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  • Create Date October 9, 2023
  • Last Updated October 9, 2023

श्रीस्वप्नविलासामृताष्टकम् एक संस्कृत श्लोकों का संग्रह है जो राधा के प्रेम और उनके सपने में कृष्ण को देखने के अनुभव का वर्णन करता है। यह श्लोक 17वीं शताब्दी के संत और कवि, विश्वनाथ चक्रवर्ती द्वारा रचित किया गया था।

श्रीस्वप्नविलासामृताष्टकम् की शुरुआत राधा के सपने से होती है। सपने में, राधा कृष्ण को वृंदावन में नृत्य करते हुए देखती हैं। कृष्ण की सुंदरता और प्रेम में डूबी हुई, राधा खुद को कृष्ण के साथ नृत्य करते हुए पाती है।

श्लोकों में, राधा कृष्ण के प्रति अपने प्रेम और जुनून को व्यक्त करती है। वह कृष्ण को अपने जीवन का उद्देश्य और अपनी खुशी का स्रोत मानती है।

श्रीस्वप्नविलासामृताष्टकम् एक लोकप्रिय भक्ति ग्रंथ है। यह अक्सर राधा के प्रेम और कृष्ण के प्रति उनके भक्तिभाव को व्यक्त करने के लिए पढ़ा जाता है।

श्रीस्वप्नविलासामृताष्टकम् के कुछ प्रमुख श्लोक इस प्रकार हैं:

  • श्लोक 1:

प्रिये! स्वप्ने दृष्टा सरिदिनसुतेवात्र पुलिनं। यथा वृन्दारण्ये नटनपटवस्तत्र बहवः। मृदङ्गाद्यं वाद्यं विविधमिह कश्चिद्द्विजमणिः। स विद्युद्गौराङ्गः क्षिपति जगतीं प्रेमजलधौ॥

अर्थ:

प्रिय! स्वप्न में मैंने देखी एक नदी के किनारे एक पुलिन। जैसे वृंदावन में नृत्य करते हुए कई कलाकार। वहाँ एक ब्राह्मण ने विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाया। वह विद्युत के समान गोरा शरीर वाला था और प्रेम के जल से जग को नहलाता था।

  • श्लोक 2:

कदाचित्कृष्णेति प्रलपति रुदन् कर्हिचिदसौ। क्व राधे हा हेति श्वसिति पतति प्रोञ्झति धृतिम्। नटत्युल्लासेन क्वचिदपि गणैः स्वैः प्रणयिभि-। स्तृणादिब्रह्मान्तं जगदतितरां रोदयति सः॥

अर्थ:

कभी-कभी वह रोते हुए "कृष्ण" कहता था। कभी-कभी "कौन राधा?" कहकर वह श्वसित करता था और धैर्य खो देता था। कभी-कभी वह अपने प्रेमी-साथियों के साथ उल्लास से नाचता था और ब्रह्मांड के अंत तक जग को रोता था।

  • श्लोक 3:

ततो बुद्धिर्भ्रान्ता मम समजनि प्रेक्ष्य किमहो। भवेत्सोऽयं कान्तः किमयमहमेवास्मि न परः। अहं चेत्क्व प्रेयान्मम स किल चेत्क्वाहमिति मे। भ्रमो भूयो भूयानभवदथ निद्रां गतवती॥

अर्थ:

तब मेरा मन भ्रमित हो गया। मैंने सोचा, "क्या वह मेरा प्रिय है? क्या मैं खुद नहीं हूँ?" मैंने सोचा, "यदि मैं कहीं चली जाऊं, तो वह भी जाएगा। यदि मैं कहीं चली जाऊं, तो वह भी आएगा।" फिर मेरा मन और अधिक भ्रमित हो गया और मैं सो गई।

  • श्लोक 4:

प्रिये! दृष्ट्वा तास्ताः कुतुकिनि मया दर्शितचरी। रमेशाद्या मूर्तीर्न खलु भवती विस्मयमगात्। कथं विप्रो विस्मापयितुमशकत्त्वां तव कथं। तथा भ्रान्तिं धत्ते स हि भवति को हन्त किमिदम्॥

अर्थ:

प्रिय! मैंने उन कुतुकीनाओं को दिखाया, जिन्होंने उन आकृतियों को बनाया। रमेशाद्या मूर्ती नहीं हैं। उन्हें देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गई। कैसे एक विद्वान, जो आपको आश्चर्यचकित नहीं कर सकता, वह ऐसा भ्रम कैसे कर सकता है? यह क्या है?


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