पौराणिक कथा

कथा यह है कि मां लक्ष्मी जी का अवतार सीता माता अपने पिछले जन्म में मुनि कुषध्वजा की बहुत ही सुंदर पुत्री वेदावती थी। वे भगवान विष्णु की भक्त थी वे हर समय केवल उनकी पूजा में ही लीन रहती थी, उनका प्रण था कि वे भगवान विष्णु के अतिरिक्त किसी और से विवाह नही करेंगी। उनके पिता एक ऋषि थे, वे अपनी बेटी के इस प्रण को अच्छी तरह से जानते थे, उन्होनें कभी अपनी पुत्री को अपना मन बदलने के लिए विवष नही किया। पुत्री की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होनें पुत्री के लिए आए अनेकों षक्तिषाली राजाओं और देवताओं के रिष्तों को मना कर दिया। मना किए गए रिष्तों में से एक रिष्ता दैत्यों के षक्तिषाली राजा षंभु का भी था। रिष्ते के लिए न मिलने पर दानव षंभु ने इसे अपना अपमान समझा और अपने अपमान का बदला लेने के उद्देष्य से मौका देखकर वेदावती के माता पिता का वध कर दिया।

अपने माता पिता की मृत्यु के बाद वेदावती संसार में बिलकुल अकेली और अनाथ हो गई वे अपने पिता के आश्रम में ही रहने लगी और सारा समय भगवान विष्णु का ध्यान करने लगी। वेदावती बहुत ही खुबसूरत थी और उनकी तपस्या ने उन्हें पहले से भी अधिक सुंदर बना दिया था। एक बार लंका के राजा रावण ने उसे जंगल में भगवान विष्णु के लिए तपस्या करते हुए देखा वो वेदावती की सुंदरता पर मोहित हो गया उसने वेदावती के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा परन्तु उसे भी न में ही जवाब मिला। न में जवाब मिलने पर रावण ने वेदावती की तपस्या भंग कर दी और उनके बालों को पकड़़कर उन्हें घसीटने लगा। ंरावण के इस कुकृत्य से क्रोधित वेदावती ने अपने बाल काट दिए और कहा कि वो वहीं उसकी आखों के सामने ही अग्नि में कूदकर अपने प्राणों का त्याग करेगीं। अग्नि में प्रवेष करते समय वेदावती ने कहा कि रावण ने इस जंगल में उन्हें अपमानित किया है वो दोबारा से जन्म लेकर उसके विनाष का कारण बनेगीं। वो वेदावती ही थीं जो सीता के रुप में जन्मीं और राम जी के माध्यम से रावण के विनाष का कारण बनी।


जब वेदावती का जन्म सीता जी के रुप में हुआ तो वे मिथिला नरेष राजा जनक को उनकें खेतों में जुताई करते समय भूमि पर लेटी हुई मिली। उनकी दैविक सुंदरता से प्रभावित होकर राजा जनक ने उन्हें अपनी पुत्री के रुप में स्वीकार कर लिया। देवी सीता को जानकी, वैदही, मैथली तथा और अन्य नामों से भी जाना जाता है। वे राजा जनक को भूमि पर पड़ी हुई मिली थी इसलिए उन्हें भूदेवी की संतान भी माना जाता है।

राजा जनक की पुत्री सीता

 माना जाता है कि एक बार मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा. उस समय मिथिला के राजा जनक थे. वे बहुत ही ज्ञानी एवं पुण्यात्मा थे. वे प्रजा के हित में धर्म कर्म के कार्यों में बढ़ चढ़कर रूचि लेते थे. ऋषि-मुनियों ने उन्हें सुझाव दिया कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाकर भूमि जोते तो देवराज इंद्र की कृपा से ये अकाल दूर हो सकता है. प्रजा के हित में राजा ने खुद हल चलाने का निर्णंय लिया. हल चलाते-चलाते एक जगह आकर हल अटक गया. राजा ने देखा कि एक सुंदर स्वर्ण कलश है जिसमें हल की नोक अटकी हुई है. कलश को बाहर निकाला तो उसमें एक अति सुन्दर दिव्य ज्योति लिए नवजात कन्या है. धरती मां के आशीर्वाद स्वरूप राजा जनक ने इस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया. क्योंकि, हल की नोक को सीत कहा जाता है इसलिए राजा जनक ने इस कन्या का नाम सीता रखा गया. जहां पर उन्होंने हल चलाया वे स्थान वर्तमान में बिहार के सीतामढ़ी के पुनौरा राम गांव को बताया जाता है.

रावण और मंदोदरी की पुत्री सीता

रामायण में इस बात का उल्लेख किया गया है कि ‘रावण कहता है कि जब मैं भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूं तब वही मेरी मृत्यु का कारण बने.’ रामायण की कथा के अनुसार गृत्स्मद नाम का ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था. एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया तब रावण इनकी कुटिया में आया और उस जगह पर मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया. यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया. रावण ने कहा कि ये अति तीक्ष्ण विष हैं. इसे संभालकर रख दो. मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दुखी थी और मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया. इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गई. ऐसे में मंदोदरी ने सोचा कि जब मेरे पति मेरे पास नहीं है. उन्हें इस बात का पता चलेगा. तो वे क्या सोचेंगे. यही सब सोचते हुए मंदोदरी तीर्थ यात्रा के बहाने कुरुक्षेत्र चली गई. कहा जाता है कि वहीं पर उसने गर्भ को निकालकर एक घड़े में रखकर भूमि में दफन कर दिया और सरस्वती नदी में स्नान करके वे वापस लंका लौट गई. माना जाता है कि वही घड़ा हल चलाते वक्त मिथिला के राजा जनक को मिला था, जिसमें से सीताजी प्रकट हुईं थी.

 

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