प्रसंग द्वैत वन का है। चित्रसेन गंधर्व के बन्धन से राजा दुर्योधन को छुडाकर युधिष्ठिर पुनः द्वैत वन लौट गए। वहां एक ब्राह्मण घबराया हुआ पहुंचा और युधिष्ठिर से बोला, “राजन! मेरा तो बुरा हाल हुआ, अरणियां-सहित मैंने अपना बर्तन एक पेड़ पर टांग रखा था। एक हिरण आया और उसे लेकर भाग गया। हाय! अब मैं अग्नि कैसे जलाऊंगा? तुम और तुम्हारे चारों भाई जाकर उसे खोजो और मेरा अरणियों का बर्तन मुझे ला दो।
ब्राह्मण के आग्रह पर पाण्डव उस हिरण को ढूंढ़ने निकल पड़े। पर उसका कहीं भी पता न चला। थके हुए खिन्न पांडव एक वट वृक्ष की ठंडी छाया में जा बैठे। युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई नकुल से कहा, “देखो, पास में कहीं पानी हो, तो तुर्णो में भरकर प्यास बुझाने के लिए यहां लाओ।”
समीप ही एक कुण्ड था। नकुल वहां पहुंचा। ज्यों ही उसने वहां का पानी पीना चाहा, समीप के एक वृक्ष से कोई बोला, “खबरदार! ऐसा दुस्साहस न करना। इस कुण्ड पर पहले से ही मेरा अधिकार है। माद्री-पुत्र! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, तभी इसका पानी पी सकोगे।”
वह यक्ष था। उसकी इस बात पर नकुल ने ध्यान नहीं दिया।
वह प्यास के मारे व्याकुल था। जैसे ही उसने सरोवर का जल पिया, वह गिर पड़ा और उसके प्राण छूट गए। इसी प्रकार सहदेव, अर्जुन और भीम एक-एक करके सभी का यही हाल हुआ।
यधिष्ठिर ने भाइयों को मृत देखकर बहुत विलाप किया। उन्होंने भी ज्यों ही वहां का पानी पीना चाहा, वही आवाज सुनाई दी,
“युधिष्ठिर! मेरे प्रश्नों का देकर ही तुम इस पानी को हाथ लगा सकते हो।”
“पूछो, यथामति मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दूंगा।” युधिष्ठिर ने कहा
यक्ष-“धर्म का एकमात्र साधन क्या है?
किस एक ही उपाय से यश प्राप्त होता है?
स्वर्ग-प्राप्ति का एकमात्र साधन क्या है?
कौन-सा ऐसा एक ही उपाय है, जिससे सुख लाभ हो सकता है,
युधिष्ठिर –“दक्षता धर्म का एकमात्र साधन है।
यश-लाभ का एकमात्र उपाय दान है।
स्वर्ग केवल सत्य से ही प्राप्त होता है।
एक शील ही सुख का मूल है।”
यक्ष-“मनुष्य की आत्मा कौन है? कौन उसका भाग्य द्वारा प्राप्त मित्र है?”
युधिष्ठिर -“मनुष्य की आत्मा उसका पुत्र है। मित्र उसकी भार्या है, जो भाग्य से ही मिलती है।”
यक्ष-“सर्वोत्तम लाभ क्या है? सर्वोत्तम सुख क्या है?”
युधिष्ठिर-“आरोग्य सर्वोत्तम लाभ है।
सन्तोष ही सबसे ऊंचा सुख है।”
यक्ष-‘संसार में धर्म से बढ़कर और क्या है ?
वह कौन-सा धर्म है, जो सदा फल देता है ?
वह क्या है, जिसका नियंत्रण करके शोक नहीं होता?
वे कौन हैं, जिनके साथ की गई मित्रता कभी जीर्ण नहीं होती?”
युधिष्ठिर-“उदारता धर्म से भी बढ़कर है।
सदा फल देने वाला वैदिक धर्म है।
वह मन है, जिसका नियंत्रण करके शोक नहीं होता।
सज्जनों की मित्रता कभी जीर्ण नहीं होती।”
यक्ष-“किसे त्यागकर मनुष्य प्रिय हो जाता है?
किस वस्तु के त्याग से उसे शोक नहीं होता?
वह क्या है, जिसे त्यागकर मनुष्य सम्पत्तिशाली हो जाता है?
किसे त्यागने से वह सुखी हो सकता है?”
युधिष्ठिर -“अहंकार का त्याग करने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है।
क्रोध के त्याग से उसे शोक नहीं होता।
काम का त्याग करके वह सम्पत्तिशाली बनता है।
और लोभ के त्याग से वह सुखी होता है।”
यक्ष-“तप का क्या लक्षण है?
दम किसे कहते हैं?
सबसे बड़ी क्षमा क्या है?
और लज्जा की भावना क्या है?”
युधिष्ठिर -“स्वधर्म का परिपालन ही धर्म है।
दम, मन का दमन, अर्थात निग्रह ही है। (शीत, उष्ण, सुख-दुख आदि) द्वन्द्वों का सहना ही सबसे बडी क्षमा के न करने योग्य कर्म से मुंह मोड़ लेना ही लज्जा की भावना है।”
यक्ष-“सबसे बड़ी दया क्या है?
और आर्जव अर्थात सरलता किसे कहते हैं?”
युधिष्ठिर– “सबके सुख की इच्छा ही सबसे बड़ी दया है।
समचित्तता को ही आर्जव कहते हैं।”
यक्ष-“मनुष्यों का दुर्जय शत्रु कौन-सा है?
ऐसी कौन-सी व्याधि है,
जिसका अन्त ही नहीं? साधु किसे कहा जाए?
और असाधु किसे कहते हैं?”
युधिष्ठिर –“मनुष्यों का दुर्जय शत्रु क्रोध है।
लोभ ऐसी व्याधि है, जिसका कोई अन्त नहीं।
साधु वह है, जो सब प्राणियों का भला चाहता है।
और निर्दयी ही असाधु है।”
यक्ष-“सबसे बड़ा स्नान क्या है?
और सबसे बड़ा दान किसे कहा जाए?”
युधिष्ठिर -“मनोविकारों का त्याग ही सबसे बड़ा स्नान है।
प्राणियों की रक्षा ही महान दान है।”
यक्ष-“मेरा अन्तिम प्रश्न यह है, जिसका उत्तर पाने से तुम्हारे भाई जीवित हो जाएंगे।
इस जगत में आश्चर्य क्या है?”
उत्तर-“दिन-प्रतिदिन प्राणी यमलोक को जा रहे हैं । यह देखते हुए भी शेष प्राणी चाहते हैं कि वे अनन्तकाल तक जीवित रहें ! इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है?”
यक्ष को युधिष्ठिर के इन उत्तरों से पूरा सन्तोष हो गया और उसने चारों पांडवों को जीवित कर दिया।