उज्जैनी में चंद्रसेन नाम का राजा राज किया करता था।वह भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था। शिवगणों में मणिभद्र नामक गण उसका मित्र था। एक बार मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को बहुत ही अद्भुत चिंतामणि प्रदान की। चंद्रसेन ने उसे अपने गले में पहन लिया पहनने के बाद प्रभामंडल तो जगमगा उठा साथ ही दूर देशों में उसकी यश कीर्ति बढ़ने लगी। उस मनी को प्राप्त करने की आशा दूसरे देशों के राजा भी रखते थे। इसलिए उस मनी को प्राप्त करने के लिए इन राजाओं ने प्रयास करना शुरू कर दिया।कुछ राजाओं ने उस मणि को प्राप्त करने की मांग करी तो कुछ ने विनती की।लेकिन वो राजा की अत्यंत प्रिय वस्तु थी, इसलिए राजा ने वह मनी किसी को भी देना जरूरी नहीं समझा।
अंत में उन पर मणि आकांक्षी राजा ने आक्रमण कर दिया। इसी कारण से चंद्रसेन भगवान महाकाल के चरणों में जाकर ध्यान मग्न हो गए। जब चंद्रसेन ध्यान मग्न था उस समय एक गोपी अपने छोटे बालक के साथ दर्शन हेतु मंदिर में आई। बालक की उम्र मात्र 5 वर्ष थी और गोपी विधवा थी। जब बालक ने चंद्रसेन को ध्यान मंत्र करते देखा तो वह भी पूजा हेतु प्रेरित हुआ। वह बालक भी अपने घर में एक छोटे से स्थान में जाकर बैठ गया और भक्ति भाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा। थोड़ी समय पूर्व उसकी माता ने उसे भोजन के लिए बुलाया, लेकिन बालक वहां नहीं गया। फिर उसकी माता ने उसे बुलाया, लेकिन वह फिर से नहीं गया। जब माता स्वयं चलकर आई तो उसने देखा कि बालक ध्यान मग्न होकर भगवान शिव की पूजा कर रहा है।
से कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा। तब क्रोध में आकर माता ने अपने पुत्र को पीटना शुरू कर दिया और पूजा की सारी सामग्री उठा कर फेंक दी।ध्यान से मुक्त होकर जब बालक चेतना में आया तो उसने देखा कि उसकी पूजा की सारी सामग्री नष्ट हो चुकी है। फिर अचानक से उसकी व्यथा में चमत्कार हुआ। भगवान शिव की दया दृष्टि से वहां पर एक सुंदर सा मंदिर निर्मित हो गया था। मंदिर के बीचो बीच एक दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा सामग्री भी थी। यह सब दृष्टि देखते ही उसकी माता भी आश्चर्यचकित हो उठी।
राजा चंद्रसेन को जब इस घटना की जानकारी मिली तो वह भी इस शिवभक्त बालक से मिलने की इच्छा जागृत करने लगे। अन्य राजा जो इस मणि के लिए युद्ध पर उतारू थे, वह भी उस बालक को देखने पहुंचे। सभी राजाओं ने मिलकर चंद्रसेन राजा से क्ष मा मांगी और सब मिलकर महाकाल की पूजा अर्चना करने लगे। तभी वहँ पर राम भक्त श्री हनुमान जी अवतरित हुए और उन्होंने बालक को गोद में उठाकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित करना शुरू किया।
ऋते शिवं नान्यतमा गतिरस्ति शरीरिणाम्॥
एवं गोप सुतो दिष्टया शिवपूजां विलोक्य च॥
अमन्त्रेणापि सम्पूज्य शिवं शिवम् वाप्तवान्।
एष भक्तवरः शम्भोर्गोपानां कीर्तिवर्द्धनः
इह भुक्तवा खिलान् भोगानन्ते मोक्षमवाप्स्यति॥
अस्य वंशेऽष्टमभावी नंदो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्यस पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्॥
अर्थात भगवान शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं होती । इस बालक ने बिना किसी मंत्र अथवा विधि- विधान के शिव पूजा करी और मंगल को प्राप्त किया है।यह शिव का परम भक्त समस्त समाज की कृति बढ़ाने वाला है। इस लोक में यह अत्यंत सुख को प्राप्त करने वाला होगा।
इसी के वंश का आठवां पुरुष महायशस्वी ‘नंद’ होगा जिसके पुत्र के रूप में स्वयं नारायण ‘कृष्ण’ नाम से प्रतिष्ठित होंगे। लोग कहते हैं कि भगवान शिव तभी से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल यानी शिव भगवान जी की असीम महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।