पौराणिक एवं प्रचलित श्री गणेश कथा के अनुसार एक बार देवता कई विपदाओं में घिरे थे। तब वह मदद मांगने भगवान शिव के पास आए। उस समय शिव के साथ कार्तिकेय तथा गणेश जी भी बैठे थे। देवताओं की बात सुनकर शिव जी ने कार्तिकेय व गणेश जी से पूछा कि तुम में से कौन देवताओं के कष्टों का निवारण कर सकता है।
भगवान श्री गणेश का जन्म भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को हुआ था, इस दिन को गणेश जन्मोत्सव के रूप में बनाया जाता है। यदि भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को रविवार या मंगलवार दिन पड़ता है तो इस व्रत को महाचतुर्थी व्रत कहा जाता है। यह व्रत करने से भगवान गणेश का आर्शीवाद प्राप्त होता है।
व्रत की विधि व विधान :
गणेश चतुर्थी के दिन प्रात काल स्न्नानादि से निवूत होकर सोना, चाँदी, ताँबा, मिट्टी या गोबर से एक दन्त गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा की जाती है तथा इक्कीस मोदकों का भोग लगाते है तथा हरित दुर्वा के इक्कीस अंकुर निम्न दस नाम लेकर चढ़ाने चाहिए
१. गतापि, २. गोरी सुमन, ३. अधनाशक, ४. एकदन्त, ५. ईशपुत्र, ६. सर्वसिद्धिप्रद, ७. विनायक, ८. कुमार गुरु, १०. इंभवकवाय और १०. मूषक वाहन।
इक्कीस मोदकों में से दस मोदक ब्राह्मणों को दान देना तथा ग्यारह मोदक घर में रखें और स्वमं प्रसाद रूप में ग्रहण करे।
किन किन बातो का ध्यान रखे :
ब्रह्मचर्य का पालन करे।
दिन में निंद्रा ना ले।
झूठ, गुस्सा, वाद – विवाद व् किसी को दंड ना दे।
कम बोले व् भगवान् का ध्यान करे।
और इस दिन “ॐ गं गणपतये नमः” मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
गणेश चतुर्थी व्रत की प्रथम कथा
श्री गणेश चतुर्थी व्रत की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव व माता पार्वती नर्मदा नदी के तट पर बैठे हुए थे, जहां माता पार्वती ने भगवान शिव से चौपड़ खेलने को कहा। शिव जी ने बोला खेल तो लेंगे परन्तु खेल में हार-जीत का फैसला करने के लिए हमें एक पुतला बनाकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करनी रहेगी जो इस खेल में हार जीत को सुनियोजित करेगा। इस पर पार्वती जी भी राजी हो गई थी तद पच्यात शिव जी ने एक पुतले की प्राण-प्रतिष्ठा की और उस से कहा – “बेटा, हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, और खेल में हार-जीत का फैसला तुमको करना होगा कि हम दोनों में से कौन हारा और कौन जीता?”
