शकुंतला और दुष्यंत की प्रेम कथा -महाराज दुष्यंत एक दिन आखेट करने के लिए वन में गए। वहां एक मृग का पीछा करते हुए महर्षि कण्व के आश्रम के निकट जा पहुंचे। दुष्यंत थके हुए थे। उन्हें प्यास भी लगी हुई थी, अतः उन्होंने अपने घोड़े को आश्रम की ओर मोड़ दिया।
आश्रम में पहुंचे तो महर्षि के शिष्यों ने उनका भावभीना स्वागत किया। उन्हें सम्मानपूर्वक बैठाया, तभी दुष्यंत की निगाह वल्कल पहने सखियों के साथ लताओं को सींचती हुई शकुंतला पर पड़ी। उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर दुष्यंत मुग्ध हो उठे।
अतिथि को आश्रम में आया देखकर शकुंतला ने पौधों को सींचना बंद कर दिया। वह एक पात्र में जल भरकर लाई और राजा के समीप आकर विनयपूर्वक बोली-‘यह पाद-प्रक्षालन के लिए जल और ये कुछ कंद और फल हैं। कृपया आचमन करके इन्हें स्वीकार करें। मेरे पिता महर्षि कण्व तो इस समय आश्रम में नहीं हैं। किसी ग्रहशांति के लिए वे सोमतीर्थ गए हैं।’
राजा दुष्यंत ने आतिथ्य ग्रहण किया, तदुपरांत उन्होंने कहा-‘देवी! वैसे पुरुवंशियों का चित्त अधर्म की ओर कभी प्रवृत्त नहीं होता, पर न जाने क्यों तुम्हें देखकर मेरा मन विचलित हो रहा है। तुम-मुनि कन्या तो नहीं जान पड़तीं, फिर तुम कौन हो? कृपया अपना परिचय दो?’
आपने ठीक समझा है, राजन!’ शकुंतला बोली-‘मैं महर्षि विश्वामित्र की पुत्री हं। मेरी माता मेनका ने उत्पन्न होते ही मेरा त्याग कर दिया था। नदी किनारे शकत पक्षी मेरे ऊपर छाया करके मुझे घेरे हुए थे। संयोगवश उसी समय महर्षि कण्व उधर से गुजरे। उन्होंने मुझे देखा तो दया करके उठा लाए।
उन पक्षियों के कारण ही मेरा नाम शकुंतला रखा गया। महर्षि ने बड़े स्नेह से मेरा लालन-पालन किया। अब मैं उन्हीं को अपना पिता मानती हूं।’ शकुंतला ने अपना परिचय दिया। सनकर महाराज दुष्यंत आश्चर्य से उसका चेहरा देखने लगे। शकुंतला ने आगे कहा-‘आप हमारे अतिथि हैं। बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?’
