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- Create Date October 30, 2023
- Last Updated October 30, 2023
Chauraashtakam
चौराष्टकम एक संस्कृत स्तोत्र है जो भगवान कृष्ण की स्तुति करता है। यह स्तोत्र 8 श्लोकों में रचित है और इसमें भगवान कृष्ण के रूप और गुणों का वर्णन किया गया है।
स्तोत्र का प्रारंभ भगवान कृष्ण के रूप और गुणों के वर्णन से होता है। स्तोत्र में भगवान कृष्ण को एक चोर के रूप में वर्णित किया गया है, जो अपने भक्तों के दिलों को चुरा लेते हैं।
चौराष्टकम का पाठ करने से भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। यह स्तोत्र भक्तों को भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति को बढ़ावा देता है।
चौराष्टकम के 8 श्लोक इस प्रकार हैं:
1. व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं गोपाङ्गनानां च दुकूलचौरं । अनेकजन्मार्जितपापचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥ १ ॥
अर्थ:
वृंदावन में प्रसिद्ध नवनीत चोर, गोपियों के दुकूल चोर, अनेक जन्मों के पापों को चुराने वाले, चोरों के नेता पुरुष को मैं नमस्कार करता हूं।
2. श्रीराधिकायां हृदयस्य चोरं नवम्बुदश्यामलकान्तिचौरम् । पदाश्रितानां च समस्तचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥ २ ॥
अर्थ:
श्रीराधा के हृदय की चोर, नवनीत की श्यामली कांति की चोर, अपने भक्तों के सभी पापों की चोर, चोरों के नेता पुरुष को मैं नमस्कार करता हूं।
3. अकिञ्चनीकृत्य पदाश्रितं यः करोति भिक्षुं पथि गेहहीनम् । केनाप्यहो भीषणचौर ईदृग् दृष्टः श्रुतो वा न जगत्त्रयेऽपि ॥ ३ ॥
अर्थ:
जो अपने भक्तों को अकिञ्चन बनाकर, उन्हें मार्ग में घर से विहीन भिक्षु बना देता है, ऐसा भीषण चोर कभी भी किसी ने नहीं देखा या सुना है।
4. यदीय नामापि हरत्यशेषं गिरिप्रसारान् अपि पापराशीन् । आश्चर्यरूपो ननु चोर ईदृग् दृष्टः श्रुतो वा न मया कदापि ॥ ४ ॥
अर्थ:
जिसकी नाम मात्र से अनेक जन्मों के पापों का नाश हो जाता है, वह चोर भी आश्चर्यजनक है। ऐसा चोर मैंने कभी नहीं देखा या सुना है।
5. धनं च मानं च तथेन्द्रियाणि प्राणांश्च हृत्वा मम सर्वमेव । पलाशवृक्षस्य कोटरस्थं त्वं लप्यसे कुशलः कथं चोर ॥ ५ ॥
अर्थ:
मेरे धन, मान, इंद्रियों और प्राणों को लेकर, तुम पलाश के वृक्ष के कोटर में छिपे हो, तुम कुशल चोर कैसे हो?
6. छिनत्सि घोरं यमपाशबन्धं भिनत्सि भीमं भवपाशबन्धम् । छिनत्सि सर्वस्य समस्तबन्धं नैवात्मबन्धं कुरुषे चोर ॥ ६ ॥
अर्थ:
तुम घोर यमपाशबंधन को छीन लेते हो, भयानक भवपाशबंधन को तोड़ देते हो, सभी के सभी बंधनों को छीन लेते हो, लेकिन अपने भक्तों के आत्मबंधन को नहीं तोड़ते हो।
7. मन-मानसे तामसराशिघोरे कारागृहे दुःखमये निबद्धः । लभसि चातुर्येण भक्तिपाशदृढं कैवटत्वं कथं चोर ॥ ७ ॥
अर्थ:
मन-मानस की तामसी राशी के घोर कारागृह में, दुखमय बन्धन में बंधे हुए, तुम भक्तिपाश से दृढ़ कैवटत्व को अपनी चतुराई से कैसे प्राप्त करते
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