पौराणिक कथाओं के अनुसार इस ब्रह्मांड के सृष्टि बनने से पहले पृथ्वी एक अंतहीन शक्ति थी। सृष्टि बनने के बाद भगवान विष्णु पैदा हुए और भगवान विष्णु (Lord Vishnu) की नाभि से पैदा हुए भगवान ब्रह्मा। पृथ्वी पर पैदा होने के बाद कई सालों तक इन दोनों में युद्ध होता रहा है। दोनों आपस में एक दूसरे को ज्यादा शक्तिशाली मानते रहे। तभी आकाश में एक चमकता हुआ पत्थर दिखा और आकाशवाणी हुई कि जो इस पत्थर का अंत ढूंढ लेगा, उसे ही ज्यादा शक्तिशाली माना जाएगा। वह पत्थर शिवलिंग था।
भगवान शिव को भक्त शिवशंकर, त्रिलोकेश, कपाली, नटराज समेत कई नामों से पुकराते हैं। भगवान शिव की महिमा अपरंपार है। हिंदू धर्म में भगवान शिव की मूर्ति व शिवलिंग दोनों की पूजा का विधान है। कहते हैं कि जो भी भक्त भगवान शिव की सच्ची श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता है, उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है। धार्मिक शास्त्रों में शिवलिंग का महत्व बताया गया है. शिवलिंग को इस ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है. तो चलिए पंडित इंद्रमणि घनस्याल से जानते हैं शिवलिंग से जुड़ी कुछ रोचक बातें।
मान्यता है कि शिवलिंग की पूजा समस्त ब्रह्मांड की पूजा के बराबर मानी जाती है, क्योंकि शिव ही समस्त जगत के मूल हैं। शिवलिंग के शाब्दिक अर्थ की बात की जाए तो ‘शिव’ का अर्थ है ‘परम कल्याणकारी’ और ‘लिंग’ का अर्थ होता है ‘सृजन’। लिंग का अर्थ संस्कृत में चिंह या प्रतीक होता है।
इस तरह शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक। भगवान शिव को देव आदिदेव भी कहा जाता है। जिसका मतलब है कोई रूप ना होना। भगवान शिव अनंत काल और सृजन के प्रतीक हैं। भगवान शिव प्रतीक हैं, आत्मा के जिसके विलय के बाद इंसान परमब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
शिव जी की पूजा ही क्यों होती है लिंग रूप में, जानें अद्भुत रहस्य
महार्षि भृगु जी द्वारा रचित ग्रंथ भृगु संहिता जो कि ताम्र पत्रों पर लिखित सुल्तानपुर लोधी में स्थित है। इस प्राचीन ग्रंथ में भगवान शिव जी की शिवलिंग के रूप में ही क्यों पूजा होती है सवाल का ऑथेंटिकेट जवाब लिखा हुआ है। ग्रंथ को पढ़ने वाले महायश वाचक श्री मुकेश पाठक जी ने बताया की भगवान शिव की पूजा भी लिंगाकृति में होती है इसका भी कारण है भृगु जी द्वारा दिया गया श्राप।
त्रिदेवों में से सर्वश्रेष्ठ कौन हैं ? इसकी परीक्षा लेने के लिये भृगु जी महाराज पहले सृष्टि रचियता ब्रह्मा जी के पास गये परन्तु सर्वश्रेष्ठ होने का गुण न पाकर फिर भगवान शंकर के पास कैलाश गये। शिव जी समाधी में लीन थे, उनके गणों ने भृगु जी को मिलने से मना कर दिया। महर्षि होने के कारण किसी भी स्थान पर जाने के लिय कोई रोक टोक नहीं थी। फिर भी महर्षि ने कहा कि, कृपा आप उन्हें मेरे आने का संदेशा अवश्य दें परन्तु शिव जी के गण हरगिज मानने को तैयार ना थे और ऐसा वाद-विवाद हो गया कि गणों ने भृगु जी का अपमान करना आरम्भ कर दिया। उनको मारने के लिये त्रिशूल इत्यादि शस्त्रों को साथ लेकर भृगु जी के पीछे-पीछे भागने लगे। अब भृगु जी ठहरे महर्षि उनके पास कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं था। अगर था तो केवल एक कमंडल। भागते-भागते भृगु जी एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां आकर वह ठहर गये और उनको क्रोध आ गया और मन ही मन सोचने लगे कि हे शंकर जी आज मैं आपके पास आया तो किसी और काम से था। आज तो मैंने आपको एक बहुत बड़ी उपाधी से सुशोभित करना था परन्तु आपके गणों ने मेरी यह हालत कर दी।
