राजर्षि अश्वपति कैकय देश के अधिपति थे। वे बड़े ज्ञानी और वैश्य विद्या के उपासक थे। उनके राज्य में बड़ी शान्ति थी। प्रजा अपने सम्राट का सम्मान करती थी। 

उन्हीं दिनों पांच विद्वान ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास कर रहे थे। प्राचीनशाल,सत्ययज, इन्द्रद्युम्न, जन और बुडिल नाम के उन पांच गृहस्थ वेदों ने यह कि किया कि आरुणि उद्दालक के पास चलें और उनसे वैश्वानर-विद्या सीखें। 

वे उद्दालक के पास पहुंचे, किन्तु उद्दालक स्वयं भी ब्रह्म विद्या नहीं जानते  थे। 

तब उन्होंने सोचा कि मैं इस विद्या का पूर्णत: ज्ञान नहीं रखता और न कर ही सकता है, इसलिए इस विद्या में प्रवीण विद्वान अश्वपति के पास चलना चाहिए। 

अत: आरुणि आदि सब मिलकर अश्वपति के पास गए। राजा ने पृथक पृथक सबकी पूजा की और बड़ी श्रद्धा-भक्ति से उनका स्वागत-सत्कार किया। वे लोग बड़े आनन्द से वहां ठहर गए। दूसरे दिन प्रात:काल आकर अश्वपति ने उन ऋषियों से प्रार्थना की कि मैं एक यज्ञ करना चाहता हूं, आप लोग मेरे ऋत्विक बनकर यहां रहें और उतनी ही दक्षिणा आप लोग पृथक-पृथक होकर ग्रहण करें। 

वे लोग यज्ञ कराने या दक्षिणा लेने के लिए नहीं आए थे। उनके आने का उद्देश्य तो वैश्वानरोपासना का ज्ञान प्राप्त करना था। यदि वे इस पौरोहित्य और दक्षिणा के प्रलोभन में पड़कर अपना उद्देश्य भूल जाते तो उन्हें वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि कैसे होती? उन्होंने इस बात को विघ्न समझकर अस्वीकार कर दिया। 

अश्वपति ने सोचा कि राजा का स्थान बड़ा ही विषम है, सम्भव है, मेरे राज्य में बड़े बड़े पाप होते हों। प्रजा के पापों का भागी राजा ही तो होता है-ऐसा सोचकर ही इन लोगों ने मेरे यज्ञ में दक्षिणा ग्रहण करना अस्वीकार कर दिया है। अत: उनके मन से यह शंका दूर कर देने के लिए उन्होंने अपनी सफाई पेश की। वे बोले 

“मेरे राज्य में न चोर है, न लोभी है, न शराबी है, न यशहीन है, न मूर्ख है और न व्यभिचारी या व्यभिचारिणी ही है। इसलिए आप लोग यजमान बनना स्वीकार करें।” 

उन लोगों ने कहा-“राजन ! मनुष्य जिन उद्देश्यों को लेकर कहीं जाता है उन्हीं की पूर्णता चाहता है। हम लोग इस समय धन या सम्मान के लिए नहीं आए हैं. हम तो वैश्वानर उपासना ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए आप कृपा करके उसी का वर्णन करें।” 

यह सुनकर राजा ने कहा-“कल प्रात:काल मैं इस विद्या का वर्णन करूंगा।” दूसरे दिन प्रातःकाल ही वे सब हाथ में समिधा (हवन सामग्री) लेकर बड़ी नम्रता के साथ राजा के पास उपस्थित हुए और राजा ने एक-एक करके सबकी उपासना पूछो। सबने अपनी-अपनी की हुई उपासना का वर्णन किया। सबकी एकाकी उपासना सुनकर अश्वपति ने बतलाया कि ‘ब्रह्म विद्या के एक-एक अंग की उपासना करने के कारण ही आप लोग प्रजा, पशु, धन आदि सांसारिक सम्पत्तियों से युक्त हैं।

परन्तु इस अधूरी उपासना के कारण आप लोगों का बड़ा अनिष्ट हो सकता था। बड़ा अच्छा हुआ, आप लोग मेरे पास आ गए।’ आप लोगों को वैश्वानर-आत्मा की पृथक-पृथक उपासना नहीं करनी चाहिए, वह तो सारे लोकों में, सारे प्राणियों में और सारी आत्माओं में भोक्ता के रूप में विद्यमान है। वही सब कुछ है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। इसके पश्चात राजा ने नित्य अग्निहोत्र अथवा प्रतिदिन की वैश्वानर-पूजा पद्धति उन्हें बतलाई। 

उन्होंने कहा-“वैश्वानर आत्मा को जानने वाला जो पुरुष प्रतिदिन भोजन के समय जो अन्न प्राप्त हो उसके पांच ग्रास लेकर ‘ॐ प्राणाय स्वाहा’, ‘ॐ व्यानाय स्वाहा’, ‘ॐ अपानाय स्वाहा’, ‘ॐ समानाय स्वाहा’, ‘ॐ उदानाय स्वाहा’, इन मन्त्रों से पांच आहुतियां देकर अपने उदरस्थ वैश्वानर का अग्निहोत्र करता है, वह सारे लोकों, सम्पूर्ण प्राणियों और समस्त आत्माओं को तृप्त करता है।

जैसे मूंज की रुई आग लगते ही भस्म हो जाती है, वैसे ही इस उपासना को करने वालों के समस्त पाप जल जाते हैं। जैसे भूखे बच्चे अपनी माता की प्रतीक्षा किया करते हैं, वैसे ही संसार के समस्त प्राणी इस नित्य अग्निहोत्र की प्रतीक्षा किया करते हैं और इन आहुतियों को पाकर सन्तुष्ट होते हैं।” 

इस प्रकार अश्वपति से ज्ञानदक्षिणा प्राप्त करके वे लोग लौट गए और महाराज अश्वपति पूर्ववत ज्ञान में स्थित होकर प्रजापालन करने लगे। 

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