एक समय की बात है। गोपांगनाओं से घिरे भगवान श्री कृष्ण पुष्प वृन्दावन में विहार कर रहे थे। सहसा प्रभु के मन में दूध पीने की इच्छा जाग उठी। तब भगवान ने अपने वामपार्श्व से लीलापूर्वक सुरभी गौ को प्रकट किया।बछड़े सहित वह गौ दुग्धवती थी।सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा। स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने उस स्वादिष्ट दूध को पिया। फिर हाथ से छूट कर वह पात्र धरती पर गिर पड़ा और दूध धरती पर फैल गया। उस दूध से वहाँ एक सरोवर बन गया, गोलोक में वह क्षीरसरोवर नाम से विख्यात हुआ।
भगवान की इच्छा से उसमें रत्नमय घाट बन गये। उसी समय सहसा असंख्य कामधेनु प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौयें थीं, उतने ही बछड़े उस सुरभी के रोम कूप से निकल आये। फिर उन गौओं के बहुत से पुत्र व पौत्र भी हुए। यों उस सुरभी से गौओं की सृष्टि कही गयी।
पूर्व काल में श्री कृष्ण ने देवी सुरभी की पूजा की थी। तत्पश्चात् त्रिलोकी में उस देवी की पूजा का प्रचार हो गया।दीपावली के दूसरे दिन भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से सुरभी की पूजा सम्पन्न हुयी थी।
एक बार वाराह कल्प में देवी सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। तब त्रिलोकी में दूध का अभाव हो गया। ब्रह्मा जी की आज्ञा पाकर इन्द्र ने देवी सुरभी की स्तुति आरम्भ की। स्तुति सुनते ही सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न होकर ब्रह्मलोक में प्रकट हो गयीं। देवराज इन्द्र को मनोवांछित वर देकर वे पुनः गोलोक चलीं गयीं। फिर सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए।