पूर्वकाल में उत्कल (उड़ीसा) प्रदेश के शबरपल्ली नगर में विश्ववसु नामक एक व्यक्ति रहता था। वह विष्णु का भक्त था। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान नीलमाधव साकार रूप में उसके हाथ से नैवेद्य ग्रहण करते थे। नीलमाधव की मूर्ति एक ऐसी गुफा में थी जिसका पता विश्ववसु के सिवा किसी को न था।
उत्कल के राजा इन्द्रद्युम्न भी विष्णु के भक्त थे। भगवान उन्हें दर्शन दें, इसके लिए वह हमेशा विष्णु की पूजा में लगे रहते, पर उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो रही थी। एक दिन उनकी सभा में कुछ संन्यासी आए। उन्होंने नीलमाधव की प्रकट लीला की चर्चा की। यह भी कहा कि वह प्रकट होकर स्वयं नैवेद्य ग्रहण करते हैं, पर वह मूर्ति कहां है, इसका पता उन्हें भी नहीं था।
राजा इन्द्रद्युम्न ने नीलमाधव की मूर्ति का पता लगाने के लिए चारों ओर पुरोहितों को भेजा। उन्हीं खोजियों में राज-पुरोहित विद्यापति भी थे। घूमते-घूमते वह शबरपल्ली नगर में पहुंचे और विश्ववसु के यहां ही ठहरे।
विश्ववसु की पुत्री ललिता विद्यापति पर मोहित हो गई। विद्यापति भी ललिता की तरफ आकर्षित हो गए।
विश्ववसु नित्य प्रात: घर से निकल जाते और रात देर से घर लौटते। लौटने पर विश्ववसु के शरीर से चन्दन की अद्भुत सुगन्ध निकलती थी। विद्यापति को इससे बड़ा आश्चर्य होता था। एक दिन उसने ललिता से पूछा कि तुम्हारे पिता नित्य प्रात: कहां जाते हैं ?
ललिता ने बताया कि बाबा नित्य भगवान नीलमाधव की पूजा के लिए जाते हैं। विद्यापति ने विश्ववसु से श्रीमूर्ति के दर्शन कराने का बड़ा आग्रह किया, परन्तु विश्ववसु राजी न हुए। आखिरकार विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने पिता को राजी करे कि उसे श्रीमूर्ति के दर्शन एक बार अवश्य करा दें।
एक दिन ललिता ने अपने पिता से विशेष रूप से आग्रह किया कि वह विद्यापति को श्रीमूर्ति के दर्शन करा दें।
बेटी के आग्रह के आगे विश्ववसु को झुकना पड़ा। आखिर एक शर्त पर वह राजी हुए कि विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर उसे श्रीमूर्ति तक ले जाएंगे। फिर पट्टी बांधकर वापस लाएंगे।
विद्यापति विश्ववसु की शर्त पर राजी हो गए। गुफा तक पहुंचने के मार्ग का पता चल जाए, इसके लिए विद्यापति ने एक चालाकी की। वह अपने साथ सरसों के दाने छिपाकर ले गए और चुपके-चुपके रास्ते में बिखेरते गए, ताकि बाद में उन दानों के उग जाने पर उस मार्ग का पता चल जाए। ।
गुफा के अन्दर श्रीमूर्ति के पास पहुंचते ही विश्ववसु ने विद्यापति की आंखों की पट्टी खोल दी।
नीलमाधव की दिव्य मूर्ति देखकर विद्यापति चकित हो गए। वह सन्तुष्ट भी थे कि गुफा का पता चल गया है।
विद्यापति राजा इन्द्रद्युम्न के पास पहुंचे। उन्हें भगवान नीलमाधव की श्रीमूर्ति का पता लगाने के बारे में बताया। राजा अपने मन्त्री तथा सभासदों को लेकर विद्यापति के साथ नीलमाधव के दर्शन के लिए चल पड़े।