‘शकंतला, तुम राजर्षि के कुल में उत्पन्न हुई हो।’ महाराज दुष्यंत बोले-‘मेरा मन तुम्हें देखकर तुम्हारी ओर आकर्षित हो गया है। मुझे स्वीकार करो और मेरे विशाल साम्राज्य की महारानी बनो।’ दुष्यंत ने मधुर स्वर में अनुनय की।
‘महाराज! मैं स्वाधीन नहीं हूं। मेरे पिता को आने दीजिए। आप उनसे ही यह प्रार्थना कीजिए।’ शकुंतला ने लजाते हुए कहा।
‘राजकन्याएं स्वयं ही अपने पति का चयन किया करती हैं। महर्षि कण्व मेरे इस विचार से असंतुष्ट नहीं होंगे।’ दुष्यंत प्रतीक्षा करने को तैयार न थे।
शकुंतला का हृदय भी दुष्यंत की ओर आकर्षित हो चुका था और जिसे हृदय दिया जा चुका हो, वह तो उसका हो ही गया, उसकी हर आज्ञा का पालन करना चाहिए। ऐसा सोचकर शकुंतला ने राजा का अनुरोध स्वीकार कर लिया।
राजा ने उसी समय शकुंतला से गंधर्व-रीति से विवाह कर लिया। फिर कुछ दिन आश्रम में रहकर और शकुंतला को अपनी मुद्रिका देकर तथा शीघ्र ही उससे विधिवत विवाह करके राजमहल में बुलाने का वचन देकर वह अपने नगर को चले गए।
एक दिन शकुंतला अपने पति के ध्यान में निमग्न बैठी हुई थी, तभी महर्षि दुर्वासा वहां पहुंच गए। शकुंतला को उनके आगमन का पता ही नहीं चला। शकुंतला के ऐसे व्यवहार पर मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने उसे शाप दे दिया कि जिसके ध्यान में तू मेरे स्वागत-सत्कार को भी नहीं उठी, वह तुझे भूल जाएगा। सखियों ने शाप सुना। उन्होंने ऋषि से मनुहार की, उनका उचित स्वागत-सत्कार किया, तो किसी प्रकार से दुर्वासा मान गए। उन्होंने शाप का परिहार किया कि किसी चिह्न के दिखलाने पर महाराज को शकुंतला का स्मरण हो जाएगा। शकुंतला इस घटना से अनभिज्ञ ही रही।
कुछ दिन के बाद महर्षि कण्व अपने आश्रम में लौटे। उन्हें शकुंतला की सखियों से शकुंतला और राजा दुष्यंत के विषय में सब कुछ ज्ञात हुआ। इससे उन्हें प्रसन्नता हुई। उन्होंने विवाहिता कन्या को अपने आश्रम में रखना उचित नहीं समझा। उनका अनुमान था कि महाराज अपनी राजकीय व्यवस्थाओं में फंसकर शकुंतला के विषय में भूल गए हैं, तब उन्होंने अपने दो शिष्यों के साथ शकुंतला को राजा के पास भेजा। दोनों शिष्य शकुंतला को लेकर राजधानी में पहुंचे। राजदरबार में उन्होंने महाराज दुष्यंत से साक्षात्कार किया और राजा को आशीर्वाद देकर अपने आने का उद्देश्य बताया।
महर्षि कण्व के शिष्यों ने कहा-‘राजन! महर्षि कण्व ने आपकी मंगल कामना की है। उन्होंने कहा है कि मेरी पुत्री शकुंतला, जिसके साथ आपने आश्रम में गंधर्व-विधि के साथ विवाह किया था, मैं उसे आपके पास भेज रहा हूं। ऋषि ने यह भी कहा है कि राजकार्यों की व्यस्तता के कारण आपका उसे भूल जाना अस्वाभाविक नहीं।
अब आप अपनी धर्मपत्नी को स्वीकार करें और हमें आश्रम लौटने की आज्ञा दें।’
मुझे तो कुछ भी स्मरण नहीं है कि मैंने कभी किसी आश्रम की कन्या के साथ विवाह किया था।’ शिष्यों की बात सुनकर राजा दुष्यंत आश्चर्य से बोले-‘आप लोग क्या कह रहे हैं, मेरी समझ में कुछ नहीं आता।’ दुर्वासा के शाप के कारण राजा दुष्यंत सब कुछ भूल गए थे।
