प्राचीन काल की बात है। नैमिषारण्य क्षेत्र में देवताओं का एक महान यज्ञ चल रहा था। यमराज ने यज्ञ में दीक्षा ले ली थी, इसलिए वे यज्ञीय पशुओं के अतिरिक्त और किसी का वध नहीं करते थे। इससे मर्त्य-लोक के प्राणियों की मृत्यु का समय बीतने लगा और वे अमर सरीखे हो गये। पृथ्वी पर प्रजा की संख्या बहुत बढ़ गयी। इससे देवताओं को बड़ी चिंता हुई। वे सोचने लगे कि पृथ्वी इतना भार कैसे सह सकेगी। पृथ्वी भी तो देवी ही है। देवी के भार से देवताओं को चिंता होनी ही चाहिए। उनके मन में यह बात भी आयी कि पृथ्वी के प्राणियों से हम इसी अर्थ में अच्छे हैं कि वे मर जाते हैं और हम नहीं मरते। यदि वे भी नहीं मरेंगे तो हममें और उनमें अंतर ही क्या रहेगा। इसका कुछ न कुछ उपाय निकालना चाहिए।इन्द्र, वरुण, कुवेर, चन्द्रमा, रुद्र, वसु, अश्विनी कुमार आदि सब मिलकर श्री ब्रह्मा जी के पास गये।उन्होंने ब्रह्मा जी के चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया — ‘दादाजी ! इस समय हम सब बड़े भयभीत हैं; इसका कारण यह है कि आजकल मनुष्यों की संख्या बहुत बढ़ रही है और उसके घटने का कोई उपाय नहीं हो रहा है। हमारी व्याकुलता बढ़ रही है। इस दुख से स्वर्ग में रहने पर भी हमें सुख के दर्शन नहीं हो रहे हैं, सुख-शान्ति पाने के लिए हम आपकी शरण में आये हैं।’

ब्रह्मा ने कहा — ‘देवताओ ! तुम लोग स्वर्ग में रहते हो, तुम्हारे पास भोग की सब सामग्री है। बुढ़ापा और मृत्यु का तुम्हें डर नहीं है, तुम्हें कामना है नहीं; फिर मर्त्य-लोक में रहने वाले बेचारे मनुष्यों से तुम क्यों भयभीत होते हो? तुम्हें मनुष्यों से डरने का कोई कारण नहीं है।’

देवताओं ने अञजलि बाँध कर प्रार्थना की —–‘प्रभो ! आजकल किसी की मृत्यु नहीं हो रही है इससे मृत्यु लोक के मनुष्य भी अमर हो गये हैं। मर्त्यलोक के मनुष्य हमारी बराबरी करें —यह हमसे देखा नहीं जाता, हमें इस बात का बड़ा दुख है। अब आप कोई ऐसी व्यवस्था कीजिए कि हममें और उनमें अंतर मालूम पड़े; इसीलिए हम सब आपके पास आये हैं ‘।

ब्रह्मा जी ने कहा —-‘इस समय सूर्यपुत्र यमराज महायज्ञ में लगे हुए हैं, इसी से पृथ्वी के प्राणियों की मृत्यु नहीं हो रही है। जब वे अपना सब काम पूरा कर लेंगे, तब लोगों की मृत्यु होगी । तुम लोगों की शक्ति से शक्तिमान् होकर यमराज मर्त्यलोक के प्राणियों का संहार करेंगे। तब मनुष्य तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकेंगे।’ ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर देवता लोग उसी स्थान पर गये, जहाँ यज्ञ हो रहा था।

एक दिन सब लोग नदी के तट पर बैठे हुए थे। उन्होंने देखा कि धारा में एक बड़ा ही सुंदर सोने का कमल बहा जा रहा है। उसे देखकर उन लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। देवताओं में सबसे श्रेष्ठ देवराज इन्द्र वहाँ उपस्थित थे। उनके मन में उस पुष्प का ठीक ठीक समाचार जानने की उत्सुकता हुई। वे चल पड़े, आगे जाने पर उन्होंने देखा कि जहाँ से नदी निकली है, वहाँ एक बड़ी ही तेजस्विनी स्त्री नदी के भीतर खड़ी होकर जल भर रही है। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। आँसू की जो बूँद नदी में गिरती, वही सोने का कमल हो जाता। इन्द्र उसके पास गये। उन्होने पूछा —– ‘कल्याणी ! तुम कौन हो? किसलिए रो रही हो? अपनी सब बात मुझसे कहो।’
उस स्त्री ने इन्द्र की ओर देख कर कहा —-‘देवराज ! तुम तनिक मेरे साथ आगे चले आओ, तुम्हें मालूम हो जायगा कि मैं कौन हूँ और क्यों रो रही हूँ ।’ इन्द्र उसके पीछे पीछे चलने लगे ।

