Tantrotkilan Stotra

Tantrotkilan Stotra:तंत्रोत्कीलन स्तोत्र: मानव जीवन का गहन विश्लेषण करने पर पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में भय और बाधाओं से सदैव आशंकित रहता है। विस्तृत जांच से पता चलता है कि उसकी सभी शक्तियां एक जटिल बंधन में बंधी हुई हैं। शक्तियों की इस गांठ-अवरोध का संभावित कारण या तो कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा किया गया दुर्भावनापूर्ण कार्य हो सकता है या व्यक्ति की स्वयं की कोई संभावित गलती हो सकती है। तंत्रोत्कीलन स्तोत्र जीवन में भय का वातावरण उत्पन्न करता है। जीवन का आनंद प्राप्त करने के लिए इस भय को नष्ट करना होगा।

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में भय और बाधाओं को मिटाने के लिए अनेक उपाय करता है। एक कांटा दूसरे कांटे से ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार श्रेष्ठ तंत्र साधनाएं ही जीवन की बाधाओं-समस्याओं को दूर कर सकती हैं।

जीवन में कुछ Tantrotkilan Stotra असामान्य घटित हो रहा है या नहीं, यह जानने के लिए अपने स्वयं के जीवन का विश्लेषण करना आवश्यक है। सामान्य समस्याओं का समाधान सामान्य प्रक्रियाओं से किया जा सकता है। हालांकि असामान्य-असामान्य समस्याओं का समाधान विशेष तंत्र साधनाओं से ही संभव है और इसके लिए उच्चस्तरीय तांत्रिक साधना करने की आवश्यकता होती है। गुरुदेव के मार्गदर्शन के अनुसार इसे सिद्ध करने का सर्वोत्तम तरीका है “तंत्र उत्कीलन त्रिपुर साधना”। त्रिपुर भैरवी दस महाविद्याओं में अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रखर शक्ति हैं। वे जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता का आशीर्वाद देती हैं और सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करती हैं।

उनकी तंत्र शक्ति के माध्यम से साधक अपनी शक्तियों और क्षमता को बढ़ा सकता है। माता भगवती त्रिपुर भैरवी के भौतिक स्वरूप की आभा में हजारों उगते सूर्यों की चमक है। वे लाल रंग के रेशमी वस्त्रों से सुशोभित हैं। उनके गले में कपाल की माला लटक रही है और दोनों स्तन रक्त से सने हुए हैं। वे अपने हाथों में जप-माला, पुस्तक, अभय-आशीर्वाद मुद्रा और वर-वर मुद्रा धारण करती हैं। उनके माथे पर चंद्रमा शानदार ढंग से चमक रहा है। उनकी तीन आंखें रक्त कमल के समान चमक रही हैं। आप अपने सिर पर रत्नजड़ित मुकुट और चेहरे पर प्रेम भरी मुस्कान धारण करती हैं। कृपया मेरी भक्ति स्वीकार करें।

Tantrotkilan Stotra:तंत्रोत्कीलन स्तोत्र के लाभ

जब किसी व्यक्ति या परिवार के विरुद्ध कोई दुर्भावनापूर्ण काला जादू किया जाता है, तो उस परिवार को भयंकर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। तांत्रिक बाधाओं के माध्यम से उनकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। ऐसी स्थितियों के दौरान तंत्र साधना की सिद्धि इन भयानक स्थितियों को खत्म करती है और संभावित क्षमताओं को बढ़ाती है।

इस स्तोत्र का पाठ किसे करना चाहिए

जिन व्यक्तियों को जीवन के हर चरण में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें तंत्रोत्कीलन स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए।

।। पार्वत्युवाच ।।

देवेश परमानन्द, भक्तानाम भयं प्रद !

आगमाः निगमाश्चैव, बीजं बीजोदयस्तथा ।।1।।

समुदायेन बीजानां, मन्त्रो मंत्रस्य संहिता ।

ऋषिच्छन्दादिकं भेदो, वैदिकं यामलादिकम् ।।2।।

धर्मोऽधर्मस्तथा ज्ञानं, विज्ञानं च विकल्पन ।

निर्विकल्प-विभागेन, तथा षट्-कर्म-सिद्धये ।।3।।

भुक्ति-मुक्ति-प्रकारश्च, सर्वं प्राप्तं प्रसादतः ।

कीलनं सर्व-मन्त्राणां, शंसयद् हृदये वचः ।।4।।

इति श्रुत्वा शिवा-नाथः, पार्वत्या वचनं शुभम् ।

उवाच परया प्रीत्या, मन्त्रोत्कीलनकं शिवां ।।5।।

।। शिव उचाव ।।

वरानने ! हि सर्वस्य, व्यक्ताव्यक्तस्य वस्तुनः ।

साक्षी-भूय त्वमेवासि, जगतस्तु मनोस्तथा ।।6।।

त्वया पृष्टं वरारोहे ! तद्वक्ष्याम्युत्कीलनम् ।

उद्दीपनं हि मंत्रस्य, सर्वस्योत्कीलनम भवेत् ।।7।।

पूरा तव मया भद्रे ! समाकर्षण-वश्यजा ।

मन्त्राणां कीलिता-सिद्धिः, सर्वे ते सप्त-कोटयः ।।8।।

तदानुग्रह-प्रीतस्त्वात्, सिद्धिस्तेषां फलप्रदा ।

येनोपायेन भवति, तं स्तोत्रं कथाम्यहम ।।9।।

श्रृणु भद्रेऽत्र सततमावाम्यामखिलं जगत् ।

तस्य सिद्धिर्भवेत्तिष्ठे, माया येषां प्रभावकम् ।।10।।

अन्नं पानं हि सौभाग्यं, दत्तं तुभ्यं मया शिवे !