गुफा में पहुंचने पर राजा ने देखा, मूर्ति तो वहां है ही नहीं। राजा बड़े दुखी हुए। उन्हें क्रोध भी आया। सोचा-मूर्ति को छिपा देने में विश्ववसु का हाथ है। विश्ववसु नहीं चाहते कि पूजा-अर्चना का उसका एकाधिकार समाप्त हो जाए। बस, राजा ने विश्ववसु को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन मूर्ति का फिर भी पता न चला।
भगवान नीलमाधव के दर्शन न कर पाने से राजा इतने दुखी हुए कि उन्हें जीवन बेकार लगने लगा। इसी सोच में डूबे थे कि उन्हें एक आवाज सुनाई दी
“श्रीमूर्ति का दर्शन न कर पाने की तुम्हारी दशा को मैं समझता हूं, पर इसमें विश्ववसु का कोई दोष नहीं है। उसे मुक्त कर दो। मैं स्वयं लुप्त हो गया हूं, जाओ, अपनी राजधानी ‘पुरी’ में नीलगिरि पर मन्दिर का निर्माण करो। उसमें मेरी दारु वृक्ष की लकड़ी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करो। तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी।”
देव-वाणी सुनकर राजा को बड़ा सन्तोष हुआ। वह राजधानी लौट आए। विश्ववसु को मुक्त कर दिया। पुरी में नीलगिरि पहाड़ी पर मन्दिर का निर्माण कराने लगे, पर दारुवृक्ष की लकड़ी की मूर्ति की प्रतिष्ठा कैसे होगी?—इसकी चिन्ता उन्हें सता रही थी। मन्दिर लगभग बन गया, तो एक रात को स्वप्न आया कि समुद्र में तैरता हुआ एक दारु किनारे आ लगा है। इस दारु से श्रीमूर्ति का निर्माण कराओ। राजा अपने मन्त्रियों के साथ समुद्र के किनारे उस स्थान पर गए, जहां स्वप्न में उन्हें दारु दिखाई दिया था। देखा तो सचमुच ही एक विशाल दारु वृक्ष समुद्र तट पर विद्यमान था। उस विशाल दारु पर शंख, चक्र, गदा तथा पद्म के चिह्न स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।
दारु को रस्से से बांधा गया। हाथियों से खिंचवाकर बाहर लाने का प्रयत्न होने लगा, पर आश्चर्य, दारु एक इंच भी न हिला। राजा चिन्तित हो फिर भगवान विष्णु का स्मरण करने लगे, तो सुनाई पड़ा-“मेरे भक्त विश्ववस को बुलाओ। उसकी तथा विद्यापति की मदद से इस दारु को स्वर्ण-रथ पर चढाकर मन्दिर की वेदी तक ले जाओ।”
ऐसा ही किया गया। फिर उस दारु को श्रीमूर्ति के रूप में तराशने के लिए कुशल शिल्पियों को बुलवाया गया। जो भी शिल्पी उस दारु पर चोट करता, औजार टूट जाता। अनेक प्रयासों के बावजूद उस दारु का एक कोना भी न छीला जा सका।
राजा को बड़ी चिन्ता हुई। इस चिन्ता में भगवान विष्णु का स्मरण करते हुए उन्हें नींद आ गई।
दूसरे दिन अचानक एक वृद्ध बढ़ई आया। राजा से बोला-“महाराज, मैं इक्कीस दिन में उस दारु से श्रीमूर्ति का निर्माण कर दूंगा। एक ही शर्त है कि इन इक्कीस दिनों तक मन्दिर का मुख्य द्वार बन्द रहेगा। अन्दर मैं अकेला मूर्ति का निर्माण करूंगा।”
