भक्ति में बहुत शक्ति होती है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ देना। जुडऩे की प्रवृत्ति ही भक्ति है। दुनियादारी के रिश्तों में जुट जाना भक्ति नहीं है। भक्ति का मतलब है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में हम कहते हैं कि हमारी आत्मा परमात्मा की डोर से बंध गई। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला स’चा साधक ही भक्त है।
जिसके विचारों में शुचिता (पवित्रता) हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। नर सेवा में नारायण सेवा की अनुभूति होने लगे, ऐसी अनुभूति ही स’ची भक्ति कहलाती है। भक्त के लिए समस्त सृष्टि प्रभुमय होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पवित्र, दक्ष और पक्षपातरहित है, वह सुखों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है, परंतु अफसोस यह कि इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। (श्रीमद्भा० ७। ५। २३)
श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण ने नवधा भक्ति के बारे में बताया। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार नौ प्रकार से ईश्वर की आराधना कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति इन नौ में से किसी भी एक प्रकार की भक्ति को अपने जीवन में हमेशा के लिए अपना लेता है तो मात्र इससे ही वो प्रभु के बैकुण्ठ धाम की प्राप्ति कर सकता है। यह नौ उपाय अत्यंत सरल और कारगर है। शास्त्रों में ऐसा बताया जाता है कि मनुष्य जन्म का एकमात्र लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति करना है। ऐसे में नवधा भक्ति के बहुत सरल भावों को अपनाकर आप भी भगवत्तप्राप्ति कर सकते है। आइए जानते है नवधा भक्ति के नौ भाव-
श्रवण
भगवान के चरित्र, लीला, महिमा, गुण, नाम तथा उनके प्रेम एवं प्रभावों की बातों का श्रद्धापूर्वक सदा सुनना और उसी के अनुसार आचरण करने की चेष्टा करना, श्रवण भक्ति है। श्रवण का अर्थ सुनना होता है इस प्रकार की भक्ति में भक्त सुनकर ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को बढ़ाता है।
कीर्तन
भगवान की लीला, कीर्ति, शक्ति, महिमा, चरित्र, गुण, नाम आदि का प्रेमपूर्वक करना कीर्तन भक्ति है। श्रीनारद, व्यास, वालमीकि, शुकदेव, चैतन्य महाप्रभु आदि इसी श्रेणी के भक्त माने जाते है। ऐसी मान्यता है कि कीर्तन के समय भक्त प्रभु के सबसे निकट होता है। इस कीर्तन भक्ति में प्रभु के भजन को गाकर भक्त अपने भावों को दृढ़ करता है।
स्मरण
सदा अन्नय भाव से भगवान के गुण प्रभाव सहित उनके स्वरूप का चिन्तन करना और बारम्बार उनपर मुग्ध होना स्मरण भक्ति है। स्मरण का अर्थ याद करना है। थोड़े-थोड़े समय बाद प्रभु को याद करते रहना इस भक्ति में आता है। प्रहलाद, धुव्र, भरत, भीष्म, गोपियां आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
चरणसेवन
भगवान के जिस रूप की उपासना करते हो, उसी का चरण सेवन करना या सब में ईश्वर को देखकर उन्हें प्रणाम करना। इस भक्ति में भगवान के चरणों की आराधना का महत्व है।
पूजन
अपनी रुचि के अनुसार भगवान की किसी मूर्ति या मानसिक स्वरूप का नित्य भक्तिपूर्वक पूजन करना। नित्य दीप प्रज्जवलित कर भगवान की आरती व पूजा करना इस भक्ति के अंतर्गत आता है। राजा पृथु, अम्बरीष आदि इसी श्रेणी के भक्त है।
वन्दन
ईश्वर या समस्त जग को ईश्वर का स्वरूप समझकर वन्दन करना वन्दन भक्ति है। जब भी ईश्वर के किसी भी स्वरूप के दर्शन हो तो वन्दन करने से इस प्रकार की भक्ति बढ़ती है। अक्रूर वन्दन भक्त है।
दास्य
ईश्वर को अपना मालिक मन से स्वीकार कर स्वयं को उनका दास मान लेना दास्य भक्ति है। ईश्वर की सेवा कर प्रसन्न होना। भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना दास्य भक्ति कहलाता है। हनुमानजी और लक्ष्मण जी दास्य भाव के भक्त है।
सख्य
भगवान को अपना परम हितकारी मानकर उन्हें अपना दोस्त मान लेना सख्य भाव की भक्ति है। यह अत्यंत सरल भक्ति है। जिस प्रकार अपने दोस्त के साथ संबंध होते है ठीक उसी प्रकार ईश्वर को अपना मित्र मानना। अर्जुन, उद्धव, सुदामा इस श्रेणी के भक्त है।
आत्मनिवेदन या समर्पण
अंहकार रहित होकर अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पण कर देना। स्वयं को ईश्वर को मन से सौप देना आत्मनिवेदन या समर्पण भक्ति कहलाता है। महाराज बलि, गोपियां आदि इसी श्रेणी के भक्त है।