प्राचीन समय में उज्जयिनी नगरी में राजा आदित्य सेन राज करते थे। वह बडे ही शूरवीर तथा प्रजा-वत्सल थे। एक दिन अपने कुछ सैनिकों, मंत्रियों तथा रानी के साथ वे शिकार करने को निकले। 

घने जंगल में जाकर एक हिरन के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा दौड़ाया। भागते हिरन का पीछा करते हुए घोड़ा राजा समेत सबकी आंखों से ओझल हो गया। हिरन छलांगें लगाता हुआ न जाने किस झाड़ी में छिप गया। राजा का घोड़ा एक ऐसे निर्जन स्थान पर जा खड़ा हुआ, जहां पता ही नहीं चलता था कि वे कहां आ गए हैं और अब किधर जाना है? 

उधर, राजा के मंत्रियों तथा सैनिकों को बड़ी चिंता हुई कि महाराज कहां भटक गए? बहुत खोज-खबर की, मगर न तो महाराज का पता चला, न ही घोड़ा कहीं दिखा। अब तो सब परेशान ! क्या किया जाए? 

महारानी की सलाह से तय किया गया कि अब राजधानी उज्जयिनी लौट चलते हैं। महाराज जहां कहीं भी होंगे, बाद में स्वयं पहुंच जाएंगे। हमारे वीर महाराज को किसी हिंस्र जानवर से कोई भय नहीं हो सकता। 

उधर, महाराजा आदित्य सेन का बुरा हाल था। भयानक जंगल में वह घोड़े को लेकर किधर जाएं, पता ही नहीं चल रहा था। भूख-प्यास से बेहाल थे। इतनी चिंता तो शत्रुओं से युद्ध करने पर भी कभी नहीं हुई थी। यहां इस जंगल में कितना असहाय हो गया हूं। उधर मेरी रानी, मंत्री तथा सैनिकों का न जाने क्या हाल होगा? इसी सोच में पड़े वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। 

बहुत देर तक सोच-विचार करने के बाद भी उन्हें कोई रास्ता न सूझा। सूरज के डूबने से अंधेरा घिरने लगा, तो उन्होंने घोड़े के आगे हाथ जोड़कर कहा-‘हे मेरे अश्व! तुम और तुम्हारी जाति बहुत स्वामिभक्त होती है। तुमने मुझे इस निर्जन तथा बियाबान जगह में लाकर खड़ा तो कर दिया है, अब तुम ही मुझे इस संकट से उबारोगे। यहां तुम्हारे सिवा मेरा कोई सहायक नहीं है।’ 

यह कहकर राजा घोड़े पर सवार हो गए। घोड़ा किधर जाएगा और वह कहां पहुचेंगे, इसका उन्हें कुछ पता नहीं था। 

अब तक अंधेरा काफी घिर आया था। राजा के भाग्य और घोड़े की सूझ बझ से घोड़ा घने जंगल से बाहर आ गया। अब राजा को भी लगा कि संकट पार हो जाएगा।

फिर उन्हें दूर, बहुत दूर रोशनी की एक झलक दिखी। घोड़ा स्वयं उस ओर बढ गया। खुली जगह एक घर और कुछ आदमियों को देखकर, राजा की जान में जान आई। राजा घोड़े से उतरे। उस आश्रम जैसे घर के द्वार पर खड़े होकर उन्होंने आवाज लगाई-“अरे कोई है? मैं एक भटका हआ यात्री हं। मझे रात में अपने यहां शरण दीजिए।” 

दरवाजा खुला और एक आदमी बाहर आया। जब तक वह आगंतुक से कुछ पूछे, पांच-छह आदमी और भी बाहर आ गए। हाथ में लाठियां थीं। सबने एक

स्वर में पूछा-“गुरुजी? कौन है यह? इतनी रात गए तो कोई चोर-डाकू ही यहां आ सकता है।” 

गुरु जी ने उन लोगों को शांत कर कहा-“ठहरो! मैं देखता-पूछता हूं कि कौन है?” 