राजा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने काम वृद्ध को सौंप दिया। मन्दिर का मुख्य द्वार बाहर से बन्द कर दिया। ठक-ठक का स्वर बाहर सुनाई देने लगा। दो हफ्ते बाद अचानक आवाज बन्द हो जाने के कारण राजा को चिन्ता हुई। उन्होंने सोचा कहीं ऐसा तो नहीं, अन्दर वृद्ध शिल्पी का देहान्त हो गया हो। उन्होंने इक्कीस दिन के पूर्व ही द्वार खोलकर देखना चाहा कि अन्दर क्या स्थिति है? द्वार खोलकर ज्यों ही वह भीतर गए, देखा कि वृद्ध शिल्पी का कहीं पता नहीं और उस दारु से तीन
मूर्तियों का अधूरा निर्माण हुआ पड़ा है। मूर्तियों में हाथ की उंगलियां तथा पैर भी प्रकट नहीं हुए थे।
राजा को लगा, उनकी सारी साधना व्यर्थ गई। दुख के कारण उन्होंने अन्न जल त्याग दिया। रात को एकान्त में राजा को लगा, जैसे उन अधूरी मूर्तियों में से स्वयं भगवान नीलमाधव प्रकट होकर खड़े हैं और कह रहे हैं—’राजा, दुखी मत हो। मैं ही शिल्पी के रूप में अपनी मूर्ति स्वयं तैयार करने आया था, पर तुमने समय से पूर्व अपना धीरज खो दिया। चिन्ता मत करो। मैं इसी रूप में नीलांचल में निवास करूंगा। हाथ-पैर दिखाई न देने पर भी इसी रूप में भक्तों की पूजा-अर्चना तथा नैवेद्य ग्रहण करूंगा।’
साक्षात् नीलमाधव को अपने सामने देखकर राजा विह्वल हो उठे। उनकी मनोकामना जैसे पूरी हो गई। बोले- “हे पतितपावन, आपकी महिमा न्यारी है। आपने स्वयं चलकर मुझे दर्शन दिए हैं। मेरी एक मनोकामना और पूरी करें।”
भगवान नीलमाधव ने हाथ उठाकर कहा- “बोलो।”
राजा ने कहा-“भक्त श्रेष्ठ विश्ववसु, जो आपकी पूजा-अर्चना करता रहा, उसके वंशधर कभी समाप्त न हों। वे श्रीमन्दिर में सदा आपकी सेवा करते रहें। जिन विश्वकर्माओं ने विग्रह तथा रथ का निर्माण किया है, उनके वंशधर भी इसी प्रकार इस कार्य में लगे रहें। ब्राह्मण विद्यापति की पत्नी की सन्तानें वंश-परम्परा से आपकी पूजा-अर्चना करती रहें और शबर पत्नी की सन्तानें आपके भोग-कार्य में लगी रहें।”
भगवान नीलमाधव ने प्रसन्न होकर कहा-“राजन! तुम्हारी यह मनोकामना पूरी होगी। तुमने सबके लिए तो मांग लिया, पर अपने लिए कुछ नहीं मांगा। अपने लिए भी तो कुछ मांगो।”
राजा इन्द्रद्युम्न ने सिर झुकाकर हाथ जोड़े। कहा-“प्रभो, मेरी वंश-परम्परा मुझसे ही समाप्त कर दें, ताकि मेरे वंश में आगे चलकर आपकी अद्भुत कृपा लीला से कोई अविनीत तथा अहंकारी होने को न रहे।”
भगवान नीलमाधव स्वीकृति देते हुए बोले-” श्रीकृष्ण के रूप में द्वापर में मैंने भी आदिशक्ति से इसी प्रकार अपने कुल के नाश का वर मांगा था। राजन तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। श्रीमन्दिर का निर्माण कर मेरे दारु ब्रह्म की प्रतिष्ठा के लिए तुमने जो कुछ किया है, इससे भक्तों में तुम्हारी कीर्ति वंश-परम्परा समाप्त ङ्केहोने पर भी सदा अमर रहेगा। भगवान जगन्नाथ के मन्दिर में आज भी विश्ववसु, विद्यापति तथा शबर जाति के वंशधर भगवान जगन्नाथ की सेवा, पूजा-अर्चना तथा भोग-रंधन काम में लगे हुए हैं।