महाभारत युद्ध निश्चित समझकर कौरव और पांडव, दोनों पक्ष ने देश-देशांतर के नरेशों के पास सहायता के लिए अपने दूत भेजे। मद्रराज शल्य को भी समाचार मिला।वे अपने महारथी पुत्रों के साथ एक अक्षौहिणी सेना लेकर पांडवों पास चले। शल्य की बहन माद्री का विवाह पांडु से हुआ था। नकुल और सहदेव उनके सगे भांजे थे। पांडवों को विश्वास था कि शल्य उनके पक्ष में ही रहेंगे।
शल्य की विशाल सेना दो-दो कोस पर पड़ाव डालती चल रही थीं। दुर्योधन को समाचार पहले ही मिल गया था। उसने मार्ग में जहां-जहां सेना के पड़ाव के उपयुक्त स्थानों पर कारीगर भेजकर सभा-भवन एवं निवास स्थान बनवा दिए।
दुर्योधन के जाल में फंसे मामा
हर पड़ाव पर बेहतर भोजनादि की व्यवस्था करवा दी गई थी। मद्रराज शल्य और उनकी सेना का मार्ग में सभी पड़ावों पर भरपूर स्वागत हुआ। शल्य यही समझते थे कि यह सब व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है। हस्तिनापुर के पास पहुंचने पर विश्राम स्थलों उसे देखकर शल्य ने पूछा-‘युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों ने यह व्यवस्था की है? उन्हें ले आओ। मैं उन्हें पुरस्कार देना चाहता हूं।’
दुर्योधन स्वयं छिपा हुआ वहां मौजूद था। शल्य की बात सुनकर और उन्हें प्रसन्न देखकर वह सामने आ गया और हाथ जोड़कर प्रणाम करके बोला-‘मामा जी, आपको मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?’ शल्य चैंके। उन्होंने पूछा-‘दुर्योधन! तुमने यह व्यवस्था कराई है?’
दुर्योधन नम्रतापूर्वक बोला-‘गुरुजनों की सेवा करना तो छोटों का कर्तव्य ही है। मुझे सेवा का कुछ अवसर मिल गया, यह मेरा सौभाग्य है।’ शल्य प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा-‘अच्छा, तुम मुझसे कोई वरदान मांग लो।’
दुर्योधन ने मांगा-‘आप सेना के साथ युद्ध में मेरा साथ दें और मेरी सेना का संचालन करें।’
शल्य को स्वीकार करना पड़ा यह प्रस्ताव।
यद्यपि उन्होंने युधिष्ठिर से भेंट की, नकुल-सहदेव पर आघात न करने की अपनी प्रतिज्ञा दुर्योधन को बता दी और युद्ध में कर्ण को हतोत्साहित करते रहने का वचन भी युधिष्ठिर को दे दिया; किंतु युद्ध में उन्होंने दुर्योधन का पक्ष लिया।
यदि शल्य पांडवों के पक्ष में जाते, तो दोनों दलों की सैन्य संख्या बराबर रहती, किंतु उनके कौरव के पक्ष में जाने से कौरवों के पास दो अक्षौहिणी सेना अधिक हो गई।
साभार- जानकी शरण शर्मा