यदु वंशी श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को अपना कुलगुरु मानते थे। जब श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह हुआ तो वे अशीर्वाद प्राप्ति के लिए दुर्वासा ऋषि से मिलने के लिए उनके आश्रम पधारे, जो द्वारका से दूरी पर स्थित था।
श्री कृष्ण ने ऋषि दुर्वासा को महल आने का निमंत्रण दिया, जिसे दुर्वासा ऋषि ने स्वीकार तो किया लेकिन एक शर्त पर?

ऋषि दुर्वासा ने कहा: आप दोनों जिस रथ से आए हैं मैं उस रथ पर नहीं जाऊंगा, मेरे लिए एक अलग रथ मंगवाइए।
भगवान कृष्ण ने ऋषि दुर्वासा की बात सहर्ष स्वीकार की, उन्होंने रथ के घोड़े निकलवा दिए और रुक्मिणी के साथ स्वयं रथ खींचने में जुत गए।

लंबी दूरी तय करने के बाद रुक्मिणी को प्यास सताने लगी। भगवान ने रुक्मिणी को धैर्य रखने के लिए कहा और बोले कि कुछ दूर और रथ को खींच लो इसके बाद महल आ जाएगा। लेकिन रुक्मिणी का गला सूखने लगा और वे परेशान होने लगीं श्रीकृष्ण ने अपने पैरा का अंगूठा जमीन पर मारा और वहाँ से पानी की धार निकलकर आ गई। जिससे दोनों ने प्यास तो बुझा ली, लेकिन जल के लिए दुर्वासा ऋषि से नहीं पूछा, जिससे वे क्रोधित हो गए।

क्रोध में दुर्वासा ऋषि ने भगवान कृष्ण और देवी रुक्मणी को दो श्राप दिए।
पहला श्राप: भगवान और देवी रुक्मणी का 12 साल का वियोग होगा।
दूसरा श्राप: द्वारका की भूमि का पानी खारा हो जाएगा।

जिस स्थान पर 12 वर्ष रहने के दौरान रुक्मिणी ने भगवान विष्णु जी की तपस्या की थी आज वहीं उनका रुक्मणी देवी मंदिर स्थित है। दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण यहाँ जल का दान किया जाता है। मान्यता है कि यहाँ प्रसाद के रुप में जल दान करने से भक्तों की 71 पीढ़ियों का तर्पण का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Open chat
सहायता
Scan the code
KARMASU.IN
नमो नमः मित्र
हम आपकी किस प्रकार सहायता कर सकते है