विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा का उल्लेख है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे।
विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा का उल्लेख है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे। आइये विस्तार से जानते हैं भक्त प्रह्लाद की कहानी जो अत्यंत रोचक और बच्चों के लिए प्रेरणादायक है।
सनकादि ऋषियों के शाप के कारण भगवान विष्णु के पार्षद जय एवं विजय को दैत्ययोनि में जन्म लेना पड़ा था।
भक्त प्रह्लाद का जन्म
महर्षि कश्यप की पत्नी दक्षपुत्री दिति के गर्भ से दो महान पराक्रमी बालकों का जन्म हुआ। इनमें से बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था।
दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों ही महाबलशाली, अमित पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे। दोनों भाइयों ने युद्ध में देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। एक समय जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को रसातल में ले जाकर छिपा दिया तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा के लिए हिरण्याक्ष का वध किया।
अपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से दुखी होकर हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया।
वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा।
इधर दैत्यों के राज्य को राजाविहीन देखकर देवताओं ने उनपर आक्रमण कर दिया। दैत्यगण इस युद्ध में पराजित हुए और पाताललोक को भाग गए।
देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश करके उसकी पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। उस समय कयाधु गर्भवती थी, इसलिए इन्द्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे।
रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से भेंट हो गयी। नारद जी ने पुछा – ” देवराज ! इसे कहाँ ले जा रहे हो ? “
इन्द्र ने कहा – ” देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का अंश है, उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा। “
यह सुनकर नारदजी ने कहा – ” देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद्भक्त है, जिसे मारना तुम्हारी शक्ति के बाहर है, अतः इसे छोड़ दो। “
नारदजी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने कयाधु को छोड़ दिया और अमरावती चले गए।
नारदजी कयाधु को अपने आश्रम पर ले आये और उससे बोले – ” बेटी ! तुम यहाँ आराम से रहो जब तक तुम्हारा पति अपनी तपस्या पूरी करके नहीं लौटता। “
कयाधु उस पवित्र आश्रम में नारदजी के सुन्दर प्रवचनों का लाभ लेती हुई सुखपूर्वक रहने लगी जिसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
समय होने पर कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।
इधर हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी हुई और वह ब्रह्माजी से मनचाहा वरदान लेकर वापस अपनी राजधानी चला आया।
कुछ समय के बाद कयाधु भी प्रह्लाद को लेकर नारदजी के आश्रम से राजमहल में आ गयी।
भक्त प्रह्लाद की लीला
जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए तब हिरण्यकशिपु ने उनके शिक्षा की व्यवस्था की। प्रह्लाद गुरु के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करने लगे।
एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मंत्रियों के साथ सभा में बैठा हुआ था। उसी समय प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहाँ गए।
प्रह्लाद को प्रणाम करते देखकर हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर दुलार किया और कहा –
” वत्स ! तुमने अब तक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर जो कुछ सीखा है, उसमें से कुछ अच्छी बात सुनाओ। “
तब प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! मैंने अब तक जो कुछ सीखा है उसका सारांश आपको सुनाता हूँ। जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय से शुन्य और अच्युत हैं, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अन्तकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ। “
यह सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा –
” अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी ? “
गुरूजी ने कहा – ” दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका पुत्र मेरी सिखाई हुई बात नहीं कह रहा है। “
हिरण्यकशिपु बोला – ” बेटा प्रह्लाद ! बताओ तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरूजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। “
प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उनको छोड़कर और कौन किसी को कुछ सीखा सकता है। “
हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू निश्शंक होकर स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इक्षा से बार-बार ऐसा बक रहा है। “
ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से समझाया पर प्रह्लाद के मन से श्रीहरि के प्रति भक्ति और श्रद्धाभाव को कम नहीं कर पाया। तब अत्यंत क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा –
” अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है। इसको मार डालो। अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रुप्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया है। “
हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने प्रह्लाद को अनेकों प्रकार से मारने की चेष्टा की पर उनके सभी प्रयास श्रीहरि की कृपा से असफल हो जाते थे।
उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात किये पर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के हाथ-पैर बाँधकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए।
उन सबने प्रह्लाद को अनेकों विषैले साँपों से डसवाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद्कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।
रसोइयों के द्वारा विष मिला हुआ भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए।
होलिका दहन
जब प्रह्लाद को मारने के सब प्रकार के प्रयास विफल हो गए तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान प्रज्ज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दी।
उस अति भयंकरी कृत्या ने अपने पैरों से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया। पर उस बालक के छाती में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर निचे गिर पड़ा।
उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालक पर कृत्या का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गई।
अन्य प्रचलित कथाओं के अनुसार कृत्या के स्थान पर होलिका का नाम आता है जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था।
होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई।
भगवान का नृसिंह अवतार
हिरण्यकशिपु के दूतों ने उसे जब यह समाचार सुनाया तो वह अत्यंत क्षुब्ध हुआ और उसने प्रह्लाद को अपनी सभा में बुलवाया।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा – ” रे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी बहकी बातें करता है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो मुझे इस खम्बे में क्यों नहीं दिखाई देता ? “
तब प्रह्लाद ने कहा – ” मुझे तो वे प्रभु खम्बे में भी दिखाई दे रहे हैं। “
यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंघासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्बे में एक घूँसा मारा।
उसी समय उस खम्बे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खम्बे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी बाहर निकलने लगा जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था।
यह भगवान श्रीहरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था।
उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली पीली आँखें थीं, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं और वे भयंकर शब्दों से गर्जन कर रहे थे। उनके निकट जाने का साहस किसी में नहीं हो रहा था।
यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंघनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा।
तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया।
फिर वहाँ उपस्थित अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़ खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की ऊँची सिंघासन पर विराजमान हो गए।
उनकी क्रोधपूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनको प्रसन्न करने का साहस नहीं हो रहा था।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, सभी देवगण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गन्धर्व आदि पहुँचे और थोड़ी दूरी पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँध कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ।
तब देवताओं ने माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजा पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं।
तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – ” बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध हुए थे, अब तुम्ही जाकर उनको शांत करो। “
तब प्रह्लाद भगवान के समीप जाकर हाथ जोड़कर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे।
बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयार्द्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेमपूर्वक बोले –
” वत्स प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसे एकांतप्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिए इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो।
भोग के द्वारा पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। “
यह कहकर भगवान नृसिंह वहीँ अंतर्ध्यान हो गए।
विष्णु पुराण में पराशर जी कहते हैं – ” भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है।
जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है।
“