उपमन्यु को महर्षि आयोदधौम्य के आश्रम में गाय चराने का कार्य सौंपा गया था. भोर होते ही गायों के लेकर वे वन निकल जाया ककरता था और सांझ ढले ही आश्रम लौटता था. आश्रम लौटने के उपरांत महर्षि आयोदधौम्य को प्रणाम कर वह विश्राम के लिए जाया करता था.
महर्षि आयोदधौम्य उपमन्यु शारीरिक पुष्टता देखकर हतप्रभ थे. आश्रम में उसके भोजन की व्यवस्था नहीं थी. सुबह से लेकर पूरे दिन वह गायों के पीछे वन में भटकता रहता था. तिस पर भी वह दिन पर दिन हृष्ट-पुष्ट हुआ जा रहा था.
एक दिन महर्षि आयोदधौम्य ने उपमन्यु को अपने पास बुलाया और पूछा, “वत्स! तुम्हें इतना हृष्ट-पुष्ट देख मैं चकित हूँ. आश्रम से तुम्हें भोजन की प्राप्ति नहीं हुआ. पूरे दिन तुम गाये चराने में व्यस्त रहते हो. ऐसे में तुम अपना निर्वाह कैसे करते हो?”
उपमन्यु के उत्तर दिया, “गुरूवर! मैं गाँव जाकर भिक्षाटन करता हूँ. जो भी अन्न मुझे प्राप्त होता है. उससे अपनी क्षुधा शांत करता हूँ. इस तरह मेरा निर्वाह चल रहा है.”
उपमन्यु का उत्तर सुनकर आयोदधौम्य ऋषि बोले, “वत्स! गुरू को अर्पण किये बिना तुम भिक्षा में प्राप्त अन्न का उपयोग कैसे कर सकते हो? यह तो घोर पाप है. भिक्षा में प्राप्त अन्न तुम्हें मुझे लाकर अर्पण करना चाहिए. आज से तुम ऐसा ही करोगे.”
“जो आज्ञा गुरूवर.” कहकर उपमन्यु चला गया.
उस दिन उपरांत से भिक्षा में प्राप्त अन्न वह महर्षि आयोदधौम्य अर्पित करने लगा. महर्षि पूरा अन्न स्वयं रख लेते और उपमन्यु को अन्न का एक दाना भी नहीं देते थे. इसी तरह दिन व्यतीत हो रहे थे. एक दिन महर्षि आयोदधौम्य ने ध्यान दिया कि भिक्षा का अन्न प्राप्त न होने के उपरांत भी उपमन्यु की पुष्टता में कोई अंतर नहीं आया था. वह पहले की ही तरह हृष्ट-पुष्ट था.
उन्होंने पुनः उससे पूछा, “वत्स! भिक्षाटन में प्राप्त समस्त अन्न तुम मुझे अर्पण कर देते हो. किंतु अब भी तुम्हारी काया पहले जैसी ही हृष्ट-पुष्ट है. मैं जानना चाहता हूँ कि अब तुम अपना निर्वाह किस तरह कर रहे हो?”
“गुरूवर! आपको भिक्षा अर्पित करने के उपरांत मैं पुनः भिक्षाटन कर लेता हूँ. उससे प्राप्त अन्न से मेरा निर्वाह हो रहा है.”
“वत्स! ये तो अनुचित है. इस तरह तुम अन्य भिक्षुओं के जीविकोपार्जन में बाधा उत्पन्न कर रहे हो. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए.” महर्षि आयोदधौम्य बोले.
आगे से ऐसा नहीं होगा गुरूवर” कहकर उपमन्यु वहाँ से प्रस्थान कर गया.
कुछ दिन और बीते. किंतु उपमन्यु पहले की तरह हृष्ट-पुष्ट बना रहा. उसमें कोई परिवर्तन न देख महर्षि आयोदधौम्य ने उसे पुनः बुलाया और पूछा, “वत्स! वर्तमान में तुम्हारे निर्वाह का साधन क्या है?”
“गुररूवर! मैं गायों का दूध पीकर निर्वाह कर रहा हूँ.” उपमन्यु ने उत्तर दिया.
इस पर महर्षि बोले “वत्स! तुम्हें गायों का दूध नहीं पीना चाहिए. उस पर बछड़ों का अधिकार है.”
“जो आज्ञा गुरूवर.” कहकर उपमन्यु चला गया.
उपमन्यु की शारीरिक पुष्टता में इसके उपरांत भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ. तब महर्षि ने उसे बुलाकर पुनः वही प्रश्न किया. इस बार उपमन्यु ने उत्तर दिया, “गुरूवर! बछड़े गायों का दूध पीने के बाद जो फेन उगलते हैं, उसे पीकर ही मैं अपनी क्षुधा शांत कर लेता हूँ.”
