मरोज़ रात आसमान में जगमगाते असंख्य तारों को देखते हैं. उनमें से उत्तर दिशा में दिखाई देने वाला सबसे चमकदार तारा हम सबका ध्यान आकर्षित करता है. सदा स्थिर नज़र आने वाला वह तारा है – ध्रुव तारा है.

ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु ने दो पुत्र थे – प्रियवद और उत्तानपाद. राजा उत्तानपाद ने दो विवाह किये. उनकी पहली पत्नि का नाम सुनीति था और दूसरी का नाम सुरुचि. दोनों रानियों से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव रखा गया और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम.

उत्तानपाद दोनों राजकुमारों के प्रति समान प्रेमभाव रखते थे. रानी सुनीति भी अपने पुत्र ध्रुव की तरह उत्तम को भी अपना ही पुत्र मान स्नेह किया करती थी. किंतु सुरुचि के मन में सुनीति और ध्रुव के प्रति ईर्ष्याभाव था.

एक दिन उत्तम अपने पिता की गोद में बैठा खेल रहा था. उत्तानपाद उसे प्रेम से सहला रहे थे. जब ध्रुव वहाँ पहुँचा, तो उसका मन भी पिता की गोद में बैठने के लिए मचल उठा. वह भी जाकर अपने पिता की गोद में बैठ गया. उसी समय रानी सुरुचि वहाँ पहुँच गई. उसने जब ध्रुव को अपने पिता उत्तानपाद की गोद में बैठा देखा, तो चिढ़ गई और खींचकर ध्रुव को गोद से उतार दिया. फिर अपने कटु वचन से ध्रुव को आहत करते हुए बोली, “अपने पिता की गोद और इस राज्य के सिंहासन पर बैठने का अधिकार केवल मेरे पुत्र उत्तम का है.”

सुरुचि के कटु वचन सुनकर ध्रुव का बालमन दु:खी हो गया. वह दौड़कर अपनी माता सुनीति के पास गया और रोते हुए सारी बात बता दी. सुनीति उसे समझाते हुए बोली, “पुत्र, दु:खी मत हो, ना ही उस मनुष्य के अमंगल की कामना करो, जिसने तुम्हें अपमानित किया है. अपने कर्मों का फल मनुष्य को भोगना ही पड़ता है. तुम अपना दुःख दूर करने के लिए भगवान विष्णु की आराधना करो. उनकी कृपा से ही तुम्हारे पितामह को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी. वे दु:खहर्ता हैं. अब वे ही तुम्हारा दुःख दूर करेंगे.”

माता की बात से बालक ध्रुव के कोमल मन में भगवान विष्णु के प्रति भक्ति भाव जागृत हो गया. तत्काल गृह त्यागकर वह वन की ओर प्रस्थान कर गया. मार्ग में उसे देवर्षि नारद मिले. उन्होंने ध्रुव को भगवान विष्णु की आराधना की विधि से अवगत करवाया.

उसके उपरांत ध्रुव ने यमुना में स्नान किया और अन्न-जल त्यागकर पैर के अंगूठे के बल खड़ा होकर भगवान विष्णु की आराधना में लीन हो गया. समय व्यतीत होने के साथ उसके तप के तेज में वृद्धि होने लगी, जो तीनों लोक में पहुँच गई. उसके अंगूठे के भार से पृथ्वी दबने लगी. उसका कठोर तप देख भगवान विष्णु को उसके समक्ष प्रकट होना ही पड़ा.

ध्रुव को दर्शन देकर भगवान विष्णु ने पूछा, “वत्स, तुम्हारी आराधना से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ. बोलो, क्या वरदान चाहते हो?”

बालक ध्रुव कहने लगा, “भगवन! मुझे माता सुरुचि ने अपमानित कर पिता की गोद से उतार दिया था. उनका कहना था कि मैं अपने पिता की गोद का अधिकारी नहीं हूँ. माता सुरुचि की इस बात ने मेरे अंतर्मन को आहत कर दिया था और मैं भागा-भागा माता सुनीति के पास अपनी व्यथा सुनाने गया, तो उन्होंने मुझे आपकी शरण में आने का परामर्श दिया….”

“…..मैंने आपकी आराधना आपकी स्नेह प्राप्ति के लिए की है प्रभुवर. आप जगत के तारणहार हैं. आपकी दृष्टि में सृष्टि के समस्त प्राणी समान हैं. पिता के गोद से उतारे जाने के बाद मैंने प्रण लिया था कि अब मैं केवल आपकी ही गोद में बैठूंगा. कृपा मुझे अपनी गोद में वह स्थान दे दीजिये, जहाँ से मुझे कोई उतार न सके.” भावविभोर होकर बालक ध्रुव बोला.

ध्रुव की अभिलाषा जानकर भगवान विष्णु बोले, “वत्स, तुम्हारा निःस्वार्थ भक्ति भाव देख मैं तुम्हें अपनी गोद में स्थान देता हूँ. यह ब्रह्माण्ड मेरा अंश है और आकाश मेरी गोद. तुम मेरी गोद आकाश में ध्रुव तारे के रूप में स्थापित होगे. तुम्हारे प्रकाश से पूरा ब्रह्माण्ड जगमगायेगा. तुम्हारा स्थान सप्तऋषियों से भी ऊपर होगा. वे तुम्हारी परिक्रमा करेंगे. जब तक ब्रह्माण्ड है, तुम्हारा स्थान निश्चित है. तुम्हारे स्थान से तुम्हें कोई डिगा नहीं पायेगा. किंतु वर्तमान में तुम्हें अपना राज्य संभालना है. इसलिए तुम घर लौट जाओ. छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी पर राजकर तुम मेरी गोद में आओगे.”

इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए. ध्रुव वापस घर लौट गया. कुछ वर्ष उपरांत राजा उत्तानपाद अपना राजपाट ध्रुव को सौंपकर वन चले गए. भगवान विष्णु के वरदान अनुसार पृथ्वी पर छत्तीस हजार वर्ष तक धर्मपूर्वक राज करने के उपरांत ध्रुव आकाश में ध्रुव तारा बनकर सदा के लिए अमर हो गया.

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