वट सावित्री व्रत विवाहित हिंदू महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण व्रत है जिसे पारंपरिक पंचांग के अनुसार ‘ज्येष्ठ’ के महीने में पूर्णिमा या ‘अमावस्या तिथि पर मनाया जाता है। इसका उपवास अनुष्ठान ‘त्रयोदशी’ से शुरू होता है और पूर्णिमा या अमावस्या पर समाप्त होता है। प्रायः अनेक हिंदू त्योहार पूर्णिमा या अमावस्या पर आयोजित होते हैं और केवल उसी एक दिन ही मनाए जाते हैं। केवल वट सावित्री व्रत एक ऐसा अपवाद है जो पूर्णिमा और अमावस्या दोनों दिनों में मनाया है। ज्येष्ठ अमावस्या वाले दिन इसे ‘शनि जयंती’ के रूप में भी मनाया जाता है। गुजरात, महाराष्ट्र और भारत के दक्षिणी राज्यों में विवाहित महिलाएं इसे पूर्णिमा वाले मनाती हैं और उत्तर भारत की महिलायें अमावस्या वाले दिन। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इस व्रत का संबंध वट के वृक्ष और सावित्री के साथ है, इसलिए इसे वट सावित्री व्रत के नाम से संबोधित किया जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन महिलाओं को व्रत के साथ-साथ मौन भी धारण करना चाहिए। मौन धारण करने से महिलाओं को हजारों गौओं के दान जितना पुण्य एकसाथ ही मिल जाता है। कहा जाता है कि वट वृक्ष का पूजन और व्रत करके ही सावित्री ने यमराज से अपने पति को वापस पा लिया था। तभी से पति की लंबी आयु के लिए इस व्रत का विधान प्रचलित हो गया।

वट सावित्री व्रत का महत्व

वट सावित्री व्रत की महिमा का उल्लेख कई हिंदू पुराणों जैसे ‘भविष्योत्तर पुराण’ और ‘स्कंद पुराण’ में किया गया है। वट सावित्री व्रत पर ‘वट’ या बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, बरगद का पेड़ ‘त्रिमूर्ति’ अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है। पेड़ की जड़ें भगवान ब्रह्मा का प्रतिनिधित्व करती हैं, तना भगवान विष्णु का प्रतीक है और पेड़ का ऊपरी भाग भगवान शिव है। इसके अलावा पूरा ‘वट’ वृक्ष ‘सावित्री‘ का प्रतीक है। महिलाएं अपने पति की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस दिन एक पवित्र उपवास रखती हैं और अपने अच्छे भाग्य और जीवन में सफलता के लिए प्रार्थना भी करती हैं।

व्रत की विधि

इस दिन सुबह स्नान आदि दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर एक बांस की टोकरी लेकर उसमें सात प्रकार के धान्य रखें और भगवान् ब्रह्मा की मूर्ति प्रतिष्ठापित करके उसके बाईं ओर एक दूसरी बांस की टोकरी रखें और इसी प्रकार उसमें सत्यवान् और सावित्री की मूर्ति प्रतिष्ठापित करके दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे ले जाकर रख दें। दोनों टोकरियों में प्रतिष्ठापित मूर्तियों की मौली, रोली, कच्च सूत, भीगे हुए चने और जल से पूजा आदि करके वट वृक्ष के मूल में जल का सिंचन करना चाहिये। वृक्ष का सिंचन करके वृक्ष के तने के चारों ओर सूत लपेटकर तीन बार वृक्ष की परिक्रमा और घर लौटकर अपनी सास आदि के पांव छूकर उनका आशीर्वाद ग्रहण करें।

वट सावित्री व्रत की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल मे एक राजा थे अश्वपति। उनकी एक ही संतान थी सावित्रीसावित्री वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान से विवाह करना चाहती थी। नारद जी ने सावित्री को बताया कि सत्यवान की आयु बहुत कम है। फिर भी सावित्री ने अपना निर्णय नहीं बदला और सत्यवान से ही विवाह के लिए अड़ी रही। विवाह के बाद वह राज वैभव त्याग कर सत्यवान के साथ उनके परिवार की सेवा करने के लिए वन में ही रहने लगी।

जिस दिन सत्यवान की मृत्यु हुई, उस दिन वह लकड़ियां काटने के लिए जंगल गए हुए थे। वहां वह अचानक मूर्च्छित होकर गिर पड़े। थोड़ी ही देर में यमराज ने सत्यवान के प्राण ले लिए। 3 दिनों से उपवास में रह रही सावित्री उस बात को जानती थी। इसलिए वह बिना व्याकुल हुए यमराज से सत्यवान के प्राण लौटाने की प्रार्थना करने लगीं। लेकिन यमराज ने उसकी नहीं सुनी और सत्यवान को लेकर यमलोक की तरफ चल दिये। यह देखकर सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे चलने लगी।

यमराज ने सावित्री से बहुत बार लौटने के लिए कहा लेकिन सावित्री अपनी जिद पर अड़ी रही कि मैं बिना अपने पति के वापस नहीं जाऊंगी। अन्यथा मुझे भी अपने साथ ले चलो। सावित्री का यह साहस और त्याग देखकर यमराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यवान के प्राण लौटा दिए

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