‘राजन! तब क्या आपने मुझे भ्रष्ट करने के लिए ही वे मुधर बातें की थीं? एक नरेश होकर भी एक कन्या का सतीत्व भंग कर उसके साथ गंधर्व-विधि से विवाह करके आप अपने वचन से मुकर रहे हैं। ऐसा कहते हुए आपको लज्जा भी नहीं आई। और पुत्र अपने पिता, पितामह को नरक से मुक्त करता है और मैं आपके द्वारा ही गर्भ से हूं। आप अब इस प्रकार के निष्ठुर वचन क्यों बोल रहे हैं?’ शकुंतला पर महाराज के वचनों से जैसे वज्रपात हुआ था। किसी प्रकार धैर्य धारण करके उसने रोते हुए कहा।
तुम व्यर्थ ही मुझे कलंकित कर रही हो। मुझे स्मरण तक नहीं कि मैंने तुम्हें पहले कभी देखा भी है। महारानी बनने के लोभ में यदि तुम ऐसा कर रही हो, तो यह सब व्यर्थ है। पुरुवंशी पराई स्त्री की तरफ कभी भूलकर भी नहीं देखते।’ महाराज ने कठोरतापूर्वक उत्तर दिया।
आपने अपने प्रेम के चिह्न स्वरूप मुझे यह मुद्रिका दी थी। कहते हुए शकुंतला ने अपनी उंगली से मुद्रिका उतारनी चाही, लेकिन यह जानकर वह सन्न रह गई कि उसकी उंगली में राजा की दी हुई अंगूठी नहीं थी। मार्ग में गंगा में आचमन करते समय वह न जाने किस तरह उसकी उंगली से निकल गई थी।
‘चुप क्यों हो गईं, दिखाओ न वह अंगूठी!’ राजा ने व्यंग्य से कहा। ‘व…वह तो कहीं गिर गई। शकुंतला मुश्किल से कह पाई।
‘स्वार्थ सिद्धि के लिए कुलटा स्त्रियां ही ऐसी बातें गढ़ा करती हैं।’ राजा ने कटाक्ष किया।
शकुंतला ने अनेक प्रकार से प्रार्थना की, रोई, गिड़गिड़ाई, परंतु कोई लाभ न हुआ। दुष्यंत उसे किसी भी प्रकार स्वीकार करने को तैयार न हुए। ऋषि के जिन शिष्यों के साथ शकुंतला आई थी, वे यह सोचकर कि यदि महाराज उचित कहते हैं, तो शकुंतला त्याज्य है और यदि शकुंतला सत्य कहती है तो अनेक अपमान सहकर भी नारी को पति-गृह में ही रहना चाहिए, उसे छोड़कर चले गए।
शकुंतला का दिल टूट गया। वह भूमि पर बैठकर दोनों हाथों से अपना चेहरा ढककर सिसकियां भर-भरकर रोने लगी। राजपुरोहित को उसकी दशा देखकर उस पर दया आ गई। उसने महाराज से कहा-‘देव! यह स्त्री गर्भिणी है। इसे ऐसी हालत में बेसहारा नहीं छोड़ा जा सकता। यदि आदेश हो तो मैं इसे अपने घर ले जा
राजा ने उसे ऐसा करने की आज्ञा दे दी।
राजपुरोहित शकुंतला को साथ लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा, लेकिन तभी मार्ग में एक चमत्कार हुआ। अचानक आकाश में बिजली-सी चमकी और शकंतला की माता अप्सरा मेनका शकुंतला को लेकर बादलों में विलीन हो गई।
राजा दुष्यंत की दी हुई अंगूठी शकुंतला से गंगा में आचमन करते समय गिर गई थी। वह अंगूठी शिकार समझकर एक मछली निगल गई। कुछ समय बाद जब मछुआरों ने नदी के जल में अपने जाल डाले तो उनमें से एक मछुआरे के जाल में वह मछली फंस गई। शाम के समय जब मछुआरे की पत्नी ने भोजन बनाने के लिए मछली को चीरा, तो वह अंगूठी उसके पेट से बाहर आ गई। मछुआरे की पत्नी ने अपने पति को वह अंगूठी दिखाई, तो वह अंगूठी बेचने के लिए हस्तिनापुर के बाजार में एक जौहरी के पास पहुंचा।
