महाभारत को शास्त्रों में पांचवां वेद कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। आज हम आपको बता रहे हैं महाभारत के उन प्रमुख पात्रों के बारे में जिनके बिना ये कथा अधूरी है। साथ ही जानिए इन पात्रों से जुड़ी रोचक बातें भी
भीष्म पितामह (Bhishma pitamah)
भीष्म पितामह को महाभारत का सबसे प्रमुख पात्र कहा जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि भीष्म ही महाभारत के एकमात्र ऐसे पात्र थे, जो प्रारंभ से अंत तक इसमें बने रहे। भीष्म के पिता राजा शांतनु व माता देवनदी गंगा थीं। भीष्म का मूल नाम देवव्रत था। राजा शांतनु जब सत्यवती पर मोहित हुए तब अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत ने सारी उम्र ब्रह्मचारी रह कर हस्तिनापुर की रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली और सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ।
पांडवों को बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य
युद्ध में जब पांडव भीष्म को पराजित नहीं कर पाए तो उन्होंने जाकर भीष्म से ही इसका उपाय पूछा। तब भीष्म पितामह ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। अर्जुन शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करे। वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दे। पांडवों ने यही युक्ति अपनाई और भीष्म पितामह पर विजय प्राप्त की। युद्ध समाप्त होने के 58 दिन बाद जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब भीष्म ने अपनी इच्छा से प्राण त्यागे।
2. गुरु द्रोणाचार्य (Guru Dronacharya)
कौरवों व पांडवों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा गुरु द्रोणाचार्य ने ही दी थी। द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। महाभारत के अनुसार एक बार महर्षि भरद्वाज जब सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में संग्रहित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था।
जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनके प्रयोग की विधि भी सीख ली। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था।
छल से हुआ था वध
कौरव-पांडवों के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की ओर थे। जब पांडव किसी भी तरह उन्हें हरा नहीं पाए तो उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के वध की योजना बनाई। उस योजना के अनुसार भीम ने अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया। अपने पुत्र की मृत्यु को सच मानकर गुरु द्रोण ने अपने अस्त्र नीचे रख दिए और अपने रथ के पिछले भाग में बैठकर ध्यान करने लगे। अवसर देखकर धृष्टद्युम्न ने तलवार से गुरु द्रोण का वध कर दिया।
3. कृपाचार्य (Kripacharya)
कृपाचार्य कौरव व पांडवों के कुलगुरु थे। इनके पिता का नाम शरद्वान था, वे महर्षि गौतम के पुत्र थे। महर्षि शरद्वान ने घोर तपस्या कर दिव्य अस्त्र प्राप्त किए और धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की। यह देखकर देवराज इंद्र भी घबरा गए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या तोडऩे के लिए जानपदी नाम की अप्सरा भेजी।
इस अप्सरा को देखकर महर्षि शरद्वान का वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य सरकंड़ों पर गिरा, जिससे वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक बालक उत्पन्न हुआ। वही बालक कृपाचार्य बना और कन्या कृपी के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत के अनुसार युद्ध के बाद कृपाचार्य जीवित बच गए थे।
आज भी जीवित हैं कृपाचार्य
धर्म ग्रंथों में जिन 8 अमर महापुरुषों का वर्णन है, कृपाचार्य भी उनमें से एक हैं। इससे संबंधित एक श्लोक भी प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय- ये आठों अमर हैं।
4. महर्षि वेदव्यास (Mahrishi Vedvyas)
महर्षि वेदव्यास ने ही महाभारत की रचना की और वे स्वयं भी इसके एक पात्र हैं। इनका मूल नाम कृष्णद्वैपायन वेदव्यास था। इनके पिता महर्षि पाराशर तथा माता सत्यवती है। धर्म ग्रंथों में इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी माना गया है। इनके शिष्य वैशम्पायन ने ही राजा जनमेजय की सभा में महाभारत कथा सुनाई थी। इन्हीं के वरदान से गांधारी को 100 पुत्र हुए थे।