इस हालात पर क्रोधित होकर महार्षि भृगु जी ने भगवान शंकर जी को श्राप दे दिया कि जाओ आपकी भी कलयुग में पूजा न हो। श्राप मिलते ही भगवान शंकर का तीसरा नेत्र खुल गया और महर्षि के सामने उपस्थित हो गये। कहने लगे, “हे भृगु ! अपना दिया श्राप वापिस लो क्योंकि इस सृष्ठि के निर्माण करने में मेरा भी नाम आता है। अगर मुझे ही इस सृष्टि से बाहर निकाल दोगे तो इस सृष्टि में कुछ नहीं बचेगा। अगर हम सृष्टि बना सकते हैं तो इसका विनाश भी कर सकते हैं। जब भृगु जी ने इस पर गंभीरता से विचार किया तो सोचने लगे कि यह कहते तो ठीक हैं – अगर बना सकते हैं तो बिगाड़ भी सकते हैं।
भृगु जी का भी क्रोध शांत हुआ और शंकर जी को कहा, हे शंकर जी दिया गया श्राप तो वापिस नहीं हो सकता परन्तु इसमें कुछ परिवर्तन किया जा सकता है। शंकर जी श्राप के परिवर्तन के लिये सहमत हो गये। तब महार्षि ने पूछा प्रभु क्या आप अब प्रसन्न हैं, तो शंकर जी ने सहमती जतायी। तब महर्षि भृगु जी बोले कि आपकी कलयुग में पूजा अवश्य होगी परन्तु जो यह शरीरिक आकार लिये हुए हो, इस रूप में पूजा न होकर ब्रह्मांड रूपी लिंग आकृति में होगी। यही भृगु जी का श्राप ही सबसे बडा कारण है कि – भगवान शंकर की पूजा एक लिंग की आकृति में होती है। तब भगवान शंकर जी ने महार्षि भृगु को आर्शीवाद दिया। हे महर्षि! आप जिस कार्य में लगे हुए हैं, आपका वह कार्य पूर्ण हो। धार्मिक ग्रंथों में लिखा गया है कि – संत वचन पलटे नहीं पलट जाये ब्रह्मांड।
कैसे हुई शिवलिंग की उत्पत्ति
पौराणिक कथा के अनुसार, सृष्टि बनने के बाद भगवान विष्णु और ब्रह्माजी में युद्ध होता रहा। दोनों खुद को सबसे अधिक शक्तिशाली सिद्ध करने में लगे थे। इस दौरान आकाश में एक चमकीला पत्थर दिखा और आकाशवाणी हुई कि इस पत्थर का जो भी अंत ढूंढ लेगा, वह ज्यादा शक्तिशाली माना जाएगा. मान्यता है कि वह पत्थर शिवलिंग ही था। पत्थर का अंत ढूंढने के लिए भगवान विष्णु नीचे तो भगवान ब्रह्मा ऊपर चले गए परंतु दोनों को ही अंत नहीं मिला. तब भगवान विष्णु ने स्वयं हार मान ली. लेकिन ब्रह्मा जी ने सोचा कि अगर मैं भी हार मान लूंगा तो विष्णु को ज्यादा शक्तिशाली समझा जाएगा। इसलिए ब्रह्माजी ने कह दिया कि उनको पत्थर का अंत मिल गया है। इसी बीच फिर आकाशवाणी हुई कि मैं शिवलिंग हूं और मेरा ना कोई अंत है, ना ही शुरुआत और उसी समय भगवान शिव प्रकट हुए।
शिवलिंग का अर्थ
शिवलिंग दो शब्दों से बना है. शिव व लिंग, जहां शिव का अर्थ है कल्याणकारी और लिंग का अर्थ सृजन। शिवलिंग के दो प्रकार हैं, पहला ज्योतिर्लिंग और दूसरा पारद शिवलिंग। ज्योतिर्लिंग को इस पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है. ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं. कहते हैं कि मन, चित्त, ब्रह्म, माया, जीव, बुद्धि, आसमान, वायु, आग, पानी और पृथ्वी से शिवलिंग का निर्माण हुआ है।