अंगूठी पर राजकीय चिह्न देखकर जौहारी ने मछुआरे को राजा के सैनिकों के हवाले कर दिया। राजा के सैनिक उस मछुआरे को पकड़कर राजा के सामने ले गए। राजा ने अपनी अंगूठी तुरंत पहचान ली। अंगूठी को देखकर उसके शाप का प्रभाव भी दूर हो गया। तब महाराज ने पुरस्कार देकर उस मछुआरे को छोड़ दिया और अंगूठी अपने पास रख ली। अब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ। शकुंतला के विरह में वे चिंतित रहने लगे। उन्होंने उस साध्वी का भरी सभा में जो अपमान किया था, वह उन्हें अत्यंत पीड़ा देने लगा।
इसी बीच देवों और असुरों में युद्ध छिड़ गया। देवराज इंद्र ने अपने सारथि मातलि को भेजकर सहायता के लिए महाराज दुष्यंत को बुलाया।
देवरथ में बैठकर महाराज दुष्यंत देवलोक गए। वहां उन्होंने युद्ध में अपने अद्भुत पराक्रम से असुरों को पराजित कर दिया। पराजित असुर भागकर पाताल में पहुंच गए।
युद्ध जीतने के बाद महाराज दुष्यंत को रथ में बैठाकर मातलि उन्हें हस्तिनापुर पहंचाने के लिए चल पड़ा। मार्ग में महर्षि मारीच के दर्शन करने के लिए महाराज दुष्यंत हेमकूट पर्वत के शिखर पर उतरे। उस समय महर्षि अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे, इसलिए महाराज दुष्यंत को उनके दर्शन करने के लिए थोड़ी-सी प्रतीक्षा करनी पड़ी।
तभी उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा। एक सुंदर तेजस्वी बालक एक सिंह-शावक का मुंह खोलने का प्रयास करते हुए कह रहा था- ‘अरे, अपना मुंह खोल । मैं तेरे दांत गिनूंगा।’ बालक के सामने सिंह-शावक भीगी बिल्ली जैसा बना बैठा था।
तू क्यों गुर्राती है? चुप रह, नहीं तो तेरा सिर फोड़ दूंगा।’ बच्चे के मोह में सिंहनी गुर्राती हुई समीप आई तो बालक ने एक सूखी लकड़ी लेकर उसे डांटा। बालक की डांट सुनकर सिंहनी भयभीत होकर पीछे हट गई।
‘अरे सर्वदमन ! छोड़ दे इस सिंह के बच्चे को। तू बड़ा चंचल हो गया है। क्यों सताता है उसे?’ एक तपस्विनी ने वहां पहुंचकर बालक को डांटा।
‘मैं इसके दांत गिनना चाहता हूं, किंतु यह अपना मुख ही नहीं खोल रहा।’ बालक अपनी ही धुन में था।
‘अरे देख, तेरा शकुंत गिर गया। उसे उठा ले आकर।’ तपस्विनी ने बालक को लालच दिया।
‘मां शकुंतला कहां हैं?’ बालक ने सिंह-शावक को छोड़ दिया और तपस्विनी के साथ चल पड़ा। महाराज ने देख लिया था कि बालक में महापुरुषों के लक्षण हैं। उसकी माता का नाम सुनकर वे चौंके।
सिंह-शावक के पास बालक की बांह में बंधा एक तावीज खुलकर नीचे गिर गया था। राजा ने उसे उठाना चाहा तो तपस्विनी चिल्ला उठी-‘कृपया इस तावीज को हाथ मत लगाइए।’ लेकिन तब तक राजा उस तावीज को उठाकर हाथ में ले । चुके थे। उन्होंने हंसते हुए तपस्विनी से पूछा-‘मैं इसे क्यों नहीं छू सकता?’