और उसके बाद भगवान शिव व माता पार्वती ने चौपड़ खेल खेलना शुरू किया। खेल को 3 बार खेला गया और तीनों ही बार माता पार्वती ने ही खेल को जीता। परन्तु खेल समाप्त होने के बाद बालक से हार-जीत का फैसला करने के लिए कहा गया तो उस बालक ने महादेव को ही विजयी बताया।
ऐसा फैसला सुनकर माता पार्वती को क्रोध आना निश्चय था और उन्होंने क्रोध वश उस में उन्होंने बालक को श्राप दे दिया की तुम लंगड़े और कीचड़ में पड़े रहोगें। जिसके बाद बालक ने माता पार्वती से माफी मांगी और कहा कि यह मुझसे अज्ञानतावश हुआ है, मैंने किसी द्वेष भाव से ऐसा नहीं किया था।
जब बालक द्वारा क्षमा मांगी तो माता ने कहा- ‘यहां पर गणेश पूजन के लिए नाग कन्याएं आएंगी, उनके कहे अनुसार तुम गणेश व्रत करो, ऐसा करने पर तुम मुझे प्राप्त करोगे।’ ऐसा बताकर माता पार्वती शिव के साथ कैलाश पर्वत पर लौट आई।
पुरे एक वर्ष के बाद वह स्थान पर नागकन्याएं आईं, तब नागकन्याओं से श्री गणेश के व्रत की संपूर्ण विधि मालूम कर उस बालक ने 21 दिन तक लगातार गणेश जी का व्रत पूजन किया। उस बालक की सच्ची श्रद्धा को देखकर गणेश जी प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को मनोवांछित फल मांगने के लिए बोला। उस बालक ने कहा- ‘हे विनायक! मुझमें इतनी शक्ति दीजिए कि मैं अपने पैरों से स्वयं चलकर कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुंच सकूं और वे यह देख कर प्रसन्न हों सके।’
बालक को वरदान देकर श्री गणेश अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद वह बालक कैलाश पर्वत पर स्वयं पहुंच गया और कैलाश पर्वत पर पहुंचने की अपनी कथा उसने भगवान शिव जी को सुनाई। चौपड़ वाले दिन से माता पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं अत: देवी के रुष्ट होने पर भगवान शिव ने भी बालक के बताए अनुसार 21 दिनों तक श्री गणेश का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से माता पार्वती के मन से भगवान शिव के लिए जो नाराजगी थी, वह समाप्त हो गई।
तब यह व्रत विधि भगवान शंकर ने माता पार्वती को बताई। यह सुनकर माता पार्वती के मन में भी अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा जागृत हुई। तब माता पार्वती ने भी 21 दिन तक श्री गणेश का व्रत किया तथा दूर्वा, फूल और लड्डूओं से गणेश जी का पूजन-अर्चन किया। व्रत के 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं माता पार्वतीजी से आ मिले। उस दिन से श्री गणेश चतुर्थी का यह व्रत समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला व्रत माना जाता रहा है। इस व्रत को करने से मनुष्य के सारे कष्ट दूर होकर मनुष्य को समस्त सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं।
गणेश चतुर्थी व्रत की द्वितीय कथा
श्री गणेश चतुर्थी व्रत की एक और पौराणिक कथा के अनुसार एक बार सभी देवता एक विपदा में उलझे थे। जिसके निवारण के लिए वे सभी देवता भगवान् शिव के निकट आये, उस समय शिव जी के दोनों सुपुत्र बैठे थे। देवताओं की सभी बात सुनकर शिव जी ने अपने बेटों कार्तिकेय व गणेश जी से पूछा कि तुम में से कौन देवताओं के कष्टों का निवारण करना चाहता है। इस पर दोनों ने ही स्वयं को इस कार्य के लिए सक्षम बताया। इस पर भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेते हुए कहा कि तुम दोनों में से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करने जाएगा।
भगवान शिव के ऐसा कहने पर कार्तिकेय बिना समय गवाए अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल जाते है, और गणेश जी इस सोच में पड़ गए कि वह चूहे की सवारी करके ऐसा कार्य करने में तो इस कार्य में उन्हें बहुत समय लग जाएगा। तभी उन्होंने अपनी सोच समझ से एक उपाय सूझा। गणेश अपने स्थान से उठें और अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा करके उनके समीप आकर बैठ गए। कुछ समय के बाद कार्तिकेय भी परिक्रमा करके लौट आय और स्वयं को विजेता बताने लगे। तब शिव जी ने श्री गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा ना करने का कारण पूछा।
तब गणेश ने कहा – ‘माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक समाया हैं।’ यह सुनकर भगवान शिव ने गणेश जी को देवताओं के संकट दूर करने की आज्ञा दी। इस प्रकार भगवान शिव ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देगा उसके तीनों ताप यानी दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर होंगे। इस व्रत को करने से व्रतधारी के सभी तरह के दुख दूर होंगे और उसे जीवन के भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी। चारों तरफ से मनुष्य की सुख-समृद्धि में वृद्धि बढ़ेगी। पुत्र-पौत्रादि, धन-ऐश्वर्य की कमी नहीं रहेगी।