श्रवण कुमार की कथा जनमानस के मष्तिस्क पटल पर आज भी अंकित है. मातृ और पिता के प्रति भक्ति की ऐसी कथा विरले ही सुनने को मिलती है. यह माता-पिता के प्रति अतुलनीय प्रेम और सम्मान का वर्णन करती है.
श्रवण कुमार ने अपना संपूर्ण जीवन माता और पिता की सेवा-सुश्रुषा में समर्पित कर दिया और मृत्यु पर्यंत उनकी सेवा करते रहे. अपनी इसी मातृ और पितृभक्ति के कारण वह अमर हो गए. श्रवण कुमार का वर्णन वाल्मीकि रामायण के ६४वें अध्याय में मिलता है.
श्रवण कुमार शांतनु नामक एक साधु के पुत्र थे. उनकी माता का नाम ज्ञानवती था, जो एक धर्मपरायण स्त्री थी. उनके माता-पिता नेत्रहीन थे. बड़े कष्ट सहकर उन्होंने उनका पालन-पोषण किया था. इसलिए माता-पिता के प्रति उनके मन में अथाह प्रेम और श्रद्धा थी.जब वे कुछ बड़े हुए, तो अपने माता-पिता की सेवा में लग गए. वे नदी से पानी भरकर लाते, जंगल से लकड़ियाँ चुनकर लाते, भोजन तैयार करते और घर के समस्त कार्य करते. माता-पिता की सेवा करना वे अपना परम धर्म मानते थे.
विवाह योग्य होने पर माता-पिता द्वारा उनका विवाह करवा दिया गया. किंतु जिस स्त्री से उनका विवाह हुआ, वह श्रवण कुमार के नेत्रहीन माता-पिता को बोझ स्वरुप मानती थी. वह दिखावे मात्र के लिए श्रवण कुमार के समक्ष माता-पिता की सेवा करती और पीठ पीछे उनसे बुरा व्यवहार करती थी.
जब श्रवण कुमार को इस विषय में ज्ञात हुआ, तो उन्होंने अपनी पत्नि को फटकार लगाईं. तब रूठकर वह अपने मायके चली गई और कभी वापस नहीं आई. पत्नि के जाने के बाद श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कभी कोई दुःख नहीं पहुँचने दिया.
समय के साथ श्रवण कुमार के माता-पिता वृद्ध हो चले थे. उनकी इच्छा मृत्यु पूर्व तीर्थ यात्रा पर जाने की थी. एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा श्रवण कुमार को बताई, तो श्रवण कुमार उनकी इस इच्छा की पूर्ति की तैयारियों में लग गए.
दो बड़ी टोकरियों को एक मजबूत लकड़ी के दोनों छोर पर बंधकर उन्होंने कांवर तैयार किया. एक टोकरी में अपने पिता को बैठाया और एक में माता को. फिर उस कांवर को अपने कंधों में लादकर वे विभिन्न तीर्थों की यात्रा पर निकल गए.
वे अपने माता-पिता को काशी, गया, प्रयागराज जैसे कई तीर्थों पर ले गए. तीर्थ स्थानों का वर्णन कर वे अपने माता-पिता को सुनाया करते थे. इस तरह उनके नेत्रहीन माता-पिता उनकी आँखों से तीर्थ दर्शन करने लगे.
एक संध्या श्रवण कुमार कांवर लेकर एक वन से प्रस्थान कर रहे थे. उनके माता-पिता बहुत देर से प्यासे थे. उन्होंने श्रवण कुमार से पानी लाने को कहा. श्रवण कुमार ने एक पेड़ के नीचे कांवर नीचे रखा और कलश लेकर जल की खोज में निकल पड़े. पास ही उन्हें एक नदी दिखाई पड़ी और वे नदी तट पर पहुँच गए.
उस दिन अयोध्या के राजा दशरथ उसी वन में आखेट कर रहे थे. दिन भर वन में भटकने के उपरांत भी उन्हें कोई आखेट न प्राप्त हो सका. वे वापस लौटने का मन बना ही रहे थे कि उन्हें नदी तट पर आहट सुनाई पड़ी. उन्होंने सोचा कि अवश्य ही कोई वन्य जीव नदी तट पर प्यास बुझाने आया है.
शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत राजा दशरथ ने आहट की दिशा में बाण छोड़ दिया. किंतु वह कोई वन्य प्राणी नहीं अपितु श्रवण कुमार थे, जो अपने माता-पिता के लिए कलश में जल भर रहे थे. बाण उनके सीने में जा घुसा और वे पीड़ा से कराह उठे. यह कराह सुनकर राजा दशरथ को अपनी त्रुटी का भान हुआ और वे नदी के तट पर पहुँचे.
घायल अवस्था में श्रवण वहाँ पड़े हुए थे. राजा दशरथ प्रायश्चित से भर उठे. वे श्रवण से क्षमा याचना करने लगे. तब श्रवण कुमार ने कहा, “राजन! मुझे अपनी मृत्यु का कोई दुःख नहीं. दुःख है कि मैं अपने माता-पिता की इच्छा पूर्ण न कर सका. मैं उन्हें समस्त तीर्थों की यात्रा न करा सका. इस समय वे प्यास से व्याकुल है. कृपा कर आप इस कलश में पानी भरकर उनकी प्यास बुझा दीजिये.” इतना कहकर श्रवण ने प्राण त्याग दिए.
अनजाने में स्वयं से हुए अपराध से दु;खी राजा दशरथ श्रवण के माता-पिता के पास पहुँचे. श्रवण कुमार के माता-पिता कदमों की आहत से जान गए कि वह उनका पुत्र नहीं है. पूछने पर दशरथ ने पूरा वृतांत सुना दिया. अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुन माता-पिता विलाप करने लगे और उन्होंने दशरथ को श्राप दिया कि पुत्र वियोग में तड़प-तड़प कर वह भी अपने प्राण त्यागेगा.
इस श्राप के कारण राजा दशरथ को तब पुत्र वियोग भोगना पड़ा, जब मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम १४ वर्ष के वनवास के लिए वन चले गए. पुत्र वियोग में तड़पते हुये ही राजा दशरथ ने अपने प्राण त्यागे.