‘मारीच ऋषि ने सिद्ध करके यह तावीज इस बालक की बांह में बांधा था, जिससे कि बालक पर कोई संकट न आए। बालक के माता-पिता ही इसे छू सकते हैं।’ तपस्विनी ने बताया।
‘और यदि कोई दूसरा व्यक्ति इसे छू ले तब?’ राजा ने पूछा। ‘तब यह सांप बनकर छूने वाले को डस लेता है।’
राजा मुस्कराए। उन्होंने बालक को उठाकर अपनी गोद में ले लिया और प्यार से उसे दुलारते हुए–’मेरा बेटा…मेरा बेटा। कहने लगे।
‘मुझे बेटा मत कहो। मेरे पिता तो महाराज दुष्यंत हैं, तुम नहीं।’
‘पुत्र! मुझे अपनी माता शकुंतला के पास ले चलो।’ महाराज बोले- ‘वे तुम्हें बताएंगी कि मैं कौन हूं!’
बालक दुष्यंत को लेकर अपनी माता के पास पहुंचा और बोला-‘मां! कोई आया है और मुझे बार-बार पुत्र कहता है। तुमसे मिलना चाहता है।’
दुष्यंत को देखते ही शकुंतला का चेहरा हर्ष से खिल उठा। उसके मुख से निकला-‘स्वामी आप! इतने दिनों के बाद आखिर आपको मुझ अभागी की याद आ ही गई।
शकुंतला ने झुककर राजा के पांव छुए। राजा ने झुककर उसे उठाया और बड़े प्रेम से उसके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा-‘प्रिये शकुंतला! मुझे क्षमा कर दो। उस समय मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था। जब अंगूठी मिली तब सब कुछ याद आ गया।
‘मां, ये कौन हैं?’ एकाएक बालक ने माता से प्रश्न किया। ‘बेटा! ये तुम्हारे पिता हैं, महाराज दुष्यंत। शकुंतला ने बताया।
महाराज बोले-‘शकुंतला! मैं तुम दोनों को इसी समय अपने राजमहल में ले जाना चाहता हूं।’
‘नहीं स्वामी! अभी नहीं।’ शकुंतला बोली- ‘पहले पिता महर्षि मारीच के पास चलना होगा। मेरी माता मेनका मुझे उन्हीं को सौंप गई थी।’
बालक माता का हाथ छुड़ाकर महर्षि की कुटिया की ओर दौड़ गया महर्षि के सामने पहुंचकर बालक में उत्तेजित स्वर में बताएं-‘मारीच पिताजी! मैं बड़ा शुभ समाचार लेकर आया हूं। मेरे पिता मुझे अपने पास ले जाने के लिए आए हैं। अब मैं सचमुच राजकुमार बनूंगा।’
‘अरे वाह! यह तो सचमुच बहुत हर्ष का समाचार है।’ महर्षि मारीच प्रमुदित भाव से बोले।
कुछ क्षण बाद दुष्यंत और शकुंतला भी महर्षि के पास पहुंच गए। दुष्यंत ने झुककर महर्षि के चरण छुए। महर्षि ने उन्हें लम्बी आयु होने का आशीर्वाद दिया। राजा ने शकुंतला और अपने बालक को ले जाने की आज्ञा मांगी तो महर्षि बोले- ‘मैं तुम्हें हर्षपूर्वक शकुंतला और बालक सर्वदमन को, जिसे हम सब प्रेम से भरत कहते हैं, ले जाने की अनुमति देता हूं।’ फिर वे शकुंतला से बोले- ‘मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं बेटी कि तुम हमेशा फूलो-फलो। अपने पति के अपराध को क्षमा कर देना बेटी, दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण ही ये तुम्हें भूल गए थे।’
फिर उन्होंने महाराज दुष्यंत से कहा-‘राजन! अपनी प्रजा के सुख के लिए हर प्रकार से प्रयत्नशील रहना। तुम्हारा पुत्र बड़ा होकर महान सम्राट बनेगा और इसी के नाम पर हमारा देश भारत कहलाएगा।
महाराज दुष्यंत अपनी पत्नी शकुंतला और पुत्र को लेकर अपनी राजधानी लौट आए और सुखपूर्वक राज्य करने लगे।