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Devi Apradh Kshamapan Stotra (देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्): देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् माँ दुर्गा का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, यदि आपसे माँ दुर्गा की पूजा में कोई त्रुटी हो जाए है, आपको लगे की किसी ने आपके उपर तंत्र प्रयोग कर दिया है, जिसके कारण आपकी शक्ति काम नही कर रही है या नष्ट हो हई है, तो आप रात्रि के समय, 9 बजे से 11 बजे के बीच लाल के ऊनि आसन पर बैठकर, पूर्व दिशा की और मुख करके, देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् के 1,3, या 5 पाठ अवश्य ही करे, उसके बाद आप माँ दुर्गा की आरती करे।
Devi Apradh Kshamapan Stotra:इस तरह पाठ करने से माँ प्रसन्न होती है, और आपकी गलती को क्षमा करके माँ आपकों आशिर्वाद प्रदान करती है। यदि आप (Devi Apradh Kshamapan Stotra) देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् को संस्कृत में नही पाठ कर सकते तो, हिंदी में पाठ करे, तब भी आपको देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् का पूर्ण लाभ मिलेगा।
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।1।।
अर्थ – हे मातः ! मैं तुम्हारा मन्त्र, यंत्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जानता, परन्तु सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने वाला आपका अनुसरण करना ही जानता हूँ.
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।2।।
अर्थ: Devi Apradh Kshamapan Stotra सबका उद्धार करने वाली हे करुणामयी माता ! तुम्हारी पूजा की विधि न जान्ने के कारण, धन के आभाव में, आलस्य से और उन विधियों को अच्छी तरह न कर सकने के कारण, तुम्हारे चरणों की सेवा करने में जो भूल हुई हो उसे क्षमा करो, क्योंकि पूत तो कपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती.
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:
परं तेषां मध्ये विरलतरलोSहं तव सुत:।
मदीयोSयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।3।।
Devi Apradh Kshamapan Stotra:अर्थ: माँ ! भूमण्डल में तुम्हारे सरल पुत्र अनेको है पर उनमे एक मैं विरला ही बड़ा चंचल हूँ, तो भी हे शिवे ! मुझे त्याग देना तुम्हे उचित नहीं, क्योंकि पूत तो कपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती.
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।4।।
अर्थ: हे जगदम्ब ! हे मातः ! मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं की Devi Apradh Kshamapan Stotra अथवा तुम्हारे लिए प्रचुर धन भी समर्पण नहीं किया तो भी मेरे ऊपर यदि तुम ऐसा अनुपम स्नेह रखती हो तो यह सच ही है की क्योंकि पूत तो कपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती.
परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया
मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्।।5।।
अर्थ: हे गणेश जननी ! मैंने अपनी पचासी वर्ष से अधिक आयु बीत जाने पर Devi Apradh Kshamapan Stotra विविध विधियों द्वारा पूजा करने से घबड़ा कर सब देवों को छोड़ दिया है, यदि इस समय तुम्हारी कृपा न हो तो मैं निराधार होकर किस की शरण में जाऊं?
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकै:।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जन: को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ।।6।।
अर्थ: हे माता अपर्णे ! यदि तुम्हारे मंत्राक्षरों के कान में पड़ते ही चांडाल भी मिठाई के समान सुमधुरवाणी से युक्त बड़ा भारी वक्ता बन जाता है और महादरिद्र भी करोड़पति बन कर चिरकाल तक निर्भय विचरता है तो उसके जप का अनुष्ठान करने पर जपने से जो फल होता है, उसे कौन जान सकता है?
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपति:।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्।।7।।
अर्थ: जो चिता का भस्म रमाए है, विष खाते है, नंगे रहते है, जटाजूट बांधे है, गले में सर्पमाला पहने है, Devi Apradh Kshamapan Stotra हाथ में खप्पर लिए है, पशुपति और भूतों के स्वामी है, ऐसे शिवजी ने भी जो एकमात्र जगदीश्वर की पदवी प्राप्त की है, वह हे भवानि ! तुम्हारे साथ विवाह होने का ही फल है.
न मोक्षस्याकाड़्क्षा भवविभववाण्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुन:।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपत:।।8।।
अर्थ: हे चंद्रमुखी माता ! मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, सांसारिक वैभव की भी लालसा नहीं है, विज्ञान तथा सुख की भी अभिलाषा नहीं है, इसलिए मैं तुमसे यही मांगता हूँ कि मेरी साड़ी आयु मृडानी, रुद्राणी, शिव-शिव, भवानी आदि नामो के जपते-जपते ही बीते.
नाराधितासि विधिना विविधोपचारै:
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभि:।
श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव।।9।।
अर्थ: हे श्याम ! मैंने अनेको उपचारों से तुम्हारी सेवा नहीं कि (यही नहीं, इसके विपरीत) Devi Apradh Kshamapan Stotra अनिष्ट चिंतन में तत्पर अपने वचनों से मैंने क्या नहीं किया? (अर्थात अनेकों बुराइयाँ कि है) फिर भी मुझ अनाथ पर यदि तुम कुछ कृपा रखती हो तो यह तुम्हे बहुत ही उचित है, क्योंकि तुम मेरी माता हो.
आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा:
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति।।10।।
अर्थ – हे दुर्गे ! हे दयासागर माहेश्वरी ! जब मैं किसी विपत्ति में पड़ता हूँ तो तुम्हारा ही स्मरण करता हूँ, इसे तुम मेरी दुष्टता मत समझना, क्योंकि भूखे-प्यासे बालक अपनी माँ को याद किया करते हैं.
जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम्।।11।।
अर्थ: हे जगज्जननी ! मुझ पर तुम्हारी पूर्ण कृपा है, इसमें आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि अनेक अपराधों से युक्त पुत्र को भी माता त्याग नहीं देती.
मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु।।12।।
अर्थ: हे महादेवी ! Devi Apradh Kshamapan Stotra मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे समान कोई पाप नाश करने वाली नहीं है, यह जानकार जैसा उचित समझो, वैसा करो.
इति श्रीमच्छंकराचार्यकृतं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्।