यह कहकर उन्होंने दीपक की रोशनी आदित्य सेन पर डाली। भूख, प्यास, थकान से आदित्य सेन का बुरा हाल था। जंगल में झाड़ियों में उलझकर वस्त्र भी कई जगह से फट गए थे। चेहरे का सारा राजसी तेज समाप्त हो चुका था। 

गुरुजी उनसे कुछ पूछते कि इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू किया-“हे पूज्यवर ! मैं विपत्ति का मारा एक शिकारी हूं। एक हिरन के पीछे मेरा घोड़ा दौड़ा, हिरन तो न जाने कहां ओझल हो गया पर मैं भटक गया। सारा दिन भूख-प्यास और बेहाली में बीता। अंत में अपने को भगवान के भरोसे छोड़ दिया। अब मैं आपके द्वार पर खड़ा हूं।” 

गुरुजी का नाम चक्रधर था। जब उन्होंने यह सब सुना, तो लगा कि निश्चय ही यह आदमी मुसीबत का मारा है। इसे शरण अवश्य देनी चाहिए। उन्होंने कहा-“अतिथि तो हमारे लिए भगवान जैसा होता है। आप घोड़े को बाहर बांधकर अंदर आ जाएं।” 

इतना सुनते ही उनके साथियों ने कहा- “गुरु जी! यह आप क्या कर रहे हैं। यह आदमी डाकू भी हो सकता है। झूठ-मूठ अपनी बुरी दशा बताकर अंदर आ जाएगा और रात में हमें लूटकर चला जाएगा।” 

गुरु जी बोले-“ऐसा मत सोचो। अगर यह डाकू भी हो, तो डरने की कोई बात नहीं, यह अकेला है और हम सब इतने हैं। तुम सब निश्चिंत होकर सोओ। मैं जागकर पहरा देता रहूंगा। इतनी रात गए इस हालत में एक आदमी को शरण देना, उसके प्राणों की रक्षा करना हमारा धर्म है। हमें इस धर्म को निभाना चाहिए।” 

यह कहते हुए उन्होंने आदित्य सेन को अन्दर बुलाया। उन्हें खाना दिया। 

घोड़े के लिए चारा-पानी देना भी न भूले। जब आदित्य सेन थोड़ा आश्वस्त हा तो गुरु जी ने कहा-“अब आप निश्चिंत होकर सोइए। मेरे रहते आपको कोई कष्ट नहीं होगा। सवेरे आपको जहां जाना होगा, चले जाइएगा।” 

आदित्य सेन लेटे-लेटे सोचने लगे कि समय बड़ा बलवान होता है। वह कब किसको किस दशा में डाल दे, इसका कुछ पता नहीं होता। मैं प्रजा पालक राजा, जो चोर-डाकुओं और शत्रुओं का नाश करने वाला हूं, आज किसी की कृपा से अपनी भूख मिटा पाया हूं। कहीं मैं चोर-डाकू तो नहीं, इस भय से गुरु जी रात भर जागकर अपने अनुयाइयों की रक्षा कर रहे हैं। सोचते-सोचते थके-मांदे आदित्य सेन जाने कब सो गए। 

प्रात:काल जब वे उठे, तो थकान उड़ चुकी थी। गुरु जी से कहा-“आपने रात में शरण देकर मुझ पर जो उपकार किया है, मैं जीवन भर इसे न भूलूंगा। आज्ञा दीजिए, अब चलूं। मेरे घर-परिवार के लोग बहुत चिंतित होंगे।” 

गुरु जी ने कहा-“मैंने कोई उपकार नहीं किया। एक मनुष्य होने के नाते एक दुखी आदमी के साथ अपना मानवीय कर्तव्य निभाया है। आप शीघ्र अपने घर पहुंचकर अपने परिवार की चिंता दूर करें।” 

दूसरे दिन महाराज के उज्जयिनी पहुंचते ही सारे दरबार में खुशी छा गई। राजा ने रात के प्रसंग की किसी से चर्चा नहीं की। 

चक्रधर का यह आश्रम उज्जयिनी राज्य में ही था। आदित्य सेन ने एक दिन अपने एक सामंत से कहा कि अमुक वन में चक्रधर नाम के एक ऋषि का आश्रम है, जहां वह अपने कुछ शिष्यों के साथ रहते हैं। वहां जाकर उन्हें संदेश दो कि महाराज ने आपको बुलाया है। 

दूत ने जाकर चक्रधर को जब यह संदेश सुनाया तब चक्रधर को कारण समझ नहीं आया। राजाज्ञा का पालन प्रजा का कर्तव्य है, इसलिए दरबार में चक्रधर उपस्थित हुए। महाराज ने उन्हें तत्काल पहचान लिया, पर चक्रधर यह न पहचान सके कि यही आदमी कुछ दिन पहले एक रात मेरे आश्रम में रह चुका है। महाराज ने पूछा- “गुरुजी! आपके आश्रम में कितने लोग हैं? आश्रम का खर्चा कैसे चलता है?” 