संजीवनं च मन्त्राणां, तथा दत्तुं पुनर्धुवम ।।11।।

यस्य स्मरण-मात्रेण, पाठेन जपतोऽपि वा !

अकीला अखिला मन्त्राः, सत्यं सत्यं न संशयः ।।12।।

विनियोगः

सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।

ॐ अस्य सर्व-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्राणामुत्कीलन-मन्त्र-स्तोत्रस्य मूल-प्रकृतिः ऋषिः, जगतीच्छन्द, निरञ्जनो देवता, क्लीं वीजं, ह्रीं शक्तिः, ह्रः सौं कीलकं, सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः

ॐ मूल-प्रकृतिः ऋषये नमः शिरसि,

ॐ जगतीच्छन्दसे नमः मुखे,

ॐ निरञ्जनो देवतायै नमः हृदि,

ॐ क्लीं वीजाय नमः गुह्ये,

ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयो,

ॐ ह्रः सौं कीलकाय नमः नाभौ,

ॐ सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः सर्वांगे।

षडङ्ग-न्यास: कर-न्यास:

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा

ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्

ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्

ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्

ॐ ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्

ध्यानः

ॐ ब्रह्म-स्वरुपममलं च निरञ्जनं तं,

ज्योतिः-प्रकाशमनिशं महतो महान्तम् ।

कारुण्य-रुपमति-बोध-करं प्रसन्नं,

दिव्यं स्मरामि सततं मनु-जीवनाय ।।

एवं ध्यात्वा स्मरेन्नित्यं, तस्य सिद्धिरस्तु सर्वदा । वाञ्छितं फलमाप्नोति, मन्त्र-संजीवनं ध्रुवम् ।।

मन्त्रः-

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रादीनामुत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं षट्-पञ्चाक्षराणामुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा । ॐ जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणां सञ्जीवनं कुरु-कुरु स्वाहा ।ॐ ह्रीं जूं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः, कं खं गं घं ङं, चं छं जं झं ञं, टं ठं डं ढं णं, तं थं दं धं नं, पं फं बं भं मं, यं रं लं वं, शं षं सं हं ळं क्षं । मात्राऽक्षराणां सर्व उत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।

ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं , ॐ ह्रीं जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-स्तोत्र-कवचादीनां सञ्जीवय-सञ्जीवय कुरु-कुरु स्वाहा । ॐ सोऽहं हंसः ॐ सञ्जीवनं स्वाहा । ॐ ह्रीं मन्त्राक्षराणामुत्कीलय, उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।

ॐ ॐ प्रणव-रुपाय, अं आं परम-रुपिणे । इं ईं शक्ति-स्वरुपाय, उं ऊं तेजो-मयाय च ।।

ऋं ॠं रंजित-दीप्ताय, लृं ॡं स्थूल-स्वरुपिणे, एं ऐं वाचां विलासाय, ओं औं अं अः शिवाय च ।।

कं खं कमल-नेत्राय, गं घं गरुड़-गामिने । ङं चं श्री चन्द्र-भालाय, छं जं जय-कराय च ।।

झं ञं टं ठं जय-कर्त्रे, डं ढं णं तं पराय च । थं दं धं नं नमस्तस्मै, पं फं यन्त्र-मयाय च ।।

बं भं मं बल-वीर्याय, यं रं लं यशसे नमः । वं शं षं बहु-वादाय, सं हं ळं क्षं-स्वरुपिणे ।।

दिशामादित्य-रुपाय, तेजसे रुप-धारिणे । अनन्ताय अनन्ताय, नमस्तस्मै नमो नमः ।।

मातृकाया प्रकाशायै, तुभ्यं तस्यै नमो नमः । प्राणेशायै क्षीणदायै, सं सञ्जीव नमो नमः ।।

निरञ्जनस्य देवस्य, नाम-कर्म-विधानतः । त्वया ध्यानं च शक्तया च, तेन सञ्जायते जगत् ।।

स्तुतामहमचिरं ध्यात्वा, मायाया ध्वंस-हेतवे । सन्तुष्टा भार्गवायाहं, यशस्वी जायते हि सः ।।

ब्रह्माणं चेतयन्ती विविध-सुर-नरास्तर्पयन्ती प्रमोदाद् ।

ध्यानेनोद्दीपयन्ती निगम-जप-मनुं षट्-पदं प्रेरयन्ती ।।

सर्वान् देवान् जयन्ती दिति-सुत-दमनी साऽप्यहंकार-मूर्ति-

स्तुभ्यं तस्मै च जाप्यं स्मर-रचितमनुं मोचये शाप-जालात् ।।

इदं श्रीत्रिपुरा-स्तोत्रं पठेद् भक्तया तु यो नरः।सर्वान् कामानवाप्नोति सर्व-शापाद् विमुच्यते ।।

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