जीवित कर दिया था युद्ध में मरे वीरों को
जब धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए वन में तपस्या कर रहे थे। तब एक दिन युधिष्ठिर सहित सभी पांडव व द्रौपदी उनसे मिलने वन में गए। संयोग से वहां महर्षि वेदव्यास भी आ गए। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से प्रसन्न होकर महर्षि वेदव्यास ने उनसे वरदान मांगने को कहा। तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी ने भी कहा कि वह भी युद्ध में मृत हुए अपने भाई व पिता आदि को चाहती है।
महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास सभी को गंगा तट ले आए। रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं को बुलाने लगे। थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए।
महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी को बहुत खुशी हुई। सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिता कर सभी के मन में संतोष हुआ। सुबह होते ही सभी मृत योद्धा पुन: गंगा जल में लीन हो गए।
5. श्रीकृष्ण (Shri Krishna)
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार थे। इनकी माता का नाम देवकी व पिता का नाम वसुदेव था। समय-समय पर श्रीकृष्ण ने पांडवों की सहायता की। युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने ही सबसे बड़े रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए पांडवों को विजय दिलवाई। श्रीकृष्ण की योजना के अनुसार ही पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था। उस यज्ञ में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध किया था।
श्रीकृष्ण ही शांति दूत बनकर कौरवों की सभा में गए थे और पांडवों की ओर से पांच गांव मांगे थे। युद्ध के प्रारंभ में जब अर्जुन कौरवों की सेना में अपने प्रियजनों को देखकर विचलित हुए, तब श्रीकृष्ण ने ही उन्हें गीता का उपदेश दिया था। अश्वत्थामा द्वारा छोड़ गए ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से जब उत्तरा (अभिमन्यु की पत्नी) का पुत्र मृत पैदा हुआ, तब श्रीकृष्ण न उसे अपने तप के बल से जीवित कर दिया था।
गांधारी ने दिया था श्रीकृष्ण को श्राप
युद्ध समाप्त होने के बाद जब धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती आदि कुरुकुल की स्त्रियां कुरुक्षेत्र आईं तो यहां अपने पुत्रों, पति व भाई आदि के शव देखकर उन्होंने बहुत विलाप किया। अपने पुत्रों के शव देखकर गांधारी थोड़ी देर के लिए अचेत (बेहोश) हो गई। होश आने पर गांधारी को बहुत क्रोध आया और वे श्रीकृष्ण से बोलीं कि पांडव व कौरव आपस की फूट के कारण ही नष्ट हुए हैं किंतु तुम चाहते तो इन्हें रोक सकते थे, लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।
ऐसा कहकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि आज से 36 वर्ष बाद तुम भी अपने परिवार वालों का वध करोगे और अपने मंत्री, पुत्रों आदि के नाश हो जाने पर एक अनाथ की तरह मारे जाओगे। उस दिन तुम्हारे परिवार की स्त्रियां भी इसी प्रकार विलाप करेंगी। गांधारी के श्राप देने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा कि वृष्णिवंशियों का नाश इसी प्रकार होगा, ये मैं पहले से जानता था क्योंकि मेरे अलावा कोई भी उनका संहार नहीं कर सकता। अत: आपके श्राप के अनुसार ही यदुवंशी आपसी कलह से नष्ट होंगे।
6-7. धृतराष्ट्र तथा पांडु (Dhritarashtra and Pandu)
राजा शांतनु व सत्यवती के दो पुत्र थे- चित्रांगद व विचित्रवीर्य। राजा शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजगद्दी पर बैठे, लेकिन कम उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। तब भीष्म ने विचित्रवीर्य को राजा बनाया। भीष्म काशी से राजकुमारियों का हरण कर लाए और उनका विवाह विचित्रवीर्य से करवा दिया। किंतु क्षय रोग के कारण विचित्रवीर्य की भी मृत्यु हो गई।
तब महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद से अंबिका तथा अंबालिका को पुत्र उत्पन्न हुए। महर्षि वेदव्यास को देखकर अंबिका ने आंखें बंद कर ली थी, इसलिए धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे हुए तथा अंबालिका के गर्भ से पांडु हुए। अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र को राजा बनने के योग्य नहीं माना गया और पांडु को राजा बनाया गया।