चक्रधर ने विनयपूर्वक कहा-“महाराज ! सात-आठ आदमी मेरे साथ आश्रम में हैं। सब दिन में भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करते हैं। आपके इस धन-धान्य सम्पन्न राज्य में भिक्षा प्राप्त होने में कभी कोई कठिनाई नहीं आती। कभी कोई अतिथि भूखा आ जाए, तो उसकी भी सेवा का अवसर मिल जाता है। आपके राज्य में कोई कष्ट नहीं।” 

महाराज ने कहा-“ठीक है। अब से आप सबको नित्य भिक्षा मांगने का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं। मैं आपके आश्रम को पांच गांव दान में देता हूं। 

उसकी आमदनी से आपके आश्रम का सारा खर्च चलेगा। अपने शिष्यों की तरफ से निश्चिंत होकर अब आप हमारे दरबार में रहिए।” 

अचानक हुई महाराज की इस कृपा का रहस्य चक्रधर को पता न चल पाया। चक्रधर दरबार में रहने लगे। उधर, आश्रमवासियों को गांवों की आय होने से भिक्षा मांगने से छुट्टी मिली। बिना मेहनत किए आराम से खूब धन-सम्पत्ति मिलने पर आश्रमवासी उदंड तथा विलासी हो गए। कुछ दिनों बाद धन-सम्पत्ति के बंटवारे के लिए आपस में लड़ने भी लगे। 

एक दिन चक्रधर ने कहा-“महाराज! आज्ञा दें, तो एक बार जाकर में आश्रम की दशा देख आऊं। उन्हें सुखी देखकर मुझे खुशी होगी।” 

राजा ने आज्ञा दे दी। चक्रधर जब आश्रम पहुंचे, तो उनके अनुयायियों को बुरा लगा। उन लोगों ने सोचा कि गुरु जी भी हमारी आमदनी में हिस्सा बंटाने आ गए। धन-सम्पत्ति को लेकर उनकी आपस की लड़ाई देख, चक्रधर को बहुत दुख हुआ। उन्होंने कहा-“तुम सब अपने में से एक मुखिया चुन लो। उसकी सलाह से सब मिल-जुलकर काम करो। इस प्रकार आपस में लडाई-झगडे से बचकर कुछ परोपकर का कार्य भी किया करो।” 

अब वे लोग भिक्षा मांगने वाले तो थे नहीं। कोई किसी को मुखिया मानने को तैयार नहीं हुआ। अंत में निराश होकर चक्रधर वापस दरबार में आ गए। 

चक्रधर को उदास और दुखी देकर राजा ने उनके दुख और उदासी का कारण पूछा। चक्रधर ने सारी बात बता दी। राजा ने कहा- “गुरु जी, आप पुनः आश्रम में जाइए। मैं पता कराऊंगा।” 

चक्रधर फिर आश्रम में आ गए। एक दिन महाराज स्वयं भिक्षुक का वेश बनाकर आश्रम में पहुंचे। भिक्षा के नाम पर आश्रमवासियों ने फटकारते हुए कहा- “भाग जाओ यहां से, भिखमंगे कहीं के। कोई भिक्षा नहीं मिलेगी।” चक्रधर भी बैठे यह सुन रहे थे, पर कुछ कह न सके। 

भिखारी जब फिर भी न हटा, तो एक आश्रमवासी उसे मारने के लिए दौड़ा। अब तो भिखारी ने अपना ऊपरी वेश उतार दिया और एक राजा के रूप में खड़े होकर चक्रधर से कहा-“गुरुजी! मैं राजा आदित्य सेन स्वयं इन सबकी परीक्षा लेने आया था। मुझे बहुत दुख है। सहज मिली हुई सम्पत्ति तथा गुरु के अभाव में ये सब विलासी तथा उदंड हो गए हैं। जैसे प्रजा की देखभाल के लिए राजा का होना आवश्यक है, उसी तरह आपका यहां रहना जरूरी है। आपके बिना ये भटक गए हैं। आप आश्रम में रहकर इन्हें ज्ञान दें। इन्हें सन्मार्ग पर लाएं, इनका चरित्र सुधारें।” 

कहकर राजा वापस चले गए। चक्रधर फिर से वहीं आश्रम में रहने लगे। सच है, कोई मार्गदर्शक न होने पर अनुयायी भटक जाते हैं। 

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