वन में श्री शंकरजी का एक मन्दिर था। भीलकुमार कण्णप्प आखेट करने निकला और घूमता-घामता उस मन्दिर तक पहुंच गया। मन्दिर में भगवान शिव की प्रतिमा थी। उस भावुक सरल हृदय भीलकुमार के मन में यह भाव आया ‘भगवान इन हिंसक पशुओं से भरे वन में अकेले हैं। कहीं कोई पशु रात्रि में आकर इन्हें कष्ट न दे।’ उस समय संध्या हो रही थी। भीलकुमार ने धनुष पर बाण चढ़ाया और मन्दिर के द्वार पर पहरा देने बैठ गया। वह पूरी रात वहीं बैठा रहा। सवेरा हुआ। कण्णप्प के मन में अब भगवान की पूजा करने का विचार हुआ, किन्तु वह क्या जाने पूजा करना। वह वन में गया, पशु मारे और अग्नि में उनका मांस भून लिया। शहद की मक्खियों का छत्ता तोड़कर उसने शहद निकाला। एक दोने में शहद और मांस उसने लिया, वन की लताओं से कुछ पुष्प तोड़े और अपने बालों में उलझा लिए। नदी का जल मुख में भर लिया और मन्दिर पहुंचा। मूर्ति पर कुछ फूल पत्ते पड़े थे। उन्हें कण्णप्प ने पैर से हटा दिया, क्योंकि उसके एक हाथ में धनुष था और दूसरे में मांस का दोना। मुख से ही मूर्ति पर उसने जल गिराया। अब धनुष एक ओर रखकर बालों में लगाए फूल निकालकर उसने मूर्ति पर चढ़ाए और मांस को नैवेद्य रूप में मूर्ति के सामने रख दिया। उसके बाद फिर से धनुष पर बाण चढ़ाकर चौकीदारी करने के लिए मन्दिर के द्वार के बाहर बैठ गया।
कण्णप्प भूल गया घर, भूल गया परिवार, यहां तक कि भोजन तथा निद्रा की सुधि भी भूल गई। वह अपने भगवान की पूजा और उनकी रखवाली में जैसे संसार और शरीर सब भूल गया।
उस मन्दिर में प्रात:काल एक ब्राह्मण दूर के गांव से प्रतिदिन आते थे और पजा करके चले जाते थे। उनके आने का समय वही था जब कण्णप्प वन में आखेट करने जाता था। मन्दिर में मांस के टुकड़े पड़े देखकर ब्राह्मण को बड़ा दुख हुआ। उन्होंने नदी से जल लाकर पूरा मन्दिर धोया। स्वयं फिर से स्नान किया और तब पूजा की। लेकिन यह कोई एक दिन की बात तो थी नहीं। प्रतिदिन जब यही दशा मन्दिर की मिलने लगी, तब एक दिन ब्राह्मण ने निश्चय किया, ‘आज छिपकर देखूगा कि कौन प्रतिदिन मन्दिर को भ्रष्ट कर जाता है।’
ब्राह्मण छिपकर देखता रहा, किन्तु जब उसने धनुष लिए भयंकर भील को देखा, तब कुछ बोलने का साहस उसे नहीं हुआ। इधर कण्णप्प ने मन्दिर में प्रवेश करते ही देखा कि भगवान की मूर्ति के एक नेत्र से रक्त बह रहा है। उसने हाथ का दोना नीचे रख दिया और दुख से रो उठा-‘हाय! किस दुष्ट ने मेरे भगवान के नेत्र में चोट पहुंचाई।
पहले तो कण्णप्प धनुष पर बाण चढ़ाकर मन्दिर से बाहर दौड़ गया। वह मूर्ति को चोट पहुंचाने वाले को मार देना चाहता था, किन्तु बहत शीघ्र धनुष फेंककर उसने घास-पत्ते एकत्र करने प्रारम्भ कर दिए। एक पूरा गट्ठर लिए वह मन्दिर लौटा और एक-एक पत्ते एवं जड़ को मसल-मसलकर मूर्ति के नेत्र में लगाने लगा। कण्णप्प का उद्योग सफल नहीं हुआ। मूर्ति के नेत्रों से रक्त जाना किसी प्रकार भी रुकता नहीं था। इससे वह भीलकुमार अत्यन्त व्याकुल हो गया। दसी समय उसे स्मरण आया कि उससे कभी किसी भील ने कहा था-‘शरीर के घाव पर यदि दूसरे शरीर के उसी अंश का मांस लगा दिया जाकण्णप्प प्रसन्न हो गया। उसने अपने तरकस से एक बाण निकाला और उसकी नोक अपने नेत्र में घुसेड़ ली। अपने हाथों से अपना नेत्र निकालकर उसने मूर्ति के नेत्र पर रखकर दबाया। स्वयं उसके नेत्र के गड्ढे से रक्त की धार बह रही थी, किन्तु उसे पीड़ा का पता नहीं था। वह प्रसन्न हो रहा था कि मूर्ति के नेत्र से रक्त निकलना बन्द हो गया है।
इसी समय मूर्ति के दूसरे नेत्र से रक्त निकलने लगा। कण्णप्प को तो अब औषधि मिल गई थी। उसने मूर्ति के उस नेत्र पर पैर का अंगूठा रखा, जिससे दूसरा नेत्र निकाल लेने पर जब वह अंधा हो जाए तो इस मूर्ति के नेत्र को ढूंढना न पड़े। बाण की नोक उसने अपने दूसरे नेत्र में चुभाई। सहसा मन्दिर दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो उठा। उसी मूर्ति से भगवान शंकर प्रकट हो गए। उन्होंने कण्णप्प को हृदय से लगा लिया।
“ब्राह्मण! मुझे पूजा-पद्धति प्रसन्न नहीं करती। मुझे तो सरल श्रद्धापूर्ण भाव ही प्रिय है।” भगवान शिव ने छिपे हुए ब्राह्मण को सम्बोधित किया। कण्णप्प के नेत्र स्वस्थ हो चुके थे। वह तो आशुतोष का पार्षद बन गया था और उनके साथ ही उनके दिव्य धाम में चला गया। ब्राह्मण को भी उस भीलकुमार के संसर्ग से भगवान का दर्शन प्राप्त हुआ।