जब भगवान कृष्ण के जन्म का समय निकट आया, तो आकाश में रोहिणी नक्षत्र उभर आया और चमकने लगा। यह सितारा केवल शुभ अवसरों पर ही चमकता है। सारे ग्रह और नक्षत्र अनुकूल हो गए। नदियां शांत होकर ठहर गईं। दिव्य संगीत की लहरी पर अप्सराएं और देवता नाचने लगे।
देवकी सूरज की तरह जगमगा रही थीं, क्योंकि उनके गर्भ से भगवान विष्णु जन्म लेने वाले थे। उनकी आभा को देवकी सह नहीं पा रही थीं।
ज्यों ही अष्टमी की आधी रात को भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, त्यों ही आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। पृथ्वी भगवान के जन्म का समाचार सुनकर झूम उठी। वासुदेव अपनी आठवीं संतान को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठे, जो दिव्य प्रभु का अवतार थी।
भगवान कृष्ण का जन्म होते ही वासुदेव सचेत हो गए। तभी प्रभु की कृपा से कारागार के दरवाजे अपने-आप खुल गए और सारे दरबान गहरी नींद में सो गए।
“आप एक भी क्षण गंवाए बिना, अपने पुत्र कृष्ण को लेकर गोकुल रवाना हो जाएं।” देवकी ने पति से आग्रह किया। “तुम ठीक कहती हो। मुझे जल्दी से प्रभु के अवतार को सुरक्षित जगह पर पहुंचा देना चाहिए। दुष्ट कंस को पता नहीं चलना चाहिए कि हमारे पुत्र का जन्म हो चुका है, वरना वह उसे भी जान से मार डालेगा।” यह कहकर वासुदेव ने कांपते हाथों से शिशु को अपनी गोद में ले लिया। उनकी आंखों से प्रेम के आंसू उमड़ पड़े। देवकी और वासुदेव कुछ देर तक अपने बालक को प्यार से निहारते रहे। मां की ममता ने अपने दिल पर पत्थर रख लिया था। बालक की जान बचाने के लिए यह बहुत जरूरी था कि उसे अपने से दूर कर दिया जाए।
वासुदेव ने देवकी को गले से लगाकर दिलासा दिया, हालांकि वे स्वयं भी बहुत दुखी थे। अभी तो उन्होंने अपने बच्चे को जी भरकर देखा भी नहीं था कि उसे अपने से दूर करने का समय निकट आ गया। लेकिन इसके अलावा कोई अन्य रास्ता भी तो नहीं था।
वासुदेव ने शिशु को लिटाने के लिए एक टोकरी में नरम पुआल रखी, फिर देवकी की पुरानी साड़ी बिछाकर बिस्तर तैयार कर दिया। दोनों ने बालक का माथा चूमकर उसकी जान की सलामती की प्रार्थना की। तत्पश्चात वासुदेव बालक को टोकरी में लिटाकर बाहर की ओर चल दिए। प्रभु की कृपा से सारे दरबान अब भी गहरी नींद में सो रहे थे। यह भी एक चमत्कार था कि कारागार के सारे दरवाजे अपने-आप खुल गए थे। वासुदेव तेज कदमों से गोकुल की ओर रवाना हो गए। अब उनके मन में एक ही धुन सवार थी-उन्हें अपने बच्चे को सुरक्षित स्थान पर जल्दी से जल्दी पहुंचाना था।
जब वासुदेव उफनती हुई यमुना नदी के किनारे पहुंचे, तो रुक गए। गोकुल जाने के लिए नदी पार करनी थी। तभी तेज वर्षा होने लगी। ऐसे में नदी पार करना बहुत कठिन था। लेकिन वासुदेव ने धीरज रखकर लहरों के बीच कदम बढ़ाया। आकाश में बिजली कड़क रही थी। वे सोच रहे थे कि बालक को सुरक्षित कैसे ले जा सकेंगे।
तभी भगवान कृष्ण को वर्षा और तूफान से बचाने के लिए शेषनाग ने उन पर अपना फन फैला दिया। नदी उफान पर थी और पानी का स्तर ऊंचा हो गया था। लेकिन ज्यों ही लहरों ने भगवान कृष्ण के पैरों को छुआ, पानी का स्तर अपने-आप नीचे उतर गया। वर्षा रुक गई और वासुदेव गोकुल के मुखिया नंद के महल की ओर बढ़ते चले गए। उन्होंने सोचा, ‘अगर नंद के महल के दरबानों ने मुझे मेरे पुत्र के साथ देख लिया, तो…।’ लेकिन नंद के महल में पहुंचकर उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु की कृपा से सारे दरबान गहरी नींद में सो रहे थे। वासुदेव ने सोते हुए दरबानों को पार किया और उस कक्ष में पहंच गए. जहां यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया था।
वासुदेव ने नंद से भेंट की। नंद अपनी पुत्री के जन्म का समाचार पाकर बहुत प्रसन्न थे। वासुदेव ने सारी बात बताते हुए उन्हें अपना पुत्र सौंप दिया। नंद ने अपनी पुत्री योगमाया वासुदेव को दे दी। उन्होंने उस कन्या को उसी तरह टोकरी में रखा और मथुरा की ओर चल पड़े।
शीघ्र ही वासुदेव कारागार में पहुंच गए और उन्होंने देवकी को कन्या सौंप दी। इसके साथ ही कारागार के सारे दरवाजे अपने-आप बंद हो गए। सभी दरबान जाग गए। उन्होंने एक कन्या को देखते ही शोर मचा दिया।
