
Maharishi Dadhichi Jayanti Kab hai: दधीचि जयंती 2025: त्याग और बलिदान के प्रतीक महर्षि दधीचि की अविस्मरणीय गाथा
Maharishi Dadhichi: हर साल भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि को महर्षि दधीचि जयंती पूरे भारत में बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाई जाती है। यह दिन एक ऐसे महान संत के सर्वोच्च त्याग को याद करने का अवसर है, जिन्होंने धर्म और मानवता की रक्षा के लिए अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। वर्ष 2025 में, यह पावन पर्व 31 अगस्त को मनाया जाएगा। आइए, इस विशेष अवसर पर महर्षि दधीचि की प्रेरणादायक कहानी को जानें, जिन्होंने अपने निस्वार्थ बलिदान से देवताओं और संसार की रक्षा की।
Maharishi Dadhichi Introduction to a great ascetic: महर्षि दधीचि: एक महान तपस्वी का परिचय
महर्षि दधीचि Maharishi Dadhichi प्राचीन काल के सबसे पूज्य और महत्वपूर्ण संतों में से एक माने जाते हैं। वे ऋषि अथर्वा और माता शांति (कुछ मान्यताओं के अनुसार चित्ति) के पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी (या कुछ स्थानों पर शांति, जो कर्दम ऋषि की पुत्री थीं) और पुत्र का नाम पिप्पलाद था। महर्षि दधीचि भगवान शिव के अनन्य भक्त थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन घोर तपस्या में समर्पित कर दिया था। उनकी अटूट भक्ति और तपस्या के कारण उन्हें पूरे देश में अत्यंत सम्मान प्राप्त था।
An attempt to break the doubts and penance of Devraj Indra: देवराज इंद्र की शंका और तपस्या भंग करने का प्रयास
एक पौराणिक कथा के अनुसार, महर्षि दधीचि की घोर तपस्या से तीनों लोकों में भय का माहौल बन गया, और यहां तक कि देवराज इंद्र का सिंहासन भी डोलने लगा। इंद्र को लगा कि दधीचि उनके इंद्रलोक और सिंहासन को हथियाना चाहते हैं। इस आशंका में, इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा रूपवती को भेजा। हालाँकि, Maharishi Dadhichi महर्षि दधीचि अपनी एकाग्रता में अटल रहे और अप्सरा अपने प्रयास में विफल रही। रूपवती ने स्वर्ग लौटकर इंद्र को दधीचि की एकाग्र शक्ति के बारे में बताया, जिसके बाद इंद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने महर्षि से क्षमा याचना की।
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वृत्रासुर का आतंक और देवताओं की दुर्दशा: The terror of Vritrasura and the plight of the gods
समय बीतने के साथ, वृत्रासुर नामक एक अत्यंत शक्तिशाली असुर ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। उसने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया और सभी देवताओं को देवलोक से बाहर निकाल दिया था। वृत्रासुर इतना बलशाली था कि देवताओं के सभी अस्त्र-शस्त्र उसके सामने निष्प्रभावी हो गए और उसे कोई भी अस्त्र-शस्त्र प्रभावित नहीं कर पा रहा था। देवराज इंद्र सहित सभी देवता भयभीत होकर सहायता के लिए ब्रह्माजी के पास पहुंचे।
Brahmaji’s advice and Maharishi’s amazing sacrifice: ब्रह्माजी की सलाह और महर्षि का अद्भुत त्याग
ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि वृत्रासुर का वध केवल महर्षि दधीचि Maharishi Dadhichi की अस्थियों से बने विशेष वज्र से ही किया जा सकता है, क्योंकि उनकी हड्डियाँ असाधारण रूप से शक्तिशाली थीं। देवताओं के कल्याण के लिए यही एकमात्र उपाय था।
देवराज इंद्र, अपने पूर्व के एक अपमानजनक व्यवहार के कारण महर्षि दधीचि के पास जाने में हिचकिचा रहे थे। (एक कथा के अनुसार, इंद्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था और उनके सिर को धड़ से अलग करने की धमकी दी थी जब महर्षि ब्रह्म विद्या अश्विनीकुमारों को देने वाले थे; अश्विनीकुमारों ने महर्षि के धड़ पर अश्व का सिर लगाकर विद्या प्राप्त की थी, जिसके बाद इंद्र ने उनका असली सिर धड़ से अलग कर दिया था, जिसे बाद में अश्विनीकुमारों ने फिर से जोड़ा था।)। लेकिन वृत्रासुर के बढ़ते अत्याचारों के कारण, उन्हें आखिरकार महर्षि दधीचि के पास जाना पड़ा और अपनी समस्या बताई।
महर्षि दधीचि Maharishi Dadhichi ने, बिना किसी संकोच के, देवताओं और संसार के कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने का निर्णय लिया। भगवान शिव से प्राप्त वरदान के कारण उनका शरीर और अस्थियां असाधारण रूप से शक्तिशाली थीं। उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राणों का त्याग कर दिया, ताकि उनकी अस्थियों से वृत्रासुर का वध किया जा सके।
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Creation of Vajra and killing of Vritrasura:वज्र का निर्माण और वृत्रासुर का वध
महर्षि दधीचि Maharishi Dadhichi की पवित्र अस्थियों से देवशिल्पी विश्वकर्मा ने एक शक्तिशाली वज्र का निर्माण किया। देवराज इंद्र ने इसी वज्र का प्रयोग कर वृत्रासुर का वध किया और देवताओं को उसकी आतंक से मुक्ति दिलाई। इस महान बलिदान के कारण, देवताओं और पूरे संसार की रक्षा हुई, और इंद्र की जय-जयकार होने लगी।
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त्याग की विरासत और पिप्पलाद का जन्म:Legacy of renunciation and birth of Pippalad
महर्षि दधीचि Maharishi Dadhichi का यह बलिदान अनुपम है और सदियों से त्याग तथा निःस्वार्थ सेवा का प्रतीक रहा है। उनकी पत्नी गभस्तिनी को जब इस त्याग का पता चला, तो वह सती होने को तैयार हो गईं। देवताओं ने उन्हें रोका, यह बताते हुए कि वह गर्भवती हैं। तब देवताओं ने उनके गर्भ को निकालकर पीपल के वृक्ष को उसके पालन-पोषण का दायित्व सौंपा। इसी कारण दधीचि के पुत्र का नाम पिप्पलाद ऋषि पड़ा।
निष्कर्ष
महर्षि दधीचि जयंती हमें निस्वार्थता, त्याग और धर्म के प्रति अटूट निष्ठा की याद दिलाती है। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि जन कल्याण के लिए सर्वोच्च त्याग भी छोटा होता है। इस पावन दिन पर, हम उन महान ऋषि को नमन करते हैं जिन्होंने अपनी अस्थियों का दान कर मानवता की रक्षा की।