुखने लगे। कुछ देर बाद वो एक तलाव में पहुंची। वहां का पानी जैसे ही उसने छुआ उसपर कीड़े पड़ गए। यह सब देखकर वो हैरान हो गई और उसी कीड़े वाले पानी को उसने पी लिया।
भटकते-भटकते एकदिन रानी पुजारी के पास पहुंची। उसे देखकर पुजारी समझ गया कि इसके साथ कुछ सही नहीं चल रहा है। उसने रानी को मंदिर में ही रहने की इज्जात दे दी। रानी मंदिर में सब्जी या फल को हाथ लगाती तो वो सड़ जाते, आटे को छूती तो उशमें कीड़े पड़ने लगते। पानी से बदबू आने लग जाती।
यह सब देखकर पुजारी ने कहा, “लगता है तुमसे कोई बड़ा अपाध हुआ है, जिससे नाराज होकर देवताओं ने तुम्हें दंड दिया है।” इस बात के जवाब में रानी ने पुजारी को शिव की पूजा करने के लिए सामग्री से जुड़ी पूरी कहानी बता दी।
यह बात जानने के बाद पुजारी बोले, “तुम कल से ही सोलह सोमवार का व्रत करना शुरू करो। इससे प्रसन्न होकर भोले नाथ तुम्हें माफ कर देंगे।” पुजारी से सोलह सोमवार की विधि समझने के बाद अगले ही सोमवार से रानी से व्रत रखना शुरू कर दिया। पुजारी उसे हर सोमवार को व्रत कथा भी सुनाते थे।
17वें सोमवार को जैसे ही रानी ने अपने व्रत का समापन किया, वैसे ही राजा को अपनी पत्नी की याद आई। उन्होंने अपने सैनिकों को उसकी खोज में भेजा और घर वापस लाने का आदेश दिया। सैनिकों को जब पता चला कि वो मंदिर में रह रही हैं, तो उन्होंने रानी को अपने साथ चलने की प्रार्थना की। तभी पुजारी वहां पहुंचे और सैनिकों को वापस महल लौटने के लिए कहा।
राजा को जब पता चला कि उसकी पत्नी मंदिर में है, तो वो उसे लेने के लिए वहां पहुंचे। उन्होंने पुजारी से माफी मांगी और सबकुछ बताया। पुजारी ने भी कहा कि ये सब भोले का प्रकोप था। आप अपनी पत्नी को ले जाइए।
राजा और रानी के महल पहुंचते ही वहां खुशियां मनाई जाने लगीं। खुशी के मारे राजा ने पूरे नगर में मिठाई बंटवाई और ब्राह्मण व निर्धनों को खूब दान दिया। अब रानी महल में भगवान शिव की पूजा और सोलह सोमवार का व्रत रखते हुए खुशी-खुशी रहने लगी।
कहानी से सीख : कहे गए कार्य को ठीक ढंग से करना चाहिए। खासकर, पूजा-अर्चना को, अन्यथा नकारात्मक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।