इन्द्र ने आगे जाकर देखा कि हिमाचल के शिखर पर एक परम सुंदर युवा पुरुष सिद्धासन लगाये बैठा है और उसके पास ही एक सुंदरी युवती बैठी है। वे दोनों आपस में चौसर खेल रहे थे। इन्द्र के पहुँचने पर भी उन लोगों ने कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। इन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि ये तो मेरा अपमान कर रहे हैं। उन्हें थोड़ी थोड़ी जलन होने लगी। उन्होंने क्रोध पूर्वक दृष्टि से उस युवक की ओर देख कर कहा — ‘युवक! क्या तुम नहीं जानते कि मैं इस लोक का स्वामी हूँ? यह लोक मेरे ही अधीन है। अब भी तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं ईश्वर हूँ ‘। वह पुरुष अपने खेल में तन्मय हो रहा था। इन्द्र के इस प्रकार कहने पर उसने एक बार धीरे से सिर ऊपर उठाया और हँस दिया। एक बार उसकी दृष्टि इन्द्र पर पड़ गई । दृष्टि पड़ते ही इन्द्र ठूँठ के समान हो गये —न वे हिल सकते थे न डोल सकते थे। वह स्त्री रोने लगी। खेल समाप्त होने पर उस युवा पुरुष ने रोती हुयी स्त्री से कहा —– ‘इन्द्र को मेरे पास ले आओ, मैं इन्द्र का अनिष्ट नहीं कर रहा हूँ। मैं ऐसा उपाय कर रहा हूँ जिससे फिर इन्द्र को अपने ईश्वरपने का कभी गर्व न हो।’ स्त्री ने जाकर ज्यों ही इन्द्र के शरीर का स्पर्श किया, त्यों ही इन्द्र पृथ्वी पर गिर पड़े । तेजस्वी युवक रूपधारी भगवान शंकर ने कहा —–‘इन्द्र ! अब कभी इस प्रकार का अभिमान मत करना कि मैं ईश्वर हूँ। तुम्हारे शरीर में जो शक्ति है, वह तुम्हारी नहीं दूसरे की है। अच्छा, माना कि तुम्हारे अन्दर बड़ी शक्ति है; इसलिए तुम इस बड़ी सी पर्वत शिला को हटा कर नीचे की गुफा में जाओ, वहाँ तुम्हारे समान और भी तेजस्वी इन्द्र हैं ।’

इन्द्र ने वैसा ही किया। उस शिला के हटाने पर इन्द्र ने देखा कि उन्हीं के समान और भी चार इन्द्र वहाँ हैं । उन्हें देखकर इन्द्र बहुत ही दुखी हुए। वे सोचने लगे —– क्या मेरी दशा भी इन्हीं के समान होगी।

भगवान शंकर ने अपने दया भरे चेहरे को तनिक कठोर बनाया और भयंकर भाव प्रकट करते हुए कहा ——‘ इन्द्र ! मूर्खता के कारण तुमने मेरा अनादर किया है । जाओ, तुम भी इसी गुफा में रहो।’

शंकर की बात सुनकर इन्द्र डर के मारे थर थर काँपने लगे। उन्होंने अञ्जलि बाँध कर सिर नवाकर भगवान शंकर से निवेदन किया —– ‘प्रभो ! आपने मुझ पर विजय पायी। आप स्वयं तीनों लोकों के स्वामी हैं ।’

भगवान शंकर बड़ी उग्र हँसी हँसने लगे। उन्होंने कहा —— ‘ऐसे अभिमानियों को कभी क्षमा नहीं करना चाहिए। ये चारों पुरुष भी जिन्हें तुम गुफा में देख रहे हो, ऐसा ही काम कर चुके हैं। उसी के फलस्वरूप उन्हें यह दशा प्राप्त हुई है। अब तुम भी इन्हीं की भाँति गुफा में पड़े रहो। इसके बाद तुम सबको और इस स्त्री को मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ेगा। यह स्त्री तुम्हारी धर्म पत्नि होगी। वहाँ तुम लोग अद्भुत कार्य और असंख्य प्राणियों का नाश करके फिर अपने कर्म के फलस्वरूप पूर्वोपार्जित इन्द्र लोक में आ जाओगे। इसके अतिरिक्त मनुष्य लोक में तुम्हें और भी काम करने पड़ेंगे। मेरी बात सर्वथा सत्य होगी ।’

