एक पौराणिक कथा के अनुसार लक्ष्मी और उसकी छोटी बहन दरिद्रा विष्णु के पास गई और प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभो! हम कहां रहें? इस पर विष्णु भगवान ने दरिद्रा और लक्ष्मी को पीपल के वृक्ष पर रहने की अनुमति प्रदान कर दी। इस तरह वे दोनों पीपल के वृक्ष में रहने लगीं।

विष्णु भगवान की ओर से उन्हें यह वरदान मिला कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसे शनि ग्रह के प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी।

शनि के कोप से ही घर का ऐश्वर्य नष्ट होता है, मगर शनिवार को पीपल के पेड़ की पूजा करने वाले पर लक्ष्मी और शनि की कृपा हमेशा बनी रहेगी।

इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।

गीता में पीपल की उपमा शरीर से की गई है। ‘अश्वत्थम् प्राहुख्‍ययम्’ अर्थात अश्वत्‍थ (पीपल) का काटना शरीर-घात के समान है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल प्राणवायु का केंद्र है। यानी पीपल का वृक्ष पर्याप्त मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करता है और ऑक्सीजन छोड़ता है।

संस्कृत में इसको ‘चलदलतरु’ कहते हैं। हवा न भी हो तो पीपल के पत्ते हिलते नजर आते हैं। ‘ पात सरिस मन डोला’- शायद थोड़ी-सी हवा के हिलने की वजह से तुलसीदास ने मन की चंचलता की तुलना पीपल के पत्ते के हिलने की गति से की गई है।

गंगा जन्म की कथा ।

ऋषि विश्वामित्र ने इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी।

वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।”

“वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी।

दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे।

कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, “गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया।

जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ।

देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई।

गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी।

उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था।

इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।

राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।” राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, ” राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया।

फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ।

पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं।

पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो।

पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।

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