मथुरा के दुष्ट राजा कंस को तत्काल देवकी की आठवीं संतान के जन्म की सूचना भेजी गई। वासुदेव ने देवकी को दिलासा दिया, “प्रिय! चिंता मत करो, भगवान कृष्ण गोकुल में बिल्कुल सुरक्षित हैं। दुष्ट राजा कंस कभी उन तक नहीं पहुंच सकेगा।”
जब कंस को यह समाचार मिला कि देवकी ने आठवीं संतान को जन्म दिया है, तो वह दौड़ता हुआ आया और गरजते हुए बोला, “आठवीं संतान कहां है?” देवकी ने विनती की, “भैया, वह तो नन्ही-सी बच्ची है। वह इतने बड़े राजा का क्या नुकसान कर सकती है? कृपया उसके प्राण मत लो।”
कंस ठहाका मारकर बोला, “देवकी बहन! मैंने भविष्यवाणी सुनी है। मैं नहीं चाहता कि इस धरती पर ऐसा कोई जीव जीवित रहे, जो मथुरा के राजा कंस के प्राण ले सके। यह कन्या ही आने वाले समय में मेरा काल बन सकती है, इसलिए मैं इसे जीवित नहीं छोडूंगा।”
तत्पश्चात दुष्ट कंस योगमाया को उठाकर जोर से गरजा, “तुझे मरना ही होगा।” यह कहते हुए उसने उसे जमीन पर पटक दिया, लेकिन कन्या हवा में उछली और अपने असली रूप में आ गई। वह देवी योगनिद्रा थी, जिसे भगवान विष्णु ने कंस को चेतावनी देने के लिए धरती पर भेजा था। देवी योगमाया बोली, “हे मूर्ख कंस! तुझे मारने वाला तो पहले ही इस धरती पर जन्म ले चुका है। अब तू नहीं बच सकता। मेरे शब्दों को याद रखना। तू शीघ्र ही मरने वाला है।” कंस आंखें फाड़े उसे देखता रह गया। योगमाया हंसी और शीघ्र ही आकाश में ओझल हो गई।
योगमाया के ओझल होने के बाद भी कारागार में एक अनूठा-सा प्रकाश फैला रहा। फिर सब कुछ सामान्य हो गया। कंस अपने दरबारियों और दरबानों सहित आश्चर्य चकित होकर खड़ा था। वह समझ ही नहीं पाया कि अचानक यह सब क्या हो गया।
इस घटना के बाद कंस ने सोचा कि अब देवकी और वासुदेव को बंदी बनाकर रखने से कोई लाभ नहीं था।
वासुदेव अपने दोनों पुत्रों का समाचार जानना चाहते थे। एक दिन नंद उनसे मिलने मथुरा आए। वासुदेव ने नंद से कहा कि वे दोनों पुत्रों का ध्यान रखें। वासुदेव ने यह भी कहा कि कंस भगवान कृष्ण को मारना चाहता है। तब नंद ने सोचा कि उन्हें दोनों बच्चों की रक्षा के लिए शीघ्र ही कुछ करना होगा।
मथुरा में वासुदेव से भेंट करने के बाद नंद अपनी पत्नी और बच्चों के साथ पालकी में सवार होकर गोकुल रवाना हो गए। उन्होंने रास्ते में यशोदा को सारी बात बताई। नंद और यशोदा अपने शिशु कृष्ण को खिलखिलाता देखकर बहुत प्रसन्न हो रहे थे। गोकुल पहुंचने पर सभी लोगों ने उनका स्वागत किया। दोनों बालकों ने सबका दिल जीत लिया था।
भगवान कृष्ण की छवि मन को मोहने वाली थी। उनकी आंखें सितारों की तरह जगमग करती रहती थीं और मीठी मुस्कान सबका मन मोह लेती थी। भगवान कृष्ण का चमत्कार शीघ्र ही नंद, यशोदा और सारे गोकुलवासियों के सामने आने वाला था। बाबा नंद और मां यशोदा अपने लाल पर जान छिड़कते थे। गोकुलवासी उनके घर के बाहर भीड़ लगाए रहते थे। वे अपने काम निपटाकर नन्हे बालक के साथ खेलने आ जाते थे।
नन्हे कान्हा का रूप इतना मनोहारी था कि सभी गांव वाले उनके साथ खेलकर बहुत आनंदित होते थे, मानो उन्हें खेलने के लिए कोई खिलौना मिल गया हो। अभी औपचारिक रूप से बालकों का नामकरण संस्कार होना बाकी था। नंद और यशोदा ने इस आयोजन के लिए तैयारियां आरंभ कर दीं। सभी गांव वालों ने इस काम में उनकी सहायता की।
नंद और यशोदा ने अपने एवं रोहिणी के पुत्र के लिए नामकरण संस्कार का आयोजन किया। गर्ग मुनि बच्चों का नामकरण संस्कार करने के लिए आए। यशोदा ने गर्व से कहा, “यह अत्यंत सुंदर बात होगी, यदि बच्चों का नाम महान आदरणीय मुनियों के नाम पर रखा जाए।” जब संतों ने बालकों को देखा, तो वे बोले, “दोनों बालकों को स्वर्ग से धरती पर भेजा गया है, ताकि दुष्टों तथा राक्षसों का नाश हो सके। इन पर अनेक राक्षसों का हमला होगा, लेकिन ये हर बार विजयी रहेंगे!” यह सुनकर नंद और यशोदा बहुत प्रसन्न हुए। गर्ग मुनि ने कहा, “ये बालक दुष्ट शक्तियों का नाश करेंगे।” अब मां यशोदा यह सोचकर डर रही थीं कि अगर राक्षसों ने बालकों पर हमला किया, तो उन्हें चोट लग सकती है। ऐसे में वे चिंतातुर हो गई थीं। गर्ग मुनि ने बड़े बालक का नाम संकर्षण (बलराम) तथा छोटे बालक का नाम कृष्ण रखा।