8. गांधारी (Gandhari)
गांधारी गांधारराज सुबल की पुत्री थी। जब भीष्म ने सुना कि गांधार देश की राजकुमारी सब लक्षणों से संपन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास अपना दूत भेजा। पहले तो सुबल ने अंधे के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने में बहुत सोच-विचार किया, लेकिन बाद में हां कह दिया। गांधारी को जब पता चला कि उसका होने वाला पति जन्म से अंधा है तो उसने भी आजीवन आंखों पर पट्टी बांधने का निर्णय लिया।
9-10. कुंती व माद्री (Kunti and Madri)
यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक पुत्री थी। इस कन्या को राजा शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुंतीभोज को गोद दे दिया था। कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम कुंती रखा। विवाह योग्य होने पर राजा कुंतीभोज ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर में कुंती ने राजा पांडु को वरमाला डालकर अपना पति चुना। कुंती के अलावा पांडु की एक और पत्नी थी, जिसका नाम माद्री था। यह मद्रदेश की राजकुमारी थी।
11. कर्ण (Karna)
जब पांडवों की माता कुंती बाल्यावस्था में थी, उस समय उन्होंने ऋषि दुर्वासा की सेवा की थी। सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि दुर्वासा ने कुंती को एक मंत्र दिया जिससे वह किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थीं। विवाह से पूर्व इस मंत्र की शक्ति देखने के लिए एक दिन कुंती ने सूर्यदेव का आह्वान किया, जिसके फलस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ। किंतु लोक-लाज के भय से कुंती ने कर्ण को नदी में बहा दिया। कर्ण दिव्य कवच-कुंडल के साथ ही पैदा हुआ था। कर्ण का पालन-पोषण धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ व उसकी पत्नी राधा ने किया। राधा का पुत्र समझे जाने के कारण ही कर्ण राधेय नाम से भी जाना जाने लगा। युद्ध के दौरान कर्ण ने कौरवों का साथ दिया। श्राप के कारण कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया और उसे अपने दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी नहीं रहा। इसी समय अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया।
इंद्र को दान कर दिए थे कवच-कुंडल
देवराज इंद्र का अर्जुन पर विशेष स्नेह था। इंद्र जानते थे कि जब तक कर्ण के पास कवच-कुंडल है, उससे कोई नहीं जीत सकता। तब एक दिन इंद्र ब्राह्मण का रूप धारण कर कर्ण के पास आए और भिक्षा में कवच-कुंडल मांग लिए। तब कर्ण ने ब्राह्मण से कहा कि आप स्वयं देवराज इंद्र हैं, ये बात मैं जानता हूं। आप स्वयं मुझसे याचना कर रहे हैं।
इसलिए मैं आपको अपने कवच-कुंडल अवश्य दूंगा, लेकिन इसके बदले आप को भी मुझे वह अमोघ शक्ति देनी होगी। देवराज इंद्र ने कर्ण को वो अमोघ शक्ति दे दी और कहा कि इस शक्ति का प्रयोग तुम सिर्फ एक ही बार कर सकोगे। कर्ण ने देवराज इंद्र की बात मानकर वह अमोघ शक्ति ले ली और कवच-कुंडल इंद्र को दे दिए।
12. पांडव (Pandava)
महाराज पांडु के पांचों पुत्र पांडव कहलाए। एक बार राजा पांडु शिकार खेल रहे थे। उस समय किंदम नामक ऋषि अपनी पत्नी के साथ हिरन के रूप में सहवास कर रहे थे। उसी अवस्था में राजा पाण्डु ने उन पर बाण चला दिए। मरने से पहले ऋषि किंदम ने राजा पांडु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हो जाएगी। ऋषि किंदम के श्राप से दु:खी होकर राजा पांडु ने राज-पाट का त्याग कर दिया और वनवासी हो गए।
कुंती और माद्री भी अपने पति के साथ ही वन में रहने लगीं। जब पांडु को ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को दिए गए मंत्र के बारे में पता चला तो उन्होंने कुंती से धर्मराज का आवाहन करने के लिए कहा जिसके फलस्वरूप धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव के अंश से भीम और देवराज इंद्र के अंश से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र माद्री को बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का आवाहन किया, जिसके फलस्वरूप नकुल व सहदेव का जन्म हुआ।
– युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। ये धर्म और नीति के ज्ञाता थे। धर्म का ज्ञान होने के कारण ही इन्हें धर्मराज भी कहा जाता था। पांडवों में सिर्फ युधिष्ठिर ही ऐसे थे जो सशरीर स्वर्ग गए थे।
– भीम युधिष्ठिर से छोटे थे। ये महाबलशाली थे। महाभारत के अनुसार युद्ध के दौरान भीम ने सबसे ज्यादा कौरवों का वध किया था। दु:शासन व दुर्योधन का वध भी भीम ने ही किया था।
– अर्जुन पांडवों में तीसरे भाई थे। ये देवराज इंद्र के अंश थे। महाभारत के अनुसार ये पुरातन ऋषि नर के अवतार थे। भगवान श्रीकृष्ण का इन पर विशेष स्नेह था। अर्जुन ने ही घोर तपस्या कर देवताओं से दिव्यास्त्र प्राप्त किए थे। भीष्म, कर्ण, जयद्रथ आदि का वध अर्जुन के हाथों ही हुआ था।
– नकुल व सहदेव पांडवों में सबसे छोटे थे। ये अश्विनकुमार के अंश थे। सहदेव ने ही शकुनि व उसके पुत्र उलूक का वध किया था।
13. कौरव (Kaurava)
एक बार गांधारी ने महर्षि वेदव्यास की खूब सेवा की। प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को सौ पुत्रों की माता होने का वरदान दिया। समय आने पर गांधारी को गर्भ ठहरा, लेकिन वह दो वर्ष तक पेट में रुका रहा। घबराकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। गांधारी केपेट से लोहे के समान मांस का गोला निकला। तब महर्षि वेदव्यास वहां पहुंचे और उन्होंने कहा कि तुम सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और उनकी रक्षा के लिए प्रबंध करो।
इसके बाद महर्षि वेदव्यास ने गांधारी को उस मांस के गोले पर ठंडा जल छिड़कने के लिए कहा। जल छिड़कते ही उस मांस के गोले के 101 टुकड़े हो गए। महर्षि की बात मानकर गांधारी ने उन सभी मांस के टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में रख दिया। फिर महर्षि ने कहा कि इन कुंडों को दो साल के बाद खोलना। समय आने पर उन कुंडों से पहले दुर्योधन का जन्म हुआ और उसके बाद अन्य गांधारी पुत्रों का। गांधारी के अन्य 99 पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं-
2- दु:शासन, 3- दुस्सह, 4- दुश्शल, 5- जलसंध, 6- सम, 7- सह, 8- विंद, 9- अनुविंद, 10- दुद्र्धर्ष, 11- सुबाहु, 12- दुष्प्रधर्षण, 13- दुर्मुर्षण, 14- दुर्मुख, 15- दुष्कर्ण, 16- कर्ण, 17- विविंशति, 18- विकर्ण, 19- शल, 20- सत्व, 21- सुलोचन, 22- चित्र, 23- उपचित्र, 24- चित्राक्ष, 25- चारुचित्र, 26- शरासन, 27- दुर्मुद, 28- दुर्विगाह, 29- विवित्सु, 30- विकटानन, 31- ऊर्णनाभ, 32- सुनाभ, 33- नंद, 34- उपनंद, 35- चित्रबाण
36- चित्रवर्मा, 37- सुवर्मा, 38- दुर्विमोचन, 39- आयोबाहु, 40- महाबाहु 41- चित्रांग, 42- चित्रकुंडल, 43- भीमवेग, 44- भीमबल, 45- बलाकी, 46- बलवद्र्धन, 47- उग्रायुध, 48- सुषेण, 49- कुण्डधार, 50- महोदर, 51- चित्रायुध, 52- निषंगी, 53- पाशी, 54- वृंदारक, 55- दृढ़वर्मा, 56- दृढ़क्षत्र, 57- सोमकीर्ति, 58- अनूदर, 59- दृढ़संध, 60- जरासंध,61- सत्यसंध, 62- सद:सुवाक, 63- उग्रश्रवा, 64- उग्रसेन, 65- सेनानी, 66- दुष्पराजय, 67- अपराजित, 68- कुण्डशायी, 69- विशालाक्ष, 70- दुराधर 71- दृढ़हस्त, 72- सुहस्त, 73- बातवेग, 74- सुवर्चा, 75- आदित्यकेतु, 76- बह्वाशी, 77- नागदत्त, 78- अग्रयायी, 79- कवची, 80- क्रथन, 81- कुण्डी, 82- उग्र, 83- भीमरथ, 84- वीरबाहु, 85- अलोलुप, 86- अभय, 87- रौद्रकर्मा, 88- दृढऱथाश्रय, 89- अनाधृष्य, 90- कुण्डभेदी, 91- विरावी, 92- प्रमथ, 93- प्रमाथी, 94- दीर्घरोमा, 95- दीर्घबाहु, 96- महाबाहु, 97- व्यूढोरस्क, 98- कनकध्वज, 99- कुण्डाशी, और 100-विरजा।
– 100 पुत्रों के अलावा गांधारी की एक पुत्री भी थी जिसका नाम दुश्शला था, इसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।
14-15. द्रौपदी व धृष्टद्युम्न (Draupadi and Dhrishtadyumna)
पांचाल देश के राजा द्रुपद ने याज नामक तपस्वी से यज्ञ करवाया, जिससे एक दिव्य कुमार उत्पन्न हुआ। उसके सिर पर मुकुट और शरीर पर कवच था। तभी आकाशवाणी हुई कि यह कुमार द्रोणाचार्य को मारने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। इसके बाद उस यज्ञवेदी से एक सुंदर कन्या उत्पन्न हुई। तभी आकाशवाणी हुई कि इस कन्या का जन्म क्षत्रियों के संहार के लिए हुआ है। इसके कारण कौरवों को बहुत भय होगा।
द्रुपद ने इस कुमार का नाम धृष्टद्युम्न रखा और कन्या का नाम द्रौपदी। द्रौपदी के विवाह के लिए द्रुपद ने स्वयंवर का आयोजन किया। अर्जुन ने स्वयंवर की शर्त पूरी कर द्रौपदी से विवाह कर लिया। जब पांडव द्रौपदी को लेकर अपनी माता कुंती के पास पहुंचे तो उन्होंने बिना देखे ही कह दिया कि पांचों भाई आपस में बांट लो। तब द्रौपदी ने पांचों भाइयों से विधिपूर्वक विवाह किया।
इसलिए मिले पांच पति
महाभारत के अनुसार द्रौपदी पूर्व जन्म में ऋषि कन्या थी। विवाह न होने से दु:खी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तूने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे।
धृष्टद्युम्न ने किया था द्रोणाचार्य का वध
श्रीकृष्ण ने धृष्टद्युम्न को पांडवों की सेना का सेनापति बनाया था। युद्ध के दौरान जब अपने पुत्र की मृत्यु को सच मानकर गुरु द्रोण ने अपने अस्त्र नीचे रख दिए तब धृष्टद्युम्न ने तलवार से गुरु द्रोण का वध कर दिया था।
16. अश्वत्थामा (Ashwathama)
महाभारत के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था। अश्वत्थामा महापराक्रमी था।
युद्ध में उसने कौरवों का साथ दिया था। मृत्यु से पहले दुर्योधन ने उसे अंतिम सेनापति बनाया था। रात के समय अश्वत्थामा ने छल पूर्वक द्रौपदी के पांचों पुत्रों, धृष्टद्युम्न, शिखंडी आदि योद्धाओं का वध कर दिया था। मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी जीवित है। इनका नाम अष्ट चिरंजीवियों में लिया जाता है।
श्रीकृष्ण ने दिया था श्राप
जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।
अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी से बात नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर से पीब व रक्त बहता रहेगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।
17. विदुर (Vidur)
महात्मा विदुर का जन्म महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद से दासी के गर्भ से हुआ था। महाभारत के अनुसार विदुर धर्मराज (यमराज) के अवतार थे। एक ऋषि के श्राप के कारण धर्मराज को मनुष्य रूप से जन्म लेना पड़ा। विदुर नीतिकुशल थे। उन्होंने सदैव धर्म का साथ दिया।
युधिष्ठिर में समा गए थे विदुर के प्राण
जब धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व विदुर वानप्रस्थ आश्रम में रहते हुए कठोर तप कर रहे थे, तब एक दिन युधिष्ठिर सभी पांडवों के साथ उनसे मिलने पहुंचे। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती के साथ जब युधिष्ठिर ने विदुर को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं।
तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी ओर आते हुए दिखाई दिए, लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुरजी पुन: लौट गए। युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े। तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए।
जब युधिष्ठिर ने देखा कि विदुरजी के शरीर में प्राण नहीं है तो उन्होंने उनका दाह संस्कार करने का निर्णय लिया। तभी आकाशवाणी हुई कि विदुरजी संन्यास धर्म का पालन करते थे। इसलिए उनका दाह संस्कार करना उचित नहीं है। यह बात युधिष्ठिर ने आकर महाराज धृतराष्ट्र को बताई। युधिष्ठिर के मुख से यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ।
18. शकुनि (Shakuni)
शकुनि गांधारी का भाई था। धृतराष्ट्र व गांधारी के विवाह के बाद शकुनि हस्तिनापुर में ही आकर बस गए। यहां वे कौरवों को सदैव पांडवों के विरुद्ध भड़काते रहते थे। पांडवों का अंत करने के लिए शकुनि ने कई योजनाएं बनाई, लेकिन उनकी कोई चाल सफल नहीं हो पाई।
ऐसे हुई मृत्यु
युद्ध में सहदेव ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए शकुनि और उलूक (शकुनि का पुत्र) को घायल कर दिया और देखते ही देखते उलूक का वध दिया। अपने पुत्र का शव देखकर शकुनि को बहुत दु:ख हुआ और वह युद्ध छोड़कर भागने लगा। सहदेव ने शकुनि का पीछा किया और उसे पकड़ लिया। घायल होने पर भी शकुनि ने बहुत समय तक सहदेव से युद्ध किया और अंत में सहदेव के हाथों मारा गया।