यह पौराणिक कथा महाभारत काल का एक प्रसंग है। यह बात उस समय की है जब आचार्य द्रोणाचार्य सभी राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाते थे। और सभी राजकुमार गुरु द्रोणाचार्य के साथ ही वन में रहते थे। यों तो सभी राजकुमार धनुर्विद्या में पारंगत थे पर अर्जुन उनके सबसे ज्यादा प्रतिभावान तथा गुरुभक्त शिष्य थे। इसी कारण द्रोणाचार्य भी उनसे प्रसन्न रहते थे।
दूसरी तरफ द्रोणाचार्य को अपने पुत्र अश्वत्थामा पर भी विशेष अनुराग था इसलिए अश्वत्थामा भी धनुर्विद्या में सभी राजकुमारों में अग्रणी थे, लेकिन अर्जुन अश्वत्थामा से भी अधिक प्रतिभावान थे।
एक रात की बात है, सभी शिष्य अपने गुरु के साथ भोजन कर रहे थे। तभी अचानक से तेज़ हवा चलने लगती है और दीपक बुझ जाता है। अंधकार होने के बाद भी सभी लोग भोजन करना जारी रखते हैं। तभी अर्जुन के मन में एक विचार आता है। ‘इतना अंधकार होने के बाद भी भोजन के कौर को हाथ मुँह तक ले जाता है।’
इस विचार के आते है उन्हें समझ आ जाता है की निशाना लगाने के लिये प्रकाश से अधिक आवश्यकता अभ्यास की है। और उसी दिन से अर्जुन रात्रि के अंधकार में निशाना लगाने का अभ्यास करना आरम्भ कर देते हैं। यह देख आचार्य द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न होते हैं।
एक बार आचार्य द्रोणाचार्य अपने सभी शिष्यों के साथ नदी में स्नान करने गए। जब गुरु द्रोणाचार्य स्नान करने के लिए जाने लगे तो उन्हें ज्ञात हुआ कि वो अपनी धोती लाना तो भूल ही गए हैं। उन्होंने अपने प्रिये शिष्य अर्जुन से कहा की तुम आश्रम जाओ और मेरी धोती लेकर आओ। गुरु का आदेश पाकर अर्जुन आश्रम की ओर चल दिया।
गुरु ने सोचा अभी अर्जुन को आने में तो समय लगेगा, क्यों न मैं सभी शिष्यों को मंत्रशक्ति का महत्त्व समझा दूँ। गुरु द्रोणाचार्यजी ने शिष्यों से कहा, ‘गदा एवं धनुष्य में शक्ति होती है, किन्तु मंत्र में उससे अधिक शक्ति होती है। ऐसा कहकर, गुरु द्रोणाचार्यजी ने भूमि पर एक मंत्र लिखा एवं उसी मंत्र से अभिमंत्रित एक बाण छोडा । उस एक बाण ने वृक्ष के सभी पत्तों को छेद दिया । यह देखकर, सभी शिष्य आश्चर्य में पड गए।
कुछ समय बाद अर्जुन गुरु की धोती लेकर वापस आये तो उन्होंने देखा की बृक्ष की सभी पत्तियों के छेद हैं। वो सोचने लगे की जब पहले मैंने देखा था तो ऐसा नहीं था। जरूर गुरु जी ने सभी शिष्यों को कोई रहस्य बताया होगा। यदि कोई रहस्य होगा तो उसके कुछ सूत्र भी होंगे, प्रारंभ होगा, इसके चिह्न भी होंगे। ऐसा सोच वो इधर उधर खोजने लगे।
थोड़ी ही देर में उन्हें भूमि पर लिखा हुआ एक मंत्र दिखाई दिया। वृक्षच्छेदन के सामर्थ्य से युक्त यह मंत्र अद्भुत है, यह बात उनके मन में समा गई और उन्होंने यह मंत्र पढना आरंभ किया। जब उसके मन में दृण विश्वास उत्पन्न हो गया कि यह मंत्र निश्चित रूप में सफल होगा, तब उन्होंने धनुष पर बाण चढाया और मंत्र का उच्चारण कर छोड दिया ।
तीर वटवृक्ष की सभी पत्तियों पर, पहले बने छेद के समीप दूसरा छेद बन गया। यह देखकर अर्जुन को अत्यंत आनंद हुआ । गुरु जी ने अन्य शिष्यों को जो विद्या सिखाई, वह मैं ने भी सीख गया, ऐसा विचार कर, वह गुरुदेवजी को धोती देने के लिए नदी की ओर चल पड़े।
स्नान से लौटने के बाद जब गुरु द्रोणाचार्य ने वटवृक्ष की पत्तियोंपर दूसरा छेद देखा, तो उन्होंने अपने साथ के सभी शिष्यों से प्रश्न किया ; स्नान से पहले वटवृक्ष की सभी पत्तियों पर एक छेद था । अब दूसरा छेद आप में से किसने किया ?
सभी शिष्यों ने ना में जबाब दिया।
गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की और देखकर पूछा ; क्या यह तुमने किया है ?
अर्जुन कुछ संकोच के साथ बोले ; गुरुजी मैंने आपकी आज्ञा के बिना आपके मंत्र का प्रयोग किया । क्योंकि, मुझे लगा कि आपने इन सबको यह विद्या सिखा दी है, तो आपसे इस विषय में पूछकर आपका समय न गंवाकर अपने आप सीख लूं । गुरुदेवजी, मुझसे चूक हुई हो, तो क्षमा कीजिएगा।
अर्जुन की यह बात सुनकर द्रोणाचार्य बहुत ही प्रसन्न हुए और बोले, ” हे अर्जुन तुमने धैर्य दिखाकर एवं प्रयत्न कर उत्तीर्ण हो गए । तू मेरा सर्वोत्तम शिष्य है। तुमसे श्रेष्ठ धनुर्धर होना असंभव है ।
Pauranik Katha Se Shiksha – प्रत्येक शिष्य को सीखने के प्रति जिज्ञासू और जागरूक होना चाहिए कि गुरु का अंतःकरण अभिमान से भर जाए