“वत्स! इस तरह तो बछड़े भूखे रह जायेंगे. कदाचित, वे दयावश तुम्हारे लिए अधिक फेन उगल देते होंगे. क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारा कृत्य अनुचित है? आज के बाद तुम बछड़ों द्वारा उगला फेन नहीं पियोगे.”
“जो आज्ञा गुरूवर.” कहकर उपमन्यु चला गया.
उपमन्यु के पास जीविका का कोई साधन शेष नहीं रहा. बिना भोजन के वह दुर्बल होता चला गया. एक दिन वन में गायों को चराते हुए अपनी क्षुधा शांत करने उसने आक के पत्ते खा लिये और उसके विषैले पत्तों के प्रभाव से अपनि नेत्र-ज्योति खो दी.
नेत्रों की ज्योति खोने के बाद भी बाद भी वह गायों की घंटी की आवाज़ सुनकर उनके पीछे-पीछे चलता रहा. चलते-चलते वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा, जहाँ सूखा कुवां था और दिखाई न देने के कारण वह उसमें गिर पड़ा.
इधर सांझ होने पर आश्रम में उपमन्यु को न देखकर महर्षि आयोदधौम्य ने अन्य शिष्यों से उसके बारे में पूछा. शिष्यों द्वारा उन्हें बताया गया कि उपमन्यु आश्रम नहीं लौटा है. महर्षि आयोदधौम्य को उपमन्यु की चिंता होने लगी. वे जीवन की सीख प्रदान करने हेतु भले ही बाहर से शिष्यों के प्रति कठोर व्यवहार प्रदर्शित करते थे, किंतु मन ही मन उनसे अपार स्नेह किया करते थे. वे तुरंत कुछ शिष्यों को साथ लेकर उपमन्यु को ढूंढने निकल गए.
वन में वे सभी उपमन्यु का नाम पुकार रहे थे. सूखे कुएं में गिरे नेत्रहीन उपमन्यु के कानों में जब महर्षि और अन्य शिष्यों की आवाज़ पड़ी, तो वह चिल्लाया, “गुरूवर! मैं यहाँ इस सूखे कुएं में हूँ.”
आवाज़ की दिशा में गमन कर महर्षि कुएं के निकट पहुँचे और उसमें झांककर देखा, तो उपमन्यु को उसमें पाया. पूछने पर उपमन्यु ने बताया कि आक के पत्तों को खाने के कारण उसकी नेत्रों की ज्योति चली गई है.
महर्षि ने उसे ऋग्वेद के मंत्रों का जाप कर देवताओं के वैध्य अश्विनी कुमारों का आह्वान करने हेतु कहा. उपमन्यु अश्विनी कुमारों का आह्वान करने लगा. अश्विनी कुमार प्रकट हुए और उन्होंने उपमन्यु को पुआ खाने को दिया. किंतु उपमन्यु ने बिना गुरू की आज्ञा के पुआ खाने से मना कर दिया.
अश्विनी कुमारों ने उसे बताया कि उसके गुरू महर्षि आयोदधौम्य ने हमारे द्वारा दिए गये पुआ का सेवन अपने गुरू की आज्ञा प्राप्त किये बिना किया है. इसलिए बिना संकोच किये उसे यह खा लेना चाहिए. किंतु उपमन्यु नहीं माना.
उपमन्यु की गुरूभक्ति देख अश्विनी कुमार अत्यंत प्रसन्न हुए. वे बोले, “उपमन्यु तुम्हारी गुरूभक्ति देख हम प्रसन्न है और तुम्हें नेत्र ज्योति का वरदान देते हैं. तुम्हारी गुरूभक्ति के कारण तुम्हारा सदा कल्याण होगा. तुम सभी विधाओं में स्फुरित होगे.”
इस तरह अश्विनी कुमारों के वरदान से उपमन्यु को पुनः नेत्र ज्योति प्राप्त हो गई. कुएं से बाहर निकलकर उसने महर्षि आयोदधौम्य के चरण स्पर्श किये. महर्षि बोले, “वत्स! मैं तुम्हारी गुरूभक्ति की परीक्षा ले रहा था. तुम इसमें उत्तीर्ण रहे हो. मैं तुमसे अति-प्रसन्न हूँ. तुम मेरे परम शिष्य हो. अश्विनी कुमारों के कहे अनुसार तुम्हारा सदा कल्याण होगा और तुम सभी विधाओं में स्फुरित होगे.”
कालांतर में उपमन्यु भी अपने गुरू की तरह आचार्य हुए. ज्ञान और गुरूभक्ति के कारण उपमन्यु का नाम सदा अमर है.