पहले के इन्द्रों ने कहा — ‘प्रभो ! हम आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। मर्त्यलोक में जन्म लेकर तो मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है, परंतु वह बहुत कठिन है। हमारी प्रार्थना है कि हम किसी मनुष्य के द्वारा उत्पन्न न हो, बल्कि धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनी कुमारों से ही हमारी उत्पत्ति हो। दिव्य अस्त्रों के द्वारा हम मनुष्यों से युद्ध करें और अंत में अपने लोक में लौट आयें। नये आये हुए इन्द्र ने कहा —– ‘मैं देवकार्य के लिए पाँचवाँ पुरुष उत्पन्न कर दूंगा ।’ भगवान शंकर ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उस स्त्री को आज्ञा दी जो कि उस समय भी रो रही थी। उन्होंने कहा —— ‘कल्याणी ! तुम स्वर्ग की लक्ष्मी हो, तुम आदिशक्ति लक्ष्मी की ही अंश स्वरूपा हो। तुम भी इन लोगों के साथ मर्त्यलोक में जाओ और इन पाँचों की धर्म पत्नि बनो। उस स्त्री ने भगवान शंकर की आज्ञा शिरोधार्य की। उन पाँचों इन्द्रों के नाम ये हैं —- ‘विश्वभुक, भूतधामा, शिबि, शान्ति और तेजस्वी। वह स्त्री स्वर्ग की लक्ष्मी थी।

इसके बाद भगवान शंकर उन पाँचों इन्द्रों और उस स्त्री को लेकर पुराण पुरुष अजन्मा भगवान नारायण के पास गये। नारायण ने भगवान शंकर के कार्य का अनुमोदन किया। उन्होंने कहा —- ‘शंकर ! तुम तो मेरी आत्मा ही हो; तुम्हारे द्वारा जो कार्य होगा, वह सर्वथा मेरी इच्छा के अनुरूप ही होगा। आजकल पृथ्वी का भार बहुत बढ़ गया है, लोगों की संख्या बहुत हो गयी है, धर्म -कर्म में रुचि कम होती जा रही है। लोग अपने को अमर मान रहे हैं, मनुष्यों के रूप में बहुत से दैत्य प्रकट हो गये हैं । इन देवताओं के मन में भी यही इच्छा थी कि अब उनका संहार हो, सो तुमने इनकी वासना पूर्ण की। अब यही लोग चलकर संहार कार्य सम्पन्न करें। मैं भी यदुवंशियों में अवतीर्ण होने वाला हूँ; मैं उनके कार्य में सहायता करूँगा। धर्म राज्य की स्थापना और अधर्म राज्य का विनाश तो मुझे करना ही है। यह बड़ा अच्छा हुआ, मैं तुम्हारे इस कार्य का समर्थन करता हूँ ।’ भगवान शंकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन इन्द्रों को भी बड़ा आनंद हुआ। वह स्त्री तो फूली नहीं समाती थी। हमारे कार्य से भगवान की सहानुभूति है और वे हमारे साथ रहेंगे, यह सोच कर वे सब गद्गद हो रहे थे ।

वे नारायण ही कृष्ण रूप में अवतरित हुए।पहले के चारों इन्द्र, युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल और सहदेव हुए, पाँचवें पुरंदर के अंश से सव्यसाची अर्जुन हुए। वह स्वर्ग की लक्ष्मी ही द्रोपदी हुई हैं।

राजा द्रुपद ने एक याज नामक ब्राह्मण से यज्ञ करवाया। यज्ञ समाप्त होने पर याज ने रानी को बुलाया और कहा कि तुम शीघ्र ही यह अभिमंत्रित हविष्य ग्रहण करो, एक कन्या और एक पुत्र तुम्हें प्राप्त होगा।

रानी ने कहा कि आप थोड़ी देर ठहर जाइये। मैं स्नान किए विना यज्ञ का हविष्य कैसे ग्रहण कर सकती हूँ?

याज ने कहा — ‘तुम आओ या न आओ, कुछ हानि नहीं। मैं अभिमंत्रित हविष्य अग्नि में छोड़ता हूँ, यजमान की इच्छा अवश्य ही पूर्ण होगी।’ आहुति छोड़ दी गयी। उसी समय अग्नि के समान तेजस्वी, मुकुटधारी, उत्तम कवच, खड्ग और धनुष -बाण धारण किए एक कुमार अग्नि से प्रकट हुआ।इसके बाद एक अनिन्द्य सुन्दरी कुमारी भी प्रकट हुई। उसके सभी अंग बड़े सुंदर थे। उस कुमारी के शरीर से नीले कमल की मनोहर सुगंध निकल कर कोस भर तक फैलती रहती थी। आकाशवाणी हुई कि यह स्त्री क्षत्रिय वंश के नाश का कारण होगी।यही स्वर्ग की लक्ष्मी शरीर धारण करके द्रौपदी कहलायी।  (इति)

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