एक दिन ग्वालों के मुखिया नंद बाबा को वृषभानु के घर पधारने का निमंत्रण मिला। नंद बाबा अपने परिवार के साथ उनके घर गए। वृषभानु अपने पिछले जन्म में महाराज सुचंद्र थे। एक राजा के रूप में वृषभानु तथा उनकी पत्नी कलावती को ब्रह्मा जी से यह वरदान मिला था कि अगले जन्म में उनके परिवार में राधा नामक एक कन्या का जन्म होगा। राधा स्वयं देवी लक्ष्मी का अवतार थीं। उनका गोरा रंग बहुत सुंदर लगता था। उनके बाल लंबे और आंखें हिरणी जैसी थीं।
जब श्रीकृष्ण ने राधा को देखा, तो वे उन पर मोहित हो गए। उन्होंने राधा से पूछा, “क्या तुम मेरी मित्र बनोगी?” राधा मुस्कराकर बोलीं, “मैं इसी प्रतीक्षा में थी कि आप मुझसे ऐसा पूछे।” इस तरह दोनों बच्चों के बीच स्नेह और दोस्ती की शुरुआत हो गई। ज्यों-ज्यों श्रीकृष्ण बड़े होते गए, त्यों-त्यों राधा के प्रति उनका मोह बढ़ता गया।
जब भगवान कृष्ण युवा हो गए, तो राधा उनकी सबसे प्यारी मित्र बनीं। श्रीकृष्ण के साथ खेलने वाली दूसरी गोपियां यह शिकायत करती थीं, “भगवान कृष्ण तो हमेशा राधा से ही बातें करते रहते हैं। वे हमसे बातें क्यों नहीं करते?” एक गोपी ने कहा, “हाय! मैं तो कुछ भी देने को तैयार हूं। काश! कोई मुझे राधा बना दे।”
भगवान कृष्ण को राधा से बहुत प्रेम था, लेकिन उन्हें इस बात से जलन होती थी कि राधा उनसे गोरी क्यों हैं। एक दिन इसी बात के विरोध में भगवान कृष्ण ने अपने मुख पर रंग लगा लिया। यह देखकर राधा हंसने लगीं और उन्होंने भी श्रीकृष्ण के मुख पर रंग मल दिया। ऐसे में गोपियों को बहुत आनंद आया।
भगवान कृष्ण बोले, “तुम लोग हंस रही हो। मैं भी तुम्हें रंग लगाता हूं।” इस तरह उन्होंने भी गोपियों के चेहरे रंग दिए। शीघ्र ही सभी लोग एक-दूसरे के मुख पर रंग लगाने लगे।
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भगवान कृष्ण द्वारा मुख पर रंग लगाने का यह खेल गांव वालों को इतना भाया कि वे भी इस मौज-मस्ती में शामिल हो गए। चारों ओर हंसी-मजाक और ठहाके गूंजने लगे।
तत्पश्चात अगले साल बड़ी धूमधाम से इस दिन की तैयारियां की गईं। गोपियों ने वृक्षों और लताओं से प्राप्त किए टेसू के फूलों को पानी में घोलकर रंग तैयार किया। फिर पिचकारियों में उस रंगीन पानी को भरकर सबने खूब मौज-मस्ती की।
इस तरह वृंदावन में भारतीय त्योहार होली का आरंभ हुआ। इस त्योहार में लोग रंगों से खेलते हैं तथा सभी पर रंग और गुलाल लगाते हैं।
एक दिन जब गोपियां नदी में स्नान कर रही थीं, तो भगवान कृष्ण चुपके से वहां गए और उनके कपड़े चुरा लिए। इसके बाद वे एक पेड़ की शाखा पर बैठ गए और सारे कपड़े वहीं रख दिए। गोपियों को उनके आने के बारे में पता नहीं चला। लेकिन जब वे नहाकर नदी के किनारे गईं, तो देखा कि उनके कपड़े वहां नहीं थे। तभी गोपियों ने भगवान कृष्ण के हंसने की आवाज सुनी। इस तरह उन्हें पता चल गया कि क्या हुआ होगा। उन्होंने पानी के भीतर से ही आग्रह किया, “कृष्ण! हमारे कपड़े वापस कर दो।” श्रीकृष्ण ने कहा, “मैं तुम्हारे कपड़े तभी वापस करूंगा, जब तुम लोग हाथ जोड़कर और हाथ को सिर के ऊपर उठाकर समर्पण कर दो।”
गोपियां ऐसा नहीं करना चाहती थी, क्योंकि उन्हें बहुत शर्म आ रही थी। फिर भी उन्होंने किसी तरह यह शर्त पूरी की और उन्हें उनके कपड़े वापस मिल गए। दरअसल, भगवान कृष्ण गोपियों को उनके अहं से मुक्त कराना चाहते थे। वे चाहते थे कि गोपियां प्रभु के आगे आत्म-समर्पण कर दें।
इसके साथ ही गोपियों को यह सबक भी मिल गया कि उन्हें पूरे वस्त्र उतारकर नदी में स्नान नहीं करना चाहिए। पूरे वस्त्र उतारकर नदी में स्नान करने से नदी का अपमान होता है। संकेत रूप में प्रभु के आगे आत्म-समर्पण करने वाली गोपियां सदा के लिए अपने कान्हा की प्यारी हो गईं।
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जब श्रीकृष्ण और बलराम बड़े हो गए, तो नंद बाबा ने सोचा कि दोनों भाइयों को कोई काम सौंपा जाना चाहिए। गांव में किशोरों को यह जिम्मेदारी दी जाती थी कि वे गौओं के बछड़ों की देखरेख करें। नंद ने दोनों भाइयों को यही काम सौंप दिया और बोले, “आज से इन बछड़ों को संभालना तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हें इन्हें चारा खिलाना है और इनकी सुरक्षा भी करनी है।”
इस प्रकार अन्य किशोरों की तरह भगवान कृष्ण और बलराम भी अपने बछड़ों की देखरेख करने लगे। वे उन्हें प्रतिदिन घास चराने के लिए यमुना नदी के किनारे ले जाते और शाम के समय वापस ले आते।
जब वे बछड़ों को चराने ले जाते, तो भगवान कृष्ण प्रायः बांसुरी बजाया करते थे। उन्हें आंवला और बेल फल खाना बहुत अच्छा लगता था। वे अक्सर अपना मन बहलाने के लिए गौओं, बछड़ों और जंगल के अन्य पशु-पक्षियों की आवाजें निकाला करते थे तथा अपने दोस्तों का मनोरंजन करते थे।
हालांकि श्रीकृष्ण और बलराम के आसपास संकट मंडराया करते थे, लेकिन दोनों के साथ रहने पर ग्वालों को डरने की आवश्यकता नहीं थी। वे जानते थे कि भगवान कृष्ण उनकी रक्षा के लिए मौजूद थे।भगवान कृष्ण और बलराम के कारण गांव के ग्वाले भी बहुत साहसी तथा निडर हो गए थे। दोनों भाइयों ने सभी को लाठी भांजना अच्छी तरह सिखा दिया था। उन्हें भगवान कृष्ण और बलराम के साथ रहना बहुत अच्